लालच छोड़ों, प्रकृति से नाता जोड़ो
प्रकृति की अपनी एक व्यवस्था है जिसमें भरपूर उत्पादन होता है, वह भी बिना रासायनिक खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल किए हुए, परंतु इस उत्पादन को वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, महसूस कर सकता है जिसके पास प्रकृति के नियम-कायदों, कानूनों को समझने का नज़रिया है। लालच और अंहकार में डूबे व्यक्तियों को यह उत्पादन दिखेगा ही नहीं क्योंकि ये लोग प्रकृति के सहायक हैं ही नहीं, इन लालची व्यक्तियों को प्रकृति के अमूल्य तत्वों का सिर्फ दोहन करना आता है, बेहिसाब खर्च करना आता है, और इसके चलते जब ये तत्व रीत जाते हैं और प्रकृति का संतुलन बिगडऩे लगता है (फिर चाहे आप बात बेमौसम हो रही बारिश की करें या गर्मी में होने वाली पानी की किल्लत की करें या दिन ब दिन हो रही तापमान में वृद्धि की करें) तो ये लालची लोग इसका ठीकरा किसी और पर फोडऩे लगते हैं।
वर्तमान में जलवायु परिवर्तन सुविधाभोगी आधुनिक इंसान के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रहा है। दिन ब दिन यह समस्या बढ़ती ही जा रही है, पर मजाल है कि किसी व्यक्ति के कान पर जूं भी रेंग जाए। व्यक्ति तो छोडि़ए, सरकारों के कानों पर भी जूं नहीं रेंग रही है, सिर्फ बड़ी-बड़ी घोषणाएँ हो रही हैं पर ज़मीनी स्तर पर सब निल बटे सन्नाटा ही पसरा हुआ है।
अब समय आ चुका है कि हम गहरी नींद से जाग जाएँ। हम सबको जलवायु की समस्या के प्रति गंभीर हो जाना चाहिए, नहीं तो वह दिन दूर नहीं कि हम सब इन प्राकृतिक तत्वों के प्रकोप से ही इन तत्वों में विलीन हो जाएँगे। हम सबको प्रकृति की व्यवस्था को समझना होगा। प्रकृति किस प्रकार से इस पूरी धरती को गतिमान बनाए हुए है उस ओर बड़ी ही समझदारी से ध्यान देगा होगा तथा प्रकृति की उत्पादन व्यवस्था का भी बड़ी ही गहराई से अध्ययन करना होगा। प्रकृति की व्यवस्था में उत्पादन की कमी नहीं है, प्रकृति भरपूर उत्पादन देती है, बस हमें प्रकृति के अनुसार कार्य करना है, उसकी विविधता को समझना है। जैसे सूरज निरंतर बिना रुके अपना कार्य कर रहा है, और अन्य जीव-जंतु जिस प्रकार से प्रकृति के इस चक्र में साथ दे रहे हैं, वैसे ही हम सबको भी लालच छोड़कर प्रकृति की सहायता करना चाहिए।
प्रकृति हमको मुफ्त में बेशकीमती सौर ऊर्जा दे रही है, असंख्य जड़ी बूटियाँ दे रही है, असंख्य वनस्पतियाँ दे रही है। बहुमूल्य खनिज तत्व भी इसी प्रकृति की देन हैं। पानी और हवा तो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, जिनके बिना जीना तो संभव ही नहीं है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि पृथ्वी पर 70 प्रतिशत पानी होने के बावजूद और हर वर्ष इतनी वर्षा होने के बाद भी हमको जल संकट का सामना करना पड़ता है। फिर इस आधुनिकता और तकनीक का क्या फायदा?
