मार्च के महीने में हुई बेमौसम बारिश के कारण देश के 6 बड़े राज्यों के किसान एक बिन बुलाई मुसीबत में फँस गए हैं। मार्च में तीन-चार दिन बारिश, आंधी-तूफान, और ओले गिरने से फसलों को बहुत नुकसान पहुँचा है, खेतों में खड़ी फसलें तबाह हो गई हैं। कई जगह तो फसलों के बजाय ओले बिछे हुए हैं खेतों में। कृषि विशेषज्ञों का दावा है कि करीब 10 हज़ार करोड़ की फसलें बर्बाद हुई हैं। और इस प्राकृतिक आपदा की गंभीरता तथा व्यापकता को देखकर केन्द्र सरकार ने राज्यों से नुकसान के आकलन पर रिपोर्ट मांगी है। कृषि राज्यमंत्री डॉ. संजीव बालियान ने कहा है कि ‘हमने राज्यों को एसडीआरएफ फंड से किसानों को राहत देने के निर्देश दिए हैं। फंड कम पड़ा तो अतिरिक्त मदद करेंगे।
मार्च माह में इस तरह की बारिश होना एक आश्चर्य वाली बात है, और देश के नीति निर्देशकों को इस बात पर सोचना होगा कि भारत जैसे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर देश में इस प्रकार मौसम का बिगडऩा न केवल भारत के लिए अपितु पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय है। भारत के लिए तो ये बड़ी समस्या पैदा होने के संकेत हैं क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से कृषि पर आधारित है, और भारत की कृषि मौसम पर निर्भर है।
प्रकृति की यह मार इसी साल पड़़ी हो ऐसा नहीं है, पिछले दो सालों से देश में कहीं बेमौसम बारिश, कहीं सूखा, तो कहीं बाढ़ से किसानों की फसलें तबाह होती आ रही हैं, जिसके चलते कृषि व्यवसाय अभी संकट के दौर से गुजर रहा है। और कृषि व्यवसाय के संकट में होने का मतलब है देश की अर्थव्यवस्था पर सीधा असर होना।
अब प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकार मौसम के बिगडऩे के क्या कारण हो सकते हैं? कारण अंजान नहीं हैं, हम अंजान बने हुए हैं। हमने प्रकृति के विनाश को विकास का पर्याय मान लिया है, हमें लगने लगा है कि ज्यादा से ज्यादा फैक्ट्रियाँ लगाकर, ज्यादा से ज्यादा उपजाऊ ज़मीन को उद्योगों के हवाले करके, ज़मीन के नीचे छिपी संपदा का अंधाधुंध दोहन करने के लिये बड़ी तादाद में जंगलों का सफाया करके, रसायनों के बेहिसाब इस्तेमाल द्वारा ज्यादा से ज्यादा पैदावार करके, हवा-पानी-ज़मीन सबको प्रदूषित करके हम सबसे आगे निकल सकते हैं। जीडीपी के बेजान आँकड़ों के चक्कर में हम जीती-जागती कुदरत को मारने पर तुल गए हैं। अब ऐसे में अगर कुदरत कहर बरपाने लगे तो क्या आश्चर्य।
अभी तो यह शुरुआत है। अभी तो हमें अपने किये के बहुत से दुष्परिणाम भुगतने हैं। चीन वाले तो भुगतने भी लगे हैं। अगर इस आसन्न खतरे को रोकना है तो देश के नीति निर्देशकों को तत्काल प्रभाव से ऐसी नीतियाँ लागू करनी होंगी जिससे उपजाऊ जमीन पर आवासीय कॉलोनी और उद्योग धंधों को लगने से रोका जा सके, खेती में रसायनों के प्रयोग को हतोत्साहित किया जा सके, उद्योग-धंधों के ऊपर कृषि को वरीयता दी जा सके, जीवाश्म ईंधनों के प्रयोग में कमी लाई जा सके, बिजली उत्पादन के लिये कोयला जलाने से बचा जा सके, जंगलों का संरक्षण और संवर्धन हो सके। तभी जाकर हम प्राकृतिक आपदाओं से बच पाएँगे और अपने किसानों को बचा पाएँगे। हमें यह समझना होगा कि विकास का पश्चिमी मॉडल किसी भी तरह हमारे हित में नहीं है। आज दुनिया भर में मौसम में बदलाव और ग्लोबल वॉर्मिंग की जो समस्या खड़ी हुई है इसके मूल में विकास का यही पश्चिमी मॉडल है। वे लोग खुद अब इस मॉडल से तंग आ गए हैं। तो हम इस गलत साबित हो चुके मॉडल को क्यों अपनाएँ। अपना खुद का एक ‘समझदार’ मॉडल तैयार करके ही हम अपना व दुनिया का भला कर पाएँगे, और हमें करना ही होगा क्योंकि हम दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बनने से बस थोड़ा ही पीछे हैं और हमारे द्वारा उठाया गया कोई भी कदम पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा।
पवन नागर, संपादक