इन्द्रदेव की अगवानी की तैयारी ज़रूरी

अग्नि देव ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति मार्च शुरू में ही जारी कर दी थी। अप्रैल अंत में शुरू होने वाली गर्म हवाओं के शिमला जैसे ठण्डे शहर में मार्च अंत में ही प्रवेश कर जाने से विज्ञप्ति की पुष्टि भी हो गई थी कि इस बार गर्मियाँ पिछले वर्ष की तुलना में ज़्यादा गर्म लू लेकर आएँगी। इन्द्र देवता की ताज़ा प्रेस विज्ञप्ति में लिखा है कि यदि ‘ला नीनो’ का उभार इसी तरह जारी रहा तो इस वर्ष का भारतीय मानसून सामान्य रहेगा। हालाँकि ‘ला नीनो’ के उभार में मई अंत से कमज़ोरी आने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा रहा। यदि ऐसा हुआ तो मानसून के सामान्य से काफी कम रहने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। हमारे लोक विज्ञानियों ने कहा ही है – ”जै दिन जेठ चलै पुरवाई, तै दिन सावन धूल उड़ाई।”
फिलहाल गौर फरमाने की बात यह है कि सामान्य मानसून का ताज़ा अनुमान तत्काल राहत देने वाला संदेश हो सकता है, लेकिन लगातार बढ़ता अतिवृष्टि और अनावृष्टि का सिलसिला नहीं। यह सिलसिला गवाह है कि अब मानसून के सामान्य होने की गारंटी छिन गई है। बारिश पूरे चौमासे में बरकरार रहेगी या फिर चंद दिनों में पूरे चौमासे का पानी बरस जाएगा, कोई दावे के साथ नहीं कह सकता। वर्षा आने की आवृत्ति, चमक और धमक कब, कहाँ और कितनी होगी, यह कहना भी अब मुश्किल हो गया है। मानकर चलना चाहिए कि बादलों से बरसने वाले पानी के साथ ये अनिश्चितताएँ तो अब रहेंगी ही। अमेरिका की स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा पिछले 60 साल के आँकड़ों के आधार पर प्रस्तुत शोध कह रहा है कि दक्षिण एशिया में बाढ़ और सूखे की तीव्रता लगातार बढ़ रही है। ताप और नमी में बदलाव के कारण ऐसा हो रहा है। बदलाव की यह आवृत्ति ठोस और स्थाई है। इसका सबसे ज़्यादा प्रभाव भारत के मध्य क्षेत्र में होने की आशंका व्यक्त की गई है।
बुनियादी प्रश्न यह है कि ऐसे में हम आमजन करें तो करें क्या? आपदा प्रबंधन कानून-2005, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून तथा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून को लागू करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का इंतज़ार करें, या निर्देशों को लागू करने के शासकीय तौर-तरीकों पर बहस करें, या बाढ़-सुखाड़ के मानक व राहत को लेकर नेता-अफसर और बांध-तटबंधों को कोसें, या हमारे हिस्से का पानी सोख लेने के लिए शराब, शीतल पेय तथा बोतलबंद पानी की कपंनियों पर उंगली उठाएँ, या फिर हालात से निबटने में अपनी भूमिका निभाने की दिशा में कदम बढ़ाएँ?