इतने आधुनिक और तकनीक से युक्त होने के बावजूद हम यह समझने को तैयार नहीं है कि ये प्राकृतिक साधन सीमित हैं, इसलिए इनका इस्तेमाल हमें संयम के साथ करना है। हम तो अंधाधुंध इन सीमित संसाधनों का दोहन अपने लालच के लिए कर रहे हैं, और इसीलिए साल दर साल कोई न कोई प्राकृतिक आपदा दुनिया में आती ही रहती है। और आधुनिक मानव उस आपदा के सामने अपने घुटने टेक देता है। फिर भी इन आपदाओं से कुछ नहीं सीख पा रहा है। इंसान की याद्दाश्त बहुत कमज़ोर हो गई मालूम होती है, इसीलिए हर आपदा को वह तुरंत भूल जाता है और पूर्ववत लालच भरी भागमभाग में लग जाता है।
तो हमें क्या करना चाहिए? यहाँ हम इस पर बात नहीं करेंगे कि दुनिया भर की सरकारों को क्या करना चाहिए क्योंकि वह हमारे हाथ में नहीं है। हम तो इस पर बात करेंगे कि किसान होने के नाते, भू-स्वामी होने के नाते और एक धरतीवासी होने के नाते हम क्या कर सकते हैं। हमको करना यह होगा कि भूलने की आदत को सुधारना होगा, बारम्बार आ रहीं आपदाओं को खतरे की घंटी मानना होगा और भविष्य में इन आपदाओं की तीव्रता और न बढ़े इसके लिए अपने लालच पर लगाम लगाना सीखना होगा। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन बंद करना होगा। हमें आवश्यक और अनावश्यक में अंतर करना सीखना होगा। प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति तो बखूबी कर सकती है परन्तु लालच का तो कोई अंत ही नहीं होता। हमें अपने उपभोग की गति का प्रकृति के पुनर्चक्रण की गति से सामंजस्य बैठाना होगा।
दूसरा काम यह करना होगा कि हमें प्रकृति के पुनर्चक्रण में सहयोग करना होगा। मतलब, हम प्रकृति से जितना ले रहे हैं उतना ही वापस लौटाने का संकल्प करना पड़ेगा। पूरी दुनिया लेन-देन पर टिकी है, हमारा हर व्यवहार लेन-देन पर ही आधारित है, तो फिर प्रकृति के मामले में हम इस बात को कैसे भूल जाते हैं? पहले के ज़माने में यदि कोई रिश्तेदार या पड़ोसी कोई वस्तु आपको देने घर आता था तो लोग उसको खाली हाथ नहीं जाने देते थे बल्कि उसी के बर्तन में कुछ न कुछ भरकर वापस देते थे। मतलब, उसने जितना दिया उसके बदले उसे हमने भी कुछ लौटाया। हमें भी वर्तमान में यही करना है प्रकृति के साथ। यदि हम प्रकृति से 100 प्रतिशत कुछ तत्व ले रहे हैं तो कम से कम 70 प्रतिशत तो उसे लौटाएँ, तब जाकर संतुलन बनेगा और तब हम भी खुश रहेंगे और प्रकृति भी खुश रहेगी। हमें पुनर्चक्रण में प्रकृति का सहयोग करना ही होगा क्योंकि यदि प्रकृति स्वयं को पुनर्चक्रित नहीं कर पाई तो हम सबका मरना तय है। तो पुनर्चक्रण में सहयोग के लिए किसान भाइयों को क्या करना चाहिए? कृषि उत्पादन के लिए आप प्रकृति से जो दो चीज़ें सबसे अधिक ले रहे हैं उन्हें प्रकृति को वापस लौटाइए। कौन सी दो चीज़ें? पानी और पेड़। पानी की सबसे ज़्यादा खपत खेती में होती है और खेती के लिए साल-दर-साल अधिकाधिक जंगल साफ किए जा रहे हैं। इसीलिए इन दो चीज़ों की भरपाई की हमारी जि़म्मेदारी बनती है। कैसे करेंगे?
इसके लिए हमें अपने-अपने खेतों में छोटे-छोटे तालाब एवं कुँए बनवाने होंगे और खूब सारे पेड़ लगाने होंगे। किसानों को कुल ज़मीन के 10 प्रतिशत हिस्से में बागवानी और 10 प्रतिशत हिस्से में तालाब या कुँए की व्यवस्था करनी चाहिए। तालाब और कुँए बनाने से जहाँ एक ओर सिंचाई के लिए भरपूर पानी उपलब्ध होगा, वहीं खेत की मिट्टी और हवा में नमी बढऩे से उत्पादन में वृद्धि होगी। साथ ही भू-जल स्तर भी बढ़ेगा। बागवानी से पेड़ों की संख्या में इज़ाफा होगा, जिससे तापमान कम होगा, वातावरण में कार्बन का स्तर घटेगा और बारिश बढ़ेगी। मिट्टी का क्षरण रुकेगा, ज़मीन अधिक उपजाऊ बनेगी। किसानों के मित्र पक्षियों एवं कीटों की संख्या बढऩे से फसलों का परागण एवं कीट-नियंत्रण अधिक प्रभावी तरीके से होगा, वो भी फ्री में। किसानों के लिए अतिरिक्त कमाई का ज़रिया हो जाएगा, एक बार लगाओ और फिर उम्र भर कमाओ। इससे प्रकृति का पुनर्चक्रण तो होगा ही, साथ ही किसानों को भी ढेर सारे लाभ मिलेंगे। कुल ज़मीन के 80 प्रतिशत हिस्से में खेती, 10 प्रतिशत हिस्से में बागवानी और सब्जी की खेती, और 10 प्रतिशत में तालाब होगा तो फिर देखिएगा कि आत्मनिर्भरता कैसे नहीं आती।
