संपादकीय

फिर वही अंग्रेजों वाला कानून!

पवन नागर, संपादक

पिछले वर्ष देश में आम चुनाव सम्पन्न हुए। 10 साल से चली आ रही मनमोहन सरकार की करारी हार हुई। भाजपा ने अपनी अब तक की लोकसभा चुनाव की सबसे बड़ी जीत हासिल की। यह जीत इन मायनों में खास थी कि मध्यम वर्ग तथा संपन्न तबकों के साथ-साथ देश के सर्वहारा वर्ग ने भी पूरी तरह एकजुट होकर भाजपा को चुना था। उन्होंने यह विश्वास व्यक्त किया था कि भले लोग अब तक भाजपा को अमीरों तथा व्यापारियों की पार्टी कहते आए हों, पर अब नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में यह पार्टी उनके हितों का भी भरपूर ख्याल रखेगी और उनके भी अच्छे दिन आएँगे। ऐसी भव्य जीत की कल्पना शायद खुद भारतीय जनता पार्टी को भी नहीं रही होगी। यदि रही होती तो शायद उन्होंने अकेले ही चुनाव लड़ा होता।
यहाँ इन सब बातों का जि़क्र इसलिए किया जा रहा है क्योंकि नई केंद्र सरकार से भारत की जनता और ख़ासकर किसानों को बड़ी उम्मीदें थीं। और वे उम्मीदें जाएज़ भी थीं। चुनाव से पहले मोदी जी ने जनता से बहुत सारे वादे किये थे और उन्हें अपनी दिन की सभाओं में रात के सपने दिखाये थे। अब सरकार का एक वर्ष का कार्यकाल पूर्ण होने को है, पर सपने पूरे होते नहीं दिखाई दे रहे हैं। मोदी जी ने वादे किए थे कि 100 दिन में कालाधन वापस लाएँगे, महंगाई कम करेंगे, भ्रष्टाचार को खत्म कर देंगे, कश्मीर में धारा 370 हटा देंगे और किसानों की तकदीर बदल देंगे इत्यादि।
परंतु जैसे ही सरकार बनी, तुरंत घोषणा कर दी गई कि कोई भी राज्य किसानों को फसल पर बोनस नहीं देगा। यदि देगा तो उसका भुगतान राज्य सरकार को खुद करना होगा, केन्द्र सरकार का कोई योगदान उसमें नहीं रहेगा। यह मोदी सरकार का किसान विरोधी पहला निर्णय आया। अभी किसान इस झटके से उबरा भी नहीं था कि दिसम्बर में मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए अध्यादेश लेकर आ गई।
ज्ञात हो कि सन् 2013 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जनहित को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों के समय बने 120 वर्ष पुराने भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करके किसानों को भारी राहत पहुँचाई थी। उस संशोधन से आशा जागी थी कि अब किसान की ज़मीन आसानी से कोई उद्योगपति नहीं ले पायेगा और बिना किसान की अनुमति के भूमि अधिग्रहण नहीं किया जायेगा। क्योंकि उस कानून में प्रावधान था कि जहाँ भी ज़मीन अधिग्रहीत की जायेगी वहाँ के 80 प्रतिशत ज़मीन मालिकों की अनुमति लेना आवश्यक होगा। लेकिन अब मोदी सरकार उस कानून को पुन: पहले जैसा, बल्कि उससे भी सख्त करने पर आमादा है। इस संबंध में मोदी सरकार जो नया मसौदा लाई है उसमें ज़मीन मालिकों की अनुमति वाले प्रावधान को पूरी तरह हटा दिया गया है। इससे तो सीधे तौर पर यही मालूम होता है कि यह अध्यादेश किसान विरोधी है क्योंकि इसके माध्यम से ज़मीन भी ले लेंगे और किसान से पूछा भी नहीं जायेगा। यदि किसान भूमि अधिग्रहण का विरोध करेगा तो उसे 6 माह की सज़ा और 3 लाख तक का जुर्माना जैसे प्रावधान भी इस अध्यादेश में हैं। यदि भूमि अधिग्रहण का मामला अदालत में लम्बित है तो भी अधिग्रहण नहीं रोका जायेगा। इससे सरकार की नीयत का पता चलता है कि सरकार किसान को उसकी ज़मीन से जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी बेदखल करके कॉर्पोरेट और उद्योगपतियों को ज़मीन देना चाहती है ताकि वे उपजाऊ ज़मीनों पर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ, महँगे अस्पताल और आलीशान कॉलोनियाँ बना सकें। और जिस प्रकार सरकार इस मसले पर विपक्ष और देश भर के किसान समुदाय के पुरजोर विरोध को दरकिनार करके येन-केन-प्रकारेण जल्दी से जल्दी इस कानून को पारित कराने पर तुली है, उससे किसान समुदाय दंग है।
