कृषि में उत्पादन गिरता जा रहा है, भूजल स्तर पाताल को छूने लगा है। धरती का तापमान दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है और मौसम चक्र भी बिगड़ चुका है। आलम यह है कि गर्मी 12 महीने ही लगती है और बारिश का जब कभी-कभार मन हो जाता है, तब होती है। सर्दी का मौसम एक-दो महीनों में सिमटकर रह गया है। दोस्तो, ये सब बातें कोई गूढ़ ज्ञान की बातें नहीं हैं, लगभग हर रोज़ ही न्यूज़ चैनलों और अखबारों में इनके बारे में आता है। और हमारी और आपकी रोज़मर्रा की बातचीत में भी लगभग हर रोज़ इन चीज़ों की चर्चा होती है। ये सब क्यों हो रहा है इसका मोटा-मोटा ज्ञान भी सभी को है, पर समस्या यह है कि इसे न होने देने के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है। और करने की जरूरत भी क्यों हो, खाने को अन्न मिल ही रहा है, रहने को घर है ही, गर्मी सहने को एसी है और प्राकृतिक आपदाओं के वक्त सरकारी मुआवज़ा मिल जाता है।
बहरहाल, इस तरीके से बाकी लोगों का काम तो शायद चल जाए कुछ और समय, लेकिन किसान भाइयों का तो नहीं चलेगा। उनके लिए तो अब करो या मरो वाली स्थिति आ चुकी है। वे दो मोर्चों पर एक साथ नहीं लड़ पाएँगे। एक ओर प्रकृति की मार है, तो दूसरी ओर वे आधुनिक खेती (मतलब कि रासायनिक खाद/कीटनाशक तथा महँगे बीज वाली खेती) से मोटा मुनाफा कमाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनके हितों की रक्षा करने वालीं सरकारों द्वारा ठगे जा रहे हैं। पहले वे केवल प्रकृति पर आश्रित थे, अब बाज़ार पर भी निर्भर हो गए हैं। तो अब एक ओर जहाँ प्रकृति की प्रतिकूलता है, वहीं दूसरी ओर बाज़ार का शोषण। किसान तो मानो अब पूरी तरह भगवान भरोसे हो गया है। लेकिन इसमें दोष कहीं न कहीं उसका भी है। उसी ने आत्मनिर्भरता का जीवन छोड़कर गुलामी स्वीकार की, उसी ने कुदरती खेती छोड़कर रासायनिक खेती अपनाई। इसी से सारा प्रपंच शुरू हुआ, इसी से वह बाज़ार के जाल में फँसा और इसी से उसकी ज़मीनें खराब हुईं।
किसान अगर किसान होने का सही मतलब समझ जाए तो उसे कहीं भी भटकने की जरूरत ही नहीं हैं। न बैंक जाने की ज़रूरत, न सरकार के सामने साथ फैलाने की ज़रूरत, न ही महँगी खाद-बीज वाली कंपनियों के जाल में फँसने की ज़रूरत। किसान होने का सही मतलब तो यही है कि किसान सिर्फ देता है, लेता कुछ भी नहीं। परंतु आज के परिवेश में सब उल्टा हो गया है। किसान को बीज भी बाज़ार से लेना है, खाद भी, कीटनाशक भी और लोन भी। ज़रूरत की लगभग हर चीज़ के लिए किसान अब बाज़ार पर ही निर्भर है। उसके पास अपना कुछ भी नहीं है, ले दे के सिर्फ ज़मीन है तो वह भी बैंक में गिरवी रखी हुई है।
प्रश्न उठता है कि यह सब ठीक कैसे होगा? जवाब बहुत ही सरल और सस्ता है। जिसे पाने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा, अपने पूर्वजों को याद करना पड़ेगा और उनके तौर-तरीकों को अपनाना पड़ेगा। उनकी जीवन-शैली पर गौर करना होगा, उनके बताए गए रास्तों पर चलना होगा। और आज जो खेती हो रही है ज़्यादा से ज़्य़ादा पैसे कमाने की होड़ की, उससे बचना होगा। लालच को कहीं दूर छोड़कर आना होगा।
सबसे पहले किसान भाई ये निश्चय कर लें कि उन्हें सही किसान बनना है, मतलब कि आत्मनिर्भर किसान। असली किसान वही है जो आत्मनिर्भर है, न कि वो जो बाज़ार पर निर्भर हो। जैसे कि हमारे पूर्वज थे, जो सिर्फ उन्हीं चीज़ों के लिए बाज़ार जाते थे जो किसी भी तरह उनके अपने खेत या बाड़े में नहीं हो सकती थीं। बाकी सब मामलों में वे आत्मनिर्भर थे। जैसे कि हल और बैल सब के पास थे, बीज भी वे हर साल बचा के रखते थे, खाद भी घर की होती थी, सब्ज़ी भी घर पर उगती थी, दूध/दही/घी सब घर का होता था। और इसी तरीके को अपनाए रखकर हमारे पूर्वजों ने न केवल शानदार तरीके से अपना जीवन-यापन किया अपितु हमें अच्छी शिक्षा भी दिलाई। किंतु आज उसका परिणाम देखिए कि उन्हीं के बच्चे बोलते फिरते हैं कि खेती में अब लाभ नहीं रहा। कैसी विडंबना है कि जिस आत्मनिर्भर खेती के दम पर पूर्वजों ने अपनी पूरी उम्र निकाल दी, अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई करवाई, उनका घर बसाया, आज कहीं भी उसका धन्यवाद करने वाला कोई नहीं। खैर, अभी भी वक्त है कि हम अपनी भूल सुधार लें और फिर से पूर्वजों की तरह आत्मनिर्भर खेती करने लगें तो हम खेती को फिर से लाभ का काम बना सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले किसान को रासायनिक खाद के चंगुल से बाहर आना होगा, महँगे बीजों से तौबा करनी होगी, बाज़ार में मिलने वाले कीटनाशकों को भी न कहना होगा। जब इन महँगी चीज़ों का उपयोग नहीं होगा तो खेती में अपने आप लागत कम हो जाएगी। उत्पादन भले एक-दो साल थोड़ा-सा कम होगा, परंतु किसान भाई आत्मनिर्भर हो जाएँगे। और फिर कभी ऐसा न होगा कि बोनी का समय हो गया है और खाद ही नहीं मिल रही है। नहीं मिले तो नहीं मिले, हमारे पास तो हमारी गोबर खाद है न, अपना बीज भी है। केवल नकदी फसलें उगाने के लालच को छोडऩा होगा। मिश्रित खेती तथा प्राकृतिक खाद से ज़मीन उर्वर होगी तो फसलों की जीवनी-शक्ति बढ़ जाएगी और कीटनाशकों की आवश्यकता उतनी नहीं पड़ेगी। इससे अंतत: उत्पादन बढऩा शुरू हो जाएगा।
पशु-पालन भी बढ़ाना होगा ताकि दूध/दही/घी सब शुद्ध और सस्ता प्राप्त हो। हर किसान अपने बाड़े में सब्ज़ी भी उगाने लगे तो यह खर्च भी कम होगा और घातक रसायनों के शरीर में जाने से होने वाली बीमारियों के इलाज पर खर्च होने वाला धन भी बचेगा।
भाइयो, खेती पहले भी लाभ का काम था, अभी भी है और भविष्य में भी रहेगा। ज़रूरत है तो बस थोड़े से संयम की, अनुशासन की, मेहनत की और प्रकृति के साथ चलने की, धरती को फिर से माँ का दर्जा देने की। जय जवान, जय किसान।
पवन नागर, संपादक