आलेख

कितना पानीदार केंद्रीय बजट (2018-19)

दोगुनी आय की मंशा पर सवाल-जवाब
ज़ाहिर है कि ये बजटीय घोषणायें ही हैं, जिनके भरोसे राजग समर्थक कह रहे हैं कि केंद्रीय बजट (2018-19), किसानों की आय दोगुनी करने की शासकीय मंशा का प्रतिबिम्ब है। यदि यह सच है, तो फिर 191 किसान संगठन वाली अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति देशव्यापी आंदोलन की तैयारी क्यों कर रही है? समिति क्यों कह रही है कि कृषि क्षेत्र के नाम पर किए गये बजट प्रावधान, महज एक धोखा हैं? समिति का कथन है कि बजट में न तो किसानों की संपूर्ण कजऱ्ा मुक्ति का कोई प्रावधान है और न ही कृषि लागत का डेढ़ गुना दाम देने का कोई प्रावधान किया गया है। समिति का यह भी आरोप है कि लागत आकलन, न तो स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिश के अनुरूप है और न ही मौजूदा वास्तविक लागत के। यह फजऱ्ी आंकड़ों के आधार पर किया गया ऐसा लागत आकलन है, जो कि मौजूदा वास्तविक लागत से काफी कम है।

बजट अभिभाषण कह रहा है कि जब बाज़ार मूल्य, न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम होगा, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की व्यवस्था करेगी। किसान, पूछ रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक्री की गारंटी देने वाला जब यह ढांचा ही मौजूद नहीं है, तो फिर भरोसा करें तो करें कैसे? आय बढ़ाने के लिए, लागत घटाने के प्रावधान तो इस बजट में सिरे से गायब हैं। किसान की दोगुनी आय करने के मार्ग में बाधक सिर्फ लागत और न्यूनतम समर्थन मूल्य संबंधी पहलू ही नहीं, घटिया बीज, नकली उर्वरक और नकली कीटनाशक भी हैं। क्या इस बजट में इस बाबत् कुछ ध्यान दिया गया है?

बजट ने बटाईदारों को लाभ देने को लेकर संकेत किया है। उत्तर प्रदेश की सरकार ने बटाईदारी के नियमों में परिवर्तन कर इसे ‘संविदा खेतीÓ के लिए खोलने की घोषणा कर दी है। सोचिए कि यदि खेती, कंपनियों अथवा बड़े किसानों के हाथों में चली गई, तो कृषि उत्पाद बिक्री बाज़ार पर कुछ हाथों के एकाधिकार का दृश्य सामने आयेगा ही। ऐसे में छोटे, सीमांत किसानों को अंतत: नफा होगा या नुकसान? ऐसे में किसी किसान की आय बढ़ी, तो मंहगाई बढऩे से व्यय भी बढ़ेगा; यह गारंटी है। इससे छोटे-सीमांत किसानों का अंतत: नफा होगा या नफा? मालिक से मज़दूर बनना तो सुनिश्चित ही है।

दोगुनी आय का लक्ष्य और घटते उत्पादन की आशंका
माननीय केंद्रीय वित्त मंत्री जी पीठ ठोक रहे हैं कि वर्ष 2016-17 में लगभग 275 मिलियन टन खाद्यान्न और लगभग 300 मिलियन टन फलों और सब्जियों का ऐतिहासिक उत्पादन हुआ है। आर्थिक सर्वे-2017 कह रहा है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से वार्षिक कृषि उत्पादन में 15 से 18 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है और भारतीय कृषि में असिंचित क्षेत्रों का रकबा, 20 प्रतिशत बढ़ सकता है।

असिंचित यानी वर्षा आधारित कृषि क्षेत्र
समाधान के तौर पर, वित्त मंत्री जी ने घोषणा की है कि हर खेत को पानी योजना के तहत् भूजल सिंचाई योजना को सिंचाई से वंचित ऐसे जि़लों में शुरु करेंगे, जहां 30 प्रतिशत से कम खेतों में सिंचाई सुनिश्चित हो पा रही है। इसके लिए 2600 करोड़ के आवंटन का जिक्र है और सूक्ष्म सिंचाई निधि के लिए 2000 करोड़ रुपये का। सिंचाई के लिए सौर ऊर्जा से संचालित पंप स्थापित करने का तंत्र विकसित करेंगे। सिंचाई संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दीर्घावधि अवसंरचना सिचाई कोष बनायेंगे। कोष का पैसा, विशिष्ट कमांड एरिया परियोजनाओं पर खर्च करेंगे।

