अभी किसान अधिक वर्षा से सोयाबीन की फसल खराब हो जाने के सदमे से निकल भी नहीं पाये थे कि मौसम ने किसानों को एक ओर दर्द दे दिया। किसान अपनी गेहूँ, चना, मसूर इत्यादि की लहलहाती फसलों को देखकर खुश हो रहा था कि इस बार अच्छी फसल आयेगी और अच्छा मुनाफा होगा। पर मौसम को तो कुछ और ही मंजूर था।
फरवरी माह में हुई ओलावृष्टि और बारिश से पूरे प्रदेश के किसानों का काफी नुकसान हुआ है। किसान अपनी फसल को घर भी नहीं ला पाया और खेत में ओले और बारिश ने उसे खराब कर दिया। इस ओलावृष्टि से किसान के सारे सपने टूट गये जो उसने अपनी लहलहाती फसल को देखकर कर देखे थे। शासन ने भी किसानों का दर्द समझते हुए और नुकसान को देखते हुए 2000 करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की है, जो तारीफ के काबिल है, और केन्द्र सरकार से भी मदद की मांग की है। पर केन्द्र सरकार भी मध्यप्रदेश के प्रति पक्षपात का रवैया अपनाती है, जो कि एक राष्ट्रीय सरकार होने के नाते गलत है। केन्द्र सरकार उन राज्यों में अधिक राहत राशि की घोषणा करती है जहाँ उसके दल की सरकार है (जैसे महाराष्ट्र में) और मध्यप्रदेश को कम राहत राशि देती है, जबकि मध्यप्रदेश में बारिश और ओलावृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक नुकसान हुआ है। खैर, ऐसी पक्षपाती सरकार कितने दिन और चल पायेगी। वैसे भी आने वाले कुछ महीनों में आम चुनाव हैं और इस बिना नेता वाली सरकार का जाना तय है।
पर सवाल यह उठता है कि अभी तक सोयाबीन में हुये नुकसान की राहत राशि किसानों तक क्यों नहीं पहुँची? आखिर 2000 करोड़ की राहत राशि कब बँटेगी? किसान तो परेशान ही रहेगा और सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाता रहेगा। मूल प्रश्न यह है कि राहत राशि पहुँचने में इतना समय क्यों लगता है और जिस किसान का वाकई नुकसान हुआ है उसको मुआवज़ा क्यों नहीं मिलता? यह गोलमाल का चक्कर कब तक चलेगा आखिर? सरकार को चाहिए कि ऐसा तंत्र विकसित करे कि पूरे क्षेत्र के हिसाब से मुआवज़ा न देकर जिस खेत में जितना नुकसान हुआ हो उस हिसाब से मुआवज़ा दिया जाए, ताकि हर किसान के नुकसान की वास्तविक भरपाई हो सके। सरकार को चाहिए कि पूरे प्रदेश के किसानों की बुवाई के आंकडे़ एकत्रित करे। कितनी एकड़ में चना बोया गया और कितने में गेहूँ, इन सबके सही आंकडे़ सरकार के पास होना चाहिए। इससे मुआवजे़ देने में आसानी होगी। अभी होता यह है कि किसी किसान के पास 5 एकड़ ज़मीन है, तो उसने 3 एकड़ में धान लगाई और 2 एकड़ में सोयाबीन। पर सर्वे के दौरान किसान जिस फसल का मुआवज़ा मिल रहा होता है उसी का नाम लिखवा देता है और इस तरह पूरी 5 एकड़ भूमि का मुआवज़ा ले लेता है। और इस गोलमाल में उसकी सहायता करता है पटवारी, जो इसके बदले में 1000-2000 रूपये पा जाता है। दूसरी ओर जिस किसान की वाकई में फसल खराब हुई है, उसको मुआवज़ा मिल ही नहीं पाता है। इस प्रकार अपात्र किसान अधिकारियों की मिलीभगत से पात्र किसान के मुआवज़े को हड़प लेते हैं। सरकार को इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए किसानों की सहायता करने और सरकारी धन के दुरुपयोग को रोकने हेतु प्रयास करने चाहिए, तभी सही मायनों में अच्छे दिन आएँगे।
-पवन नागर, संपादक