मिथक का टूटना ज़रूरी
सही जवाब जानने के लिए सबसे पहले इस मिथक का टूटना ज़रूरी है कि किसी अकेले व्यक्ति या किसी सरकार अथवा बाज़ार के बूते जल संकट का समाधान संभव है। दूसरा मिथक यह है कि वर्षा औसत से ज़्यादा हो तो बाढ़ तथा औसत से कम हो तो सूखा लाती है। सत्य यह है कि वार्षिक वर्षा औसत के मामले में राजस्थान के जिला जैसलमेर का स्थान भारत में सबसे नीचे है और मेघालय के गाँव मावसींरम का सबसे ऊँचा, बावजूद इसके न जैसलमेर में हर साल सूखा घोषित होता है और न मावसींरम में हर साल बाढ़ आती है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस साल जिस इलाके में वर्षा का जैसा औसत और जैसी आवृत्ति हो, यदि हम उसके हिसाब से जीना सीख लें तो न हमें बाढ़ सताएगी और न सूखा।
कारण ही निवारण
एक अन्य सत्य यह है कि बाढ़ हमेशा नुकसानदेह नहीं होती। सामान्य बाढ़ नुकसान से ज़्यादा तो नफा देती है। बाढ़ प्रदूषण का सफाया कर देती है। खेत को उपजाऊ मिट्टी से भर देती है, जिससे अगली फसल का उत्पादन दोगुना हो जाता है। बाढ़ नफे से ज़्यादा नुकसान तभी करती है जब अप्रत्याशित हो, जब एक घंटे में चार महीने की बारिश हो जाए, जब वेग अत्यंत तीव्र हो, जब नदी पुराना रास्ता छोड़कर नये रास्ते पर निकल जाए, या जब बाढ़़ के पानी में ठोस मलबे की मात्रा काफी ज़्यादा हो अथवा वह ज़रूरत से ज़्यादा दिन ठहर जाए। बाढ़ के बढ़ते वेग, अधिक ठहराव, अधिक मलबे और अधिक मारक होने के कारण भी कई हैं: नदी में गाद की अधिकता, तटबंध, नदी प्रवाह मार्ग तथा उसके जलग्रहण क्षेत्र के परंपरागत जलमार्गों में अवरोध। बांधों द्वारा बिना सूचना अचानक पानी छोड़ देने का कुप्रंबधन भी बाढ़ के मारक हो जाने का एक कारण है।
मिट्टी और इसकी नमी को अपने बाज़ुओं में बाँधकर रखने वाली घास व अन्य छोटी वनस्पतियों का अभाव, वनों का सफाया, वर्षाजल संचयन ढाँचों की कमी, उनमें गाद की अधिकता तथा उनके पानी को रोककर रखने वाले पालों-बंधों का टूटा-फूटा अथवा कमजोर होना; ये ऐसे कारण हैं जो बाढ़ और सुखाड़… दोनों का दुष्प्रभाव बढ़ा देते हैं। यदि खनन अनुशासित न हो; मवेशी न हों; मवेशियों के लिए चारा न हो; सूखे की भविष्यवाणी के बावजूद उससे बचाव की तैयारी न की गई हो, तो दुष्प्रभाव का बढऩा स्वाभाविक है; बढ़ेगा ही। ऐसी स्थिति में सूखा या बाढ़ राहत के नाम पर खैरात बाँटने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। उसमें भी बंदरबाँट हो तो फिर आत्महत्याएँ होती ही हैं। ऐसे अनुभवों से देश कई बार गुज़र चुका है। गौर करने की बात है कि अकाल पूरे बुंदेलखण्ड में आया, लेकिन आत्महत्याएँ वहीं हुईं जहाँ खनन ने सारी सीमाएँ लांघीं, जंगलों का जमकर सफाया हुआ और मवेशी बिना चारे के मरे; बांदा, महोबा और हमीरपुर।
इंतज़ार बेकार, तैयारी ज़रूरी
