खेती-बाड़ी

औषधीय फसलें उत्पादन से उपयोग तक

भारतीय चिकित्सा विज्ञान में प्राचीन ग्रंथो में औषधीय पादपों के गुणों का खूब वर्णन किया गया है।औषधीय पौधों का महत्व व प्रभाव इसमें पाये जाने वाले रासायनिक यौगिकों पर निर्भर करता है। भारत एवं विश्व में पिछले 10 वर्षों की तुलना में आज हर्बल औषधियों का उपयोग बढ़ा है।भारतीय औषधीय पादपों एवं आयुर्वेद के उत्पादों की मांग 30-40 फीसदी बढ़ गई है।औषधि गुण पौधे की पतियों, फूलों, बीजों, जड़ों और प्रकंदो में मौजूद होता है।कुछ औषधीय पौधों में उपस्थित रासायनिक यौगिक की मात्रा का प्रतिशत अधिक होता है जबकि कुछकेवल न्यून मात्र रूप में ही पाये जाते है।भारत सरकार के वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) ने लगभग 600 से अधिक औषधीय पौधों पर भारतीय और विदेशी पेटेंट फाइल किये है।इन पेटेंट में ऐसे पौधे शामिल किये गए है जो सुरक्षित रूप से त्वचा विकारों, एंटीकैंसर, एंटी-हेपोटोटॉक्सिक, एन्टीवायरल,उत्तेजक विरोधी और मधुमेह विरोधी गतिविधियों के लिए और साथ ही जो प्राकृतिक उत्पाद केमिस्टों के लिए उपयोगी है। तथा कई भारतीय हर्बल दवा कंपनियों ने औषधीय फसलों के प्रसंस्करण और निष्कर्षण की विधि की प्रौद्योगिकी को सफलतापूर्वक अपनाया है।सीएसआईआर के अंतर्गत आने वाले संस्थान विशेषकर केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान (सीमैप), लखनऊ एवं भारतीय समवेत औषध संस्थान (आईआईआईएम), जम्मू और हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान (आईएचबीटी), पालमपुर विभिन्न औषधीय फसलों के शोध, कृषि प्रौद्योगिकी के विकास एवं प्रसार कार्य में अपना योगदान दे रहे है।इनसंस्थानों से विकसित उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी, औद्योगिक तकनीक, प्रशिक्षण और प्रदर्शन कार्यक्रम के द्वारा शोधकर्ता, प्रौद्योगिकीविद,छात्र, किसान,उद्यमी, आयुर्वेदिक संस्थान, कृषि संस्थानऔर कोई भी इच्छुक व्यक्ति सीधे तौर से जुड़कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की प्रगति में सहायता कर सकते है।हर्बल उत्पादों की मांग को देखते हुएआज औषधीय फसलों की खेती से भारत के किसान एवं उद्यमी आर्थिक लाभ कमा सकते है।औषधीय फसलों मेंअतीस, पिपलामूल, किंग ऑफ बिटर,  पवित्र तुलसी, गुडुची, इंडियन विंटर चेरी,कुटकी और यष्टिमधु की उन्नत खेती को बड़े स्तर पर अपनाकर आर्थिक संवृद्धि को हासिल किया जा सकता है।इन फसलों को भारत की जलवायु और मिट्टी में आसानी से उगाया जा सकता है, जिसकी मांग विदेशों में बढ़ रही है।प्रस्तुत लेख में इन फसलों के उत्पादन, उपयोग एवं आमदनी का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है-

आकोनीटुम हेटेरोफील्लुम (अतीस)
भारत में अतीस की जड़ों का आयुर्वेदिक तथा होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति में प्राचीनकाल से उपयोग होता रहा है।इसका पौधा 2 से 3 फुट ऊंचा होता है, जोहिमालय में कुमाऊं, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय में प्राकृतिक रूप में उगा हुआ देखा जा सकता है।भारत में अतीस तीन प्रकार की पाई जाती है-काली अतीस,सफेद अतीस और लाल अतीस। वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर सफेद अतीस की वृद्धि और उपज अच्छी होती है।अतीस के अंदर पाए जाने वाले उपयोगी रासायनिक समूहों में फ्लेवेनॉइड, फ्लेवेनॉल्स और ग्लाइकोसाइडहै।

अतीस में एंटीऑक्सिडेंट, एनाल्जेसिक,  एंटीप्रेट्रिकजैसे कई अन्य लाभकारी गुण होते है। अतीस की जड़ पाचन संबंधी रोग, बुखार, खाँसी आदि रोगों में विशेष रुप से उपयोगी है।इस पौधे को प्रसारित करने के लिए बीज, कंद खंडएवं पत्तीदार तना का प्रयोग किया जाता है।इसकी नर्सरी अक्टूबर से नवंबर में करना चाहिए।एक एकड़ खेत के लिए 60-70 ग्राम बीज अथवा 111000 कंदो की आवश्यकता पड़ती है।अतीस का पौधा तीन से चार साल तक अपनी वनस