तीसरा काम हमें यह करना है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के वैकल्पिक स्त्रोत तलाशने होंगे ताकि प्रकृति को नुक्सान पहुँचाने वाले काम बंद हो सकें। उदाहरण के तौर पर, आज बिजली हमारे लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हो गई है जितनी कि हवा। बिजली के बिना कोई भी काम होता नहीं। लेकिन अभी अधिकाँश बिजली कोयला जलाकर पैदा की जाती है, और कोयले का दहन जलवायु परिवर्तन की समस्या का सबसे बड़ा कारण है। इसका दूसरा बड़ा कारण है जीवाश्म ईंधनों (पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस) का दहन। यदि हम अपनी बिजली और अपना ईंधन किन्हीं और स्त्रोतों से प्राप्त कर सकें तो हम प्रकृति को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं।
हम किसान भाइयों को क्या करना चाहिए? हमें अधिक से अधिक सोलर ऊर्जा का उपयोग करना चाहिए, घरों में भी और खेतों में भी। यदि हर खेत में सोलर पंप लगा दिए जाएँ तो कितनी बिजली की बचत होगी। ईंधन के लिए गोबर गैस या बॉयो-गैस का उपयोग बहुत अच्छा विकल्प है। तीसरी चीज़ है प्राकृतिक खाद का उपयोग। रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के उत्पादन एवं परिवहन में बड़ी मात्रा में ऊर्जा खर्च होती है तथा जीवाश्म ईंधनों का उपयोग होता है, साथ ही ये रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक मिट्टी, पानी और हवा को भी बुरी तरह प्रदूषित करते हैं। इनके स्थान पर प्राकृतिक उर्वरकों का उपयोग करें। एकल फसल खेती से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और जैव-विविधता खतरे में पड़ जाती है, इसलिए हमें चाहिए कि हम बहुफसलीय खेती करें, इससे खेती में हमारा जोखिम भी कम होगा और प्रकृति का संतुलन भी बना रहेगा।
उपरोक्त सुझावों पर ईमानदारी, दृढ़ निश्चय और संकल्पता के साथ कार्य करना अत्यावश्यक है। इसमें सरकार, जनता और किसान सभी की भागीदारी ज़रूरी है। इस काम में जो सबसे बड़ा रोड़ा है वह है हमारा लालच, जिसने हमें अँधा कर दिया है और हम देख नहीं पा रहे हैं कि हम उसी डाल को काट रहे हैं जिस पर बैठे हैं। हमें इस लालच को तुरंत छोडऩा होगा और प्रकृति से नाता जोडऩा होगा। तभी जाकर हम पर्यावरण से संबंधित सभी समस्याओं से निजात पा सकेंगे। इससे किसानों की समस्याओं का भी निराकरण हो जाएगा।
हमें चाहिए कि प्रकृति की उस व्यवस्था में विश्वास करें जिससे पूरी सृष्टि चल रही है, जिससे करोड़ों वर्षों से प्रकृति इस धरती पर संतुलन बनाए हुए है, वो भी बिना किसी आधुनिकता और तकनीक के। प्रकृति की व्यवस्था में लालच का कोई स्थान है ही नहीं। इस व्यवस्था में तो ‘संतोषम् परम् सुखम्’ की भावना के साथ जिया जाता है। आप ध्यान दें कि जंगल में किस प्रकार जीवन-चक्र चल रहा है। वहाँ तो सुविधाभोग के कोई साधन नहीं हैं, कोई तकनीक नहीं है। न ही कोई अस्पताल है, न ही कोई नगर निकाय है, न ही कोई शासक है। फिर भी वहाँ सभी जीवों का जीवन सुचारू रूप से चल रहा है। जंगल भी कितना स्वच्छ है, बिना सफाई कर्मचारियों के। हमारे पास तो कितनी तकनीकि है, कितने मानव संसाधन हैं, फिर भी हमने धरती का क्या हाल कर दिया है यह किसी से भी नहीं छुपा है। हमने जल को प्रदूषित कर दिया, हवा को प्रदूषित कर दिया, हमने ज़मीन को ज़हरीला कर दिया। जंगलों को हमने कम कर दिया है। आप ही विचार कीजिए कि इतनी तकनीक, आधुनिकता और बुद्धि होने के बाद भी, हम बेहतर हैं या जंगलों के वे जीव बेहतर हैं? ऐसी आधुनिकता का भी क्या फायदा जो हमारे जीवन को ही संकट में डाल दे।
तो साथियो! इस कष्ट से बचने का और आगे आने वाली पीढिय़ों को समस्याओं से बचाने का सबसे बेहतर तरीका यही है कि हम सब मिलकर प्रकृति की सहायता करें। अपने लालच के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बेलगाम दोहन बंद करें और प्रकृति से जो ले रहे हैं उसे वापस प्रकृतिको लौटाने की भी नीयत रखें। तभी हम सबको प्राकृतिक आपदाओं से निजात मिलेगी, बीमारियों से निजात मिलेगी। इस बात का ध्यान हमेशा रखें कि हमें प्रकृति को नुकसान पहुँचाने वाला कोई कार्य नहीं करना है, फिर चाहे आप किसी भी व्यवसाय में क्यों न हों। यह दृढ़ निश्चय हर व्यक्ति को करना होगा कि ”लालच से नाता तोड़ो और प्रकृति से नाता जोड़ो”।
पवन नागर, संपादक