भूजल: दोहन पर ज़ोर, भण्डारण उपेक्षित
विशेषज्ञ कह रहे हैं कि ये तो धरती से ज़्यादा से ज़्यादा पानी खींच लेने की घोषणायें हैं। ये घोषणायें तो तब फलदायी होंगी, जब भूजल के भण्डार संकटग्रस्त नहीं होंगे। भारत के भूजल भण्डार जिस रफ्तार से खाली हो रहे हैं, उस रफ्तार से न तो वर्षा जल संचयन पर काम हो रहा है और न ही भूजल के उपयोग को अनुशासित सुनिश्चित करने पर। ऐसे में ज़्यादा जल दोहन को बढ़ावा देना कितना उचित है। यह तो एक बीमारी का इलाज के लिए, दूसरी बीमारी को बढ़ावा देने जैसी चिकित्सा शैली है। क्या यह उचित है?

इस प्रश्न के जवाब में महाराष्ट्र का उदाहरण सामने रखते हुए ‘सैंड्रपÓ के अध्ययनकर्ता श्री हिमांशु ठक्कर कहते है कि महाराष्ट्र राज्य की मात्र 20 प्रतिशत कृषि भूमि ही सिंचित क्षेत्र में है। स्पष्ट है कि महाराष्ट्र की फिलहाल 80 प्रतिशत कृषि भूमि असिंचित क्षेत्र में आ चुकी है और उसके अधिकांश भू-जल भण्डार संकटग्रस्त स्थिति में है। ऐसे में 30 प्रतिशत सिंचित क्षेत्रों में भूजल सिंचाई योजना को जाने की बजट घोषणा से महाराष्ट्र के भूजल दोहन में और अधिक तेजी आयेगी। श्री ठक्कर के बयान से स्पष्ट है कि दोहन की यह तेजी, महाराष्ट्र के भूजल संकट को आगे चलकर और अधिक बढ़ाने वाली साबित होगी। ऐसा न हो; इसके लिए ज़रूरी है कि भूजल सिंचाई योजना को ऐसे इलाकों में ले जाने से पहले भूजल-पुनर्भरण की योजना को ऐसे इलाकों में जाना चाहिए। क्या इस बजट में इस पर विशेष प्रावधान किया गया है ?

वित्त मंत्री के बजट अभिभाषण के हिंदी दस्तावेज़ के अंत में दर्शाई सारणियों में 1.30 लाख जल संचयन के सृजन और पुनरोद्धार और उससे 5.01 लाख किसानों के लाभ का आंकड़ा दिया गया है। आंकड़ों पर सवाल उठाते पानी कार्यकर्ता जानना चाहते हैं कि वर्ष 2016-2017 और वर्ष 2017-18 बजट में जिन 10 लाख जल संचयन ढांचों के निर्माण और पुनरोद्धार का जिक्र गया था, उनमें से कितने ढांचें ज़मीन पर उतरे? क्या कोई बतायेगा? क्या ऐसे जल संचयन ढांचों के नाम, पते, रकबे और लागत की कोई सूची अब तक सार्वजनिक की गई है?

पीपीपी हाथों में जाती जलापूर्ति
केंद्रीय बजट (2018-19) में राष्ट्रीय जलापूर्ति योजनाओं और सामुदायिक जलशुद्धिकरण संयंत्रों के जरिए 84000 निवासियों हेतु अवसंरचना विकास का जिक्र है। 500 शहरों के सभी परिवारों को जलापूर्ति सुनिश्चित करने के लिए 77,640 करोड़ राज्य स्तरीय योजनाओं के अनुमोदन की बात है। 19,428 करोड़ की लागत से 494 परियोजनाओं हेतु जलापूर्ति संविदायें और 12,429 करोड़ रुपये लागत वाली 272 परियोजनाओं हेतु सीवरेज कार्य की संविदा प्रदान करने का जिक्र है। गौर कीजिए कि गत् वर्ष के बजट में 20 हज़ार ग्रामीण बसावटों का सुरक्षित पेयजल मुहैया कराने तथा सामुदायिक भागीदारी से सरकार अथवा कंपनी द्वारा जलशोधन संयंत्र लगाने व लागत में सामुदायिक भागीदारी की घोषणा की गई थी। वह घोषणा कितनी आगे बढ़ी? इसका जिक्र न बजट में है और न ही आर्थिक सर्वे में।

