
”डीएपी खाद का टोकन न मिलने से नाराज़ किसानों ने किया चक्काजाम”, ”खाद के लिए तरस रहे किसान, कोलारस में किया चक्काजाम, कालाबाज़ारी का लगाया आरोप”, ”मध्य प्रदेश में खाद की किल्लत से किसान परेशान”, ”मध्य प्रदेश के लगभग सभी जिलों में खाद की समस्या से किसान परेशान हैं”, ”रायसेन में डीएपी खाद का महासंकट, सुबह से शाम तक लाइनों में धक्के खा रहे अन्नदाता”, ”गुना में डीएपी खाद की किल्लत, मंडी में किसानों का हाहाकार”, ”मप्र में डीएपी की मारा-मारी: आधी रात से ही लाइन लगा लेते हैं किसान. ”
अभी रबी सीजन चल रहा है और गेहूं, चना व मसूर समेत दूसरी फसलों की बोवनी के लिए किसानों को डीएपी (डाई अमोनियम फॉस्फेट) खाद की सबसे ज्यादा ज़रूरत पड़ती है, जिसका इस्तेमाल किसान बीज के साथ करते हैं। ऊपर के पैरा में जो आपने पढ़ा वो अक्टूबर और नवम्बर माह के समाचार-पत्रों के द्वारा कवरेज की गई ग्राउंड रिपोर्ट की हैडिंग हैं। और यहाँ सिर्फ मध्य प्रदेश के कुछ ही समाचार-पत्रों की हैडिंग हैं। इस मौसम में लगभग हर वर्ष ऐसी ही खबरों से समाचार-पत्र भर जाते हैं, परन्तु सरकार और रासायनिक खाद का इस्तेमाल करने वाले किसानों के पास इस समस्या से निपटने का कोई उपाय नहीं है। और समस्या से निपटने का कोई ठोस प्रयास होता हुआ दूर तक नज़र भी नहीं आ रहा है।
रासायनिक खाद एक तो आयात करना पड़ता है और इस पर भारी सब्सिडी भी दी जाती है, जिसके कारण सरकार पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। क्या सरकार के नीति-निर्धारकों के पास ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे इस समस्या का एक मुश्त न सही, धीरे-धीरे करके ही समाधान किया जा सके? इससे न केवल सरकार का फायदा होगा बल्कि देश के किसानों को अपनी ज़मीन में ज़हर डालने से मुक्ति भी मिल सकेगी और साथ में देश के नागरिकों को ज़हरमुक्त भोजन भी मिल सकेगा।
हम आपके सामने रासायनिक खाद की किल्लत से बचने और प्राकृतिक खेती की ओर गंभीरता से कदम बढ़ाने का प्रयास करने वाली एक छोटी सी महत्वपूर्ण योजना का खाका प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे सरकार का सब्सिडी पर खर्च होने वाला बहुत सारा पैसा बचेगा और किसानों का भी वो पैसा बचेगा जो रासायनिक खादों को खरीदने में जा रहा है। साथ ही देश की करोड़ों एकड़ ज़मीन में जहर घुलने से भी बचेगा। ऊपर से देश के करोड़ों परिवारों को केमिकल फ्री भोजन मिलने लगेगा और वे बीमारियों से बच सकेंगे।