निष्कर्ष स्पष्ट है कि यदि इन्द्रदेव ने विज्ञप्ति जारी कर दी है तो उसके संदेश को समझकर उनकी अगवानी की तैयारी करें। यह तैयारी सात मोर्चों पर करनी है: पानी, अनाज, चारा, ईंधन, खेती, बाज़ार और सेहत। यदि हमारे पास प्रथम चार का अगले साल के लिए पर्याप्त भंडारण है तो न किसी की ओर ताकने की ज़रूरत पड़ेगी और न ही आत्महत्या के हादसे होंगे। खेती, बाज़ार और सेहत ऐसे मोर्चे हैं जिनके विषय में कुछ सावधानियाँ काफी होंगी।
तैयार रखें पानी के कटोरे
आइए, सबसे पहले हम बारिश की हर बूंद को पकड़कर धरती के पेट में डालने की कोशिश तेज़ कर दें। परंपरागत तौर पर लोग यही करते थे। इसके लिए दो तारीखें तय थीं – कार्तिक में देवउठनी एकादशी और बैसाख में अक्षय तृतीया। ये अबूझ मुहूर्त माने गए हैं। इन दो तारीखों को कोई भी शुभ कार्य बिना पंडित से पूछे भी किया जा सकता है। इन तारीखों में खेत भी खाली होते हैं और खेतिहर भी। ये हमारे पारंपरिक जल दिवस हैं। अत: पहले के समय में हर गाँव पानी के इंतज़ाम के लिए हर वर्ष दो काम अवश्य करता था: देवउठनी एकादशी को नये जल ढाँचों का निर्माण और अक्षया तृतीया को पुराने ताल की मिट्टी निकालकर पाल पर डाल देना।
गौरतलब है कि इन्द्रदेव की अगवानी के तैयारी क्रम का यह सबसे पहला और ज़रूरी काम है। पानी के पुराने ढाँचों की साफ -सफाई, गाद निकासी और टूटी-फूटी पालों व मेड़बंदियों को दुरुस्त करके ही हम जलसंचयन ढाँचों की पूरी जलग्रहण क्षमता को बनाए रख सकते हैं। पहली बारिश के बाद उचित जगह देखकर कुछ अच्छी झाडिय़ों और जलानुकूल बीजों को फेंक देना तथा चौड़े पत्ते वाले पौधों को रोप कर मिट्टी के कटाव व पानी के बहाव को नियंत्रित करना भी ज़रूरी है। यदि हम ऐसा कर सकें तो सूखे का डर कम सताएगा ओर बाढ़ भी नुकसानदेह वेग से हमारे करीब नहीं आएगी।
जवाबदेही निभाएँ संस्थान
शराब, शीतल पेय और बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनियाँ गाँवों की गरीब-गुरबा आबादी के हिस्से का पानी लूटकर मुनाफा कमाती हैं। इस लूट को रोकने हेतु ज़रूरी है कि हम उन्हें बाध्य करें कि वे जैसे और जितने पानी का दोहन करती हैं, कम से कम उतना और वैसी गुणवत्ता का पानी धरती को वापस लौटाएँ। उपयोग किए पानी को पुन: उपयोग लायक बनाकर, जलानुकूल हरीतिमा बढ़ाकर तथा वर्षा जल संचयन इकाइयों की साफ -सफाई, रखरखाव व नए ढाँचों के निर्माण की जवाबदेही उठाकर वे ऐसा कर सकती हैं।
व्यापार में दो प्रतिशत से ज़्यादा मुनाफा न कमाना और अपने मुनाफे का 10 प्रतिशत धर्मार्थ कार्यों में लगाने का सिद्धांत, लाभ के साथ सभी के शुभ को जोड़कर चलने का भारतीय व्यापारिक सिद्धांत है। इस सिद्धांत की पालना के कारण ही व्यापारियों को कभी महाजन यानी ‘महान जन’ कहा जाता था। जिन व्यापारियों को प्रकृति और भारतीयता के प्रति तनिक भी सम्मान है, उन्हें चाहिए कि वे फिर से महान जन बनने की पहल करें।