सोचने वाली बात है कि एक मज़बूत और किसान हितैषी कानून को आनन-फानन में इतना लचीला करने की सरकार को क्या ज़रूरत आन पड़ी? इससे तो सीधे तौर पर सरकार की नीयत पर सवाल उठते हैं और पहले वाली धारणा ही पुष्ट होती है कि यह पार्टी अमीरों और व्यापारियों की पार्टी है और इसे गरीबों तथा किसानों के हितों से कोई सरोकार नहीं। जो किसान पूरी तरह ज़मीन पर ही आश्रित है और इतने वर्षों से ज़मीन को सहेजकर उसकी देखभाल कर रहा है, जिसका एकमात्र व्यवसाय कृषि है, तो क्यों उसके व्यवसाय को मिटाने की कीमत पर पहले से सम्पन्न अमीरों और उद्योगपतियों को उपजाऊ ज़मीन देने की आवश्यकता आन पड़ी? इसका जबाव सरकार को देना चाहिए, देना पड़ेगा।
क्या उद्योग लगाने के लिए उपजाऊ ज़मीन ही चाहिए? क्या फैक्ट्री बंजर ज़मीन पर नहीं लगती? सरकार को चाहिए कि भारत में जितनी भी बंजर ज़मीन है उसका सही आकलन करे और उस बंजर ज़मीन को उद्योग और फैक्ट्री लगाने के लिए अधिग्रहीत करे। हर राज्य में लाखों हेक्टेयर भूमि बंजर पड़ी है। यदि सरकार इस भूमि का सही आकलन करे, सही योजना बनाये तो किसानों से उनकी उपजाऊ ज़मीन छीनने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। वैसे भी भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि पर ही आधारित है और यदि कृषि भूमि को ही खत्म कर दिया जायेगा तो न केवल देश में खाद्यान्न संकट पैदा हो जाएगा बल्कि जिन किसानों की भूमि जायेगी वे भी बेरोज़गार हो जाएँगे। ऊपर से देश की जैव-विविधता नष्ट होगी सो अलग।
फिलहाल कुछ विरोध के बाद सरकार कानून में कुछ संशोधन के लिए तैयार तो हुई है परंतु जिन प्रावधानों पर असली विवाद है उन पर किसी भी तरह के समझौते की नीयत उसकी नहीं है। कुल मिलाकर यह कि सब लीपा-पोती है। अब देखना होगा कि यह नया कानून बन पायेगा कि नहीं। यदि यह कानून बन गया तो पहले से परेशान किसान और परेशान हो जायेगा। कहने को तो मोदी सरकार ने नारा दिया है- ‘सबका साथ-सबका विकास’, पर उसके इस कदम से तो लगता नहीं है कि वह वाकई ऐसा चाहती है।
अब प्रश्न उठता है कि जो व्यक्ति चुनाव पूर्व जनता की इतनी बात करता था, अब क्यों नहीं? क्योंकि पिछले 65 वर्षों से यही होता आया है कि चुनाव से पहले झूठे वादे करो, चुनाव जीतो और जनता को भूल जाओ। परंतु राजनेता भूल जाते हैं कि वे सिर्फ 5 वर्ष के लिए चुने गये हैं और 5 वर्ष बाद उन्हें फिर जनता के पास जाना होगा और जनता अपने मताधिकार का उपयोग करके उन्हें उनका स्थान बता देगी- जैसा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की मनमोहन सरकार के साथ हुआ और हाल ही में फरवरी 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में मोदी जी और भाजपा का घमण्ड टूट गया। तो यह जनता है, जो सब जानती है, और कौन कैसा है यह वक्त आने पर बता भी देती है।
पवन नागर, संपादक

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