इससे पहले कि हम समाधान की ओर क़दम बढ़ाएँ, पहले यह जान लेते हैं कि रासायनिक खाद कितने प्रकार की होती है। यूरिया, डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी), सुपर फॉस्फेट, जिंक सल्फेट, पोटाश खाद, अमोनियम सल्फेट, कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट, सिंगल सुपर फॉस्फेट (एसएसपी), सल्फेट ऑफ पोटाश (एसओपी), तथा पोटैशियम मैग्नीशियम सल्फेट (पीएमएस) उन रासायनिक खादों के कुछ प्रमुख नाम हैं जो किसानों द्वारा अपने खेत में इस्तेमाल की जाती हैं। इनकी मात्रा वैज्ञानिकों द्वारा अलग-अलग फसलों और अलग-अलग समय अनुसार बताई गई है, परन्तु किसानों द्वारा उत्पादन के लालच में इनका मनमाना और अंधाधुंध इस्तेमाल किया जाता है, इसी कारण हर साल रासायनिक खादों की खपत बढ़ती जा रही है।
सभी किसानों द्वारा सिर्फ एक एकड़ में प्राकृतिक खेती करने से ही रासायनिक खाद की किल्लत खत्म हो सकती है, साथ में उनके परिवार को केमिकल फ्री भोजन प्राप्त होगा सो अलग। अभी यहाँ हम सिर्फ यूरिया और डीएपी खाद की मात्रा का जिक्र करेंगे, सिर्फ इन दोनों खादों के आँकड़ों से ही आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि सिर्फ एक एकड़ में प्राकृतिक खेती करने से ही सरकार और किसानों के कितने पैसे बचेंगे।
मान लीजिए कि देशभर में 14 करोड़ किसान हैं। अभी वर्तमान में एक किसान सालभर में एक एकड़ ज़मीन में लगभग 150 किलो डीएपी का इस्तेमाल करता है। अगर एक किलो डीएपी खाद की कीमत 27 रुपये है तो 150 किलो डीएपी का कुल खर्च निम्नलिखित होगा:
150 किलो x 27 रुपये/किलो = 4050 रुपये
मतलब, एक किसान को प्रति एकड़ प्रतिवर्ष 150 किलो डीएपी खाद के लिए 4050 रुपये खर्च करने होंगे।
अगर एक एकड़ में 150 किलो डीएपी खाद का इस्तेमाल हो रहा है, तो 14 करोड़ एकड़ में कुल कितनी डीएपी खाद का इस्तेमाल होगा, यह हम इस प्रकार निकाल सकते हैं:
कुल किलो डीएपी= 14,00,00,000 एकड़ x 150 किलो/एकड़= 21,00,00,000,000 किलो
यानि, 14 करोड़ एकड़ में कुल 21 अरब किलो (21,00,00,00,000 किलो) डीएपी खाद का इस्तेमाल होगा।
अगर एक एकड़ में 4050 रुपये खर्च हो रहे हैं, तो 14 करोड़ एकड़ में कुल खर्च इस प्रकार होगा:
कुल खर्च=14,00,00,000 एकड़ x 4050 रुपये/एकड़ = 56,70,00,00,000 रुपये
यानि, 14 करोड़ एकड़ में सालभर में डीएपी खाद का कुल खर्च 56,700 करोड़ रुपये होगा।
इसी प्रकार किसान सालभर में लगभग 300 किलो प्रति एकड़ यूरिया उपयोग करता है। अगर एक किलो यूरिया खाद की कीमत 5.36 रुपये है, तो 300 किलो यूरिया का कुल खर्च निम्नलिखित होगा:
300 किलो x 5.36 रुपये/किलो = 1608 रुपये
अगर 300 किलो यूरिया प्रति एकड़ इस्तेमाल हो रहा है, तो कुल 14 करोड़ एकड़ में यूरिया की खपत इस प्रकार होगी:
कुल किलो यूरिया=14,00,00,000 एकड़ x 300 किलो/एकड़ = 4,20,00,00,000 किलो (42 अरब किलो).