हां, अपने बजट अभिभाषण में वित्त मंत्री महोदय ने नमामि गंगे का उल्लेख अवश्य किया है। वित्त मंत्री ने कहा – ‘गंगा को साफ  करना, राष्ट्रीय महत्व का काम है और इसके प्रति हम दृढ़़ प्रतिबद्व हैं। सदस्यों को यह जानकर खुशी होगी कि इस काम ने रफ्तार पकड़ ली है। ‘नमामि गंगे’ कार्यक्रम के अंतर्गत ढांचागत विकास, नदी सतह की सफार्ई, ग्रामीण स्वच्छता और अन्य हस्तक्षेप के लिए 16,713 करोड़ रुपये की लागत वाली 187 परियोजनायें स्वीकृत की जा चुकी हैं। इनमें से 47 को पूरा कर लिया गया है; शेष का कार्य अलग-अलग चरण में है। गंगा किनारे के सभी 4465 गांवों को ‘खुले में शौच से मुक्त’ घोषित कर लिया गया है।”

बजट से गायब, असल वायु प्रदूषक
वायु प्रदूषण के मोर्चे पर देंखें, तो विज्ञान पर्यावरण केंद्र के अध्ययनकर्ता स्वागत कर रहे हैं कि यह बजट, फसल अवशेष प्रबंधन के लिए विशेष योजना लेकर आया है। किंतु वह सवाल भी कर रहे हैं कि वायु प्रदूषण राष्ट्रीय आपदा है, तो योजना, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली मात्र के लिए सीमित क्यों? विज्ञान पर्यावरण केन्द्र की कार्यकारी निदेशक- अनुमिता रॉय चौधरी का कथन है कि भारत का हर बड़ा नगर वायु प्रदूषण का शिकार है। ऐसे में जब खासतौर पर स्वच्छ ईंधन और परिवहन पर खास देने की ज़रूरत है, बजट ने वायु प्रदूषण के शहरी चुनौतियों और कारकों की उपेक्षा की है।

हकीकत यह है कि किसान को राजधानी दिल्ली के वायु प्रदूषण का असल दोषी किसान को बताकर लाया गया फसल अवशेष प्रबंधन हेतु नई मशीनरी का बजट फंडा, कृषि लागत तो बढ़ाने वाला तो साबित होगा ही; वायु प्रदूषण के ज़्यादा गंभीर कारणों की ओर से ध्यान हटाने की कोशिश भी साबित होगा। वरना कोई बताये कि वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले औद्योगिक, ठोस, मलीय, रासायनिक तथा धूल जैसे प्रदूषकों को नियंत्रित करने के प्रावधान कहां हैं?

सुविधा पर मुखर, असल समाधान पर चुप्पी
समग्र दृष्टि से देखें, तो टिप्पणी करें, तो कहना न होगा कि बजट (2018-19) सुविधा बढ़ाने वाला तो है, लेकिन सूखती-प्रदूषित होती नदियों, उतरते-प्रदूषित होते भूजल और बढ़ते वैश्विक ताप के मूल कारकों की व्यापक चुनौती तथा गरीब और अमीर के बीच बढ़ती आर्थिक खाई के समाधान की दिशा में चुप्पी साधता ही दिखाई देता है। अत: बजट के आइने में विचारने लायक प्रश्न फिलहाल यही है कि यदि नदियां सूख गईं, भूजल उतर गया, आसमान तप गया और मौसम पूरी तरह अस्थिर हो गया, तो क्या तमाम प्रयासों के बावजूद किसी गरीब किसान की आय दोगुनी करना संभव होगा? विचारें।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Close