पानी के तेजी से घटते परिमाण के मद्देनज़र, बेहतर तो यह होगा कि प्रत्येक औद्योगिक इकाई, शिक्षण संस्थान, शासकीय इमारतें तथा चार दीवारी वाली आवासीय परियोजनाएँ अपने-अपने परिसर में वर्षा जल संचयन का अग्रिम इंतज़ाम करके ऐसी जवाबदेही निभाएँ। इसी विचार को लेकर गत वर्ष जल-हल यात्रा निकाली गई थी। शहरी विद्यार्थियों को गाँवों में ‘डॅऊट ड्यूटी’ पर लगाया गया था। इसी विचार के साथ दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर आदि अखबारों ने तालाब मरम्मत का अभियान चलाया था। इस वर्ष भी ऐसा ही करना चाहिए।
पानी के बाज़ार के खिलाफ एक औज़ार – प्याऊ
पानी के बाज़ार की बढ़ती लूट घटाने के लिए ऐसे उत्पादों की बिक्री को हतोत्साहित करना भी ज़रूरी है। शराब, बाज़ार आधारित शीतल पेय और बोतलबंद पानी का उपभोग कम करके भी हम इस लूट को घटा सकते हैं। शीतल पेय और बोतलबंद कंपनियों ने अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए सार्वजनिक स्थलों से सार्वजनिक नल गायब कर दिए हैं। रेलवे स्टेशनों पर लगे ‘वाटर प्वॉइंट’ की बिक्री बढ़ाने के लिए ट्रेन आने के समय पर प्लेटफॉर्म के नलों पर पानी बंद करने की कारगुजारी मैंने खुद कई स्टेशनों पर देखी है।
अक्षय तृतीया को इंसान ही नहीं बल्कि पक्षी और जानवरों के लिए भी प्याऊ-पौशाला के शुभारंभ का रिवाज बहुत पुराना है। पानी के इस बढ़ते बाज़ार को हतोत्साहित करने का काम हमारी परंपरागत पौशालाएँ भी कर सकती हैं। रेलवे स्टेशन पर, बस अड्डों पर, लंबे-लंबे राजमार्गों पर घड़े में पानी भरकर चलाई जाने वाली एक पौशाला को शुरू करने का मतलब है आरओ, शीतल पेय निर्माण आदि प्रक्रियाओं के कारण बर्बाद होने वाले पानी को बचा लेना। अक्षय तृतीया और श्री शीतलाष्टमी को नये घड़े के पूजन की परंपरा बीकानेर शहर आज भी पूरे मनोयोग से निभाता है। बीते 18 अप्रैल को अक्षय तृतीया और 08 मई, 2018 को श्री शीतलाष्टमी थी। नौजवान व्यापारी आर्यशेखर ने इलाहाबाद में ‘पानी के बाज़ार के खिलाफ एक औज़ार – प्याऊ’ के नारे के साथ ‘गंगा पौशालाओं’ की शृंखला शुरू कर दी है। आइए, हम भी करें।
ज़रूरत भर भंडारण ज़रूरी
गेंहूँ की फसल कटकर घर पहुँच चुकी है। ऐसे खेतिहर परिवार जिनकी आजीविका पूरी तरह खेती पर ही निर्भर है, वे इनका इतना भंडारण अवश्य कर लें कि अगली रबी और खरीब..दोनों फसलें कमज़ोर हों, तो भी खाने के लिए बाज़ार से खरीदने की मजबूरी सामने न आए। यदि गलती से आप धान का घरेलू भंडार खाली कर चुके हों तो अतिरिक्त मोटे अनाज के बदले चावल ले लें, क्योंकि यदि सूखा पड़ा तो चावल के दाम बढेंग़े। आलू समेत सभी सब्जि़यों की कीमतें भी बढेंग़ी, अत: जो सब्जि़याँ सुखाकर उपयोग के लिए संरक्षित की जा सकती हों, संरक्षित कर लें। कुल मिलाकर, अधिक पानी की मांग करने वाली फसलों के उत्पाद अपनी ज़रूरत के लिए अवश्य बचा रखें। किंतु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि व्यापारियों को अपनी तिजोरी भरने के लिए जमाखोरी की छूट दे दें।
जमाखोरी और कीमतों पर नियंत्रण
बाज़ार में जमाखोरी और कीमतों की बढ़ोतरी को नियंत्रित करना तथा सरकारी स्तर पर भंडारण क्षमता व गुणवत्ता का विकास वर्तमान सरकार के समक्ष सबसे ज़रूरी व पहली चुनौती है। यह आसान नहीं है। यदि वह यह कर सकी तो बधाई की पात्र बनेगी, नहीं तो उसके खिलाफ उठती असंतोष की लहर को सैलाब बनते समय नहीं लगेगा।