अगर एक एकड़ में 1608 रुपये खर्च हो रहे हैं, तो 14 करोड़ एकड़ में कुल खर्च इस प्रकार होगा:
कुल खर्च = 14,00,00,000 एकड़ x 1608 रुपये/एकड़
कुल खर्च = 22,51,20,00,000 रुपये
तो, 14 करोड़ एकड़ में कुल यूरिया का खर्च 22,512 करोड़ रुपये होगा।
अब हमारे पास डीएपी खाद और यूरिया खाद की मात्रा और उस पर होने वाले सालभर के खर्च का हिसाब है। 14 करोड़ एकड़ में सालभर में डीएपी खाद का कुल खर्च 56,700 करोड़ रुपये जबकि कुल यूरिया का खर्च 22,512 करोड़ रुपये है। यदि दोनों का योग किया जाए तो उत्तर आएगा 79,212 करोड़ रुपए, जो कि एक बहुत बड़ी रकम होती है।
हमने सिर्फ यूरिया और डीएपी खाद का खर्च ही यहाँ बताया है, बाकी के रासायनिक खाद भी इस्तेमाल होते हैं, यदि उनका खर्च भी इसमें जोड़ लिया जाए तो यह रकम कितनी बड़ी होगी इसका अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं।
जैसा कि हमने जाना कि 14 करोड़ किसान प्रतिवर्ष प्रति एकड़ 42 अरब किलो यूरिया खाद और कुल 21 अरब किलो डीएपी खाद का इस्तेमाल कर रहे हैं और दोनों पर होने वाला कुल खर्च है 79,212 करोड़ रुपए।
समाधान बहुत ही सरल और अमल करने में भी आसान है – सरकार के लिए भी और किसानों के लिए भी। सरकार को करना यह चाहिए कि देशभर के किसानों को सिर्फ एक एकड़ में प्राकृतिक खेती करने के लिए कहें, जिसके तहत किसान अपने परिवार के लिए ज़रूरी चीज़ों का उत्पादन सालभर लें। इस प्रकार एक ही झटके में देश की 14 करोड़ एकड़ ज़मीन को 42 अरब किलो यूरिया और कुल 21 अरब किलो डीएपी खाद के साथ-साथ अन्य रासायनिक खादों से भी छुटकारा मिल जाएगा, साथ ही ज़हरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल भी बंद हो जाएगा।
एक और फायदा यह होगा कि देशभर के 14 करोड़ किसान परिवारों को केमिकल फ्री भोजन प्राप्त होने लगेगा और इनकी बाज़ार पर निर्भरता भी कम होगी, जिसके चलते महँगाई भी कम होगी। सरकार द्वारा इन खादों पर दी जा रही सब्सिडी का पैसा तो बचेगा ही, साथ में इतने खाद के उत्पादन, रखरखाव और परिवहन पर होने वाले खर्च और समय की भी बचत होगी।
अब आपके मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि यह आँकड़ों की जादूगरी तो कोई भी बता सकता है, पर इस पर अमल कैसे होगा? अमल करना बहुत ही आसान होगा यदि वाकई में समस्या सरकार और किसानों के लिए गंभीर है तो। नहीं तो फिर चाहे किसान रासायनिक खाद की किल्लत से परेशान हो या बेमौसम की बारिश से उसकी फसल खऱाब हो या ज़हरीला अनाज खाकर उसके परिवार के लोग बीमार हो जाएँ या कुपोषण से कितने ही बच्चे मर जाएँ, न सरकार को और न ही किसानों को कुछ करना है। यदि वाकई में हम जलवायु परिवर्तन की समस्या और दिन ब दिन खऱाब होती हमारी धरती माँ की सेहत के प्रति सजग हैं तो फिर हमको कम से कम एक एकड़ भूमि में इन ज़हरीले रासायनिक खादों और कीटनाशकों को पूरी तरह से हटाना होगा, तभी हम इस योजना पर अमल कर पाएँगे.
यदि किसान एक एकड़ ज़मीन अपने परिवार के भोजन की व्यवस्था के लिए भी केमिकल फ्री नहीं कर सकता है या कहें कि वह अपने परिवार के लिए यूरिया और डीएपी नहीं छोड़ सकता है तो फिर उसे ‘अन्नदाता’ कौन कहेगा? क्या वह किसान ‘अन्नदाता’ कहलाने लायक है जो अपने ही परिवार के लिए केमिकल फ्री शुद्ध पोषणयुक्त अनाज की व्यवस्था करने में असमर्थ है?
समस्या की गंभीरता को देखते हुए सरकार को करना यह चाहिए कि प्रत्येक किसान से कम से कम एक एकड़ ज़मीन में प्राकृतिक खेती करवाने के लिए पुख्ता योजना बनवाए और उसे ज़मीनी स्तर पर उतारे।
किसी भी जिले को पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर चुनकर यह काम किया जा सकता है और इस योजना के लिए ऐसे जिले को चुना जाए जहाँ अभी सबसे अधिक इन रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जा रहा हो।
अब तकनीक का युग है और सरकार के पास न तो पैसे की कमी है और न ही संसाधनों की, इसलिए एक किसान से एक एकड़ में प्राकृतिक खेती करवाना कोई कठिन कार्य नहीं है। इसके लिए चाहिए दृढ़ निश्चय और ईमानदारी। वैसे भी राज्य सरकार और केंद्र सरकार प्राकृतिक खेती के लिए कई सारी योजनाओं का वर्तमान में क्रियान्वयन कर ही रही है। केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों मिलकर किसानों को सम्मान निधि के रूप में 12 हज़ार रूपए हर साल दे रही हैं, और भी विभिन्न योजनाओं में अनुदान दिया जा रहा है। होना तो यह चाहिए कि जो किसान एक एकड़ में रासायनिक खाद और कीटनाशक छोड़े, उसे सरकार द्वारा ‘सम्मान निधि’ का पुरस्कार दिया जाए। यदि वाकई में किसी काम के बदले कोई पुरस्कार दिया जाए तो लेने में भी अच्छा लगे और देने में भी अच्छा लगे। और इस एक एकड़ ज़मीन में जो भी उत्पादित होगा उसका 10% हिस्सा स्थानीय कृषि विभाग को अनिवार्य रूप से खरीदना होगा, जिससे कि कृषि विभाग के कर्मचारी और अधिकारियों को भी ज़हरमुक्त अनाज का स्वाद पता लग सके।
संकट काफी बड़ा है और उससे निपटने का प्रयास किसान को खुद ही करना पड़ेगा क्योंकि आखिरकार किसान को ही सबकुछ भुगतना पड़ता है। फिर चाहे बेमौसम बारिश और ओला वृष्टि हो या सूखे से उसकी फसल खराब हो या फिर ज़हरीला अनाज खाकर कैंसर, कुपोषण, शुगर जैसी बीमारियों के जाल में फँसने की बात हो, भुगतना किसान को ही पड़ता है।
इसलिए जितनी जल्दी हो किसानों को खुद अपने स्तर पर ही रासायनिक खाद व कीटनाशकों को छोडऩे का प्रयास शुरू करना चाहिए। सरकार तो प्राकृतिक खेती करने का कह ही रही है, तो किसानों को सरकार के साथ बढ़-चढ़कर इस अभियान में भागीदारी करना चाहिए।
यदि सिर्फ एक एकड़ ज़मीन से रसायन की विदाई हो जाए तो उससे पैसों की कितनी बचत होगी इसका गणित हम ऊपर बता ही चुके हैं। साथ-साथ पर्यावरण की भी रक्षा होगी। जब इतना रसायन खेत में जाएगा ही नहीं तो हमारा भूमिगत जलस्तर भी धीरे-धीरे बढऩे लगेगा, कई सारे विलुप्त होते सहायक जीवों की संख्या हमारे खेत में बढऩे लगेगी। आत्मनिर्भरता की दिशा में यह हमारा पहला कदम हो सकता है। जब किसान एक एकड़ में रसायन छोड़ेगा और दो-तीन साल में जब वह इसके चमत्कार से अवगत होगा तो वह खुद ही धीरे-धीरे करके केमिकल फ्री खेती का रकवा बढ़ाने लग जाएगा।
बड़े बदलाव करने के लिए पहले छोटे-छोटे प्रयास ही करने होंगे, तभी जाकर हम बड़े बदलाव कर पाएँगे, अन्यथा हम इसी प्रकार साल दर साल रासायनिक खादों की किल्लत से जूझते रहेंगे, रासायनिक खाद और खाद्यान्न आयात करते रहेंगे। यदि हम वाकई में समस्या के प्रति गंभीर हैं तो फिर इस चुनौती को व्यक्तिरूप से लेकर इसके समाधान के लिए कठोर कदम उठाने की ज़रूरत है।
पवन नागर,
संपादक