भंडारण व प्रसंस्करण क्षमता का विस्तार
गौरतलब है कि भंडारण गृहों में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और शीतगृहों में विशेष क़र्ज़ व छूट योजनाओं के बावजूद कोई विशेष प्रगति देखने को नहीं मिल रही है। गोदामों में अनाजों की बर्बादी के नज़ारे आज भी आम हैं। भारत में सब्ज़ी तथा फल उत्पादन की 40 प्रतिशत मात्रा महज़ स्थानीय स्तर पर उचित भंडारण तथा प्रसंस्करण सुविधाओं के अभाव में नष्ट हो जाती है। इन सुविधाओं के विकास से स्थानीय रोज़गार व आर्थिक स्वावलंबन का विकास तो होगा ही, सूखे के नज़रिये से भी इस मोर्चे पर पहल सार्थक होगी।
चारे और ईंधन का अतिरिक्त इंतज़ाम
सूखे का एक अन्य पहलू यह है कि सूखा पङऩे पर भूख और प्यास के कारण सबसे पहले मौत मवेशियों की होती है। पीने के पानी और चारे के इंतज़ाम से मवेशियों का जीवन तो बचेगा ही, उनके दूध से हमारी पौष्टिकता की भी रक्षा होगी। इसी तरह ईंधन का पूर्व इंतज़ाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। कई ऐसे झाङ़-झंखाड़, पत्ती व घास, जिन्हें हम बेकार समझकर अक्सर जला दिया करते हैं, उन्हें सुखाकर चारे और ईंधन के रूप में संजोने का काम अभी से शुरू कर दें।
समझदार करें फसल चक्र में बदलाव
इसी क्रम में एक ज़रूरी एहतियात खेती के संदर्भ में है। चेतावनी है कि वर्षा कम होगी। हो सकता है इतनी कम हो कि फसल ही सूख जाए या फूल फल में बदलने से पहले ही मर जाए। क्या यह समझदारी नहीं कि ऐसे में मैं गन्ना-धान जैसी अधिक पानी वाली फसलों की बजाय कम पानी वाली फसलों को प्राथमिकता दूँ? मोटे अनाज, दलहन और तिलहन की फसलें बोऊँ? यदि पानी वाली फसलें बोनी ही पड़ें तो ऐसे बीजों का चयन करूँ जिनकी फसल कम दिनों में तैयार होती हो? खेती के साथ बागवानी का प्रयोग करूँ? वैज्ञानिक कहते हैं कि फसल चक्र में अनुकूल बदलाव की तैयारी ज़रूरी है। यह समझदारी होगी।
इसके अलावा हमें चाहिए कि हम सब्ज़ी, मसाले, फूल व औषधि आदि की खेती को तेज़ धूप से बचाने के लिए पॉलीहाउस, ग्रीन हाउस आदि की सुविधा का लाभ लें। खेत में नमी बचाकर रखने के लिए जैविक खाद तथा मल्चिंग जैसे तौर-तरीकों का जमकर इस्तेमाल करें। कृषि, बागवानी, भूजल, भंडारण, प्रसंस्करण तथा गृह आदि विभागों को भी चाहिए कि संबंधित तैयारियों में जि़म्मेदारी के साथ सहयोगी बनें।
काम आएगी सेहत में सतर्कता
सूखा पङऩे पर मौसम और मिट्टी की नमी में आई कमी सिर्फ खेती को ही चुनौती नहीं देती, हमारी सेहत को भी चुनौती देती है। अत: एहतियाती कदम उठाने के लिए स्वास्थ्य विभाग के अलावा सतर्क तो हमें भी होना ही पङ़ेगा। भूलें नहीं कि दूरदृष्टि रखने वाले लोग आपदा आने पर न चीखते हैं और न चिल्लाते हैं, बस! एक दीप जलाते हैं। समय पूर्व की तैयारी एक ऐसा ही दीप है। आइए, प्रज्जवलित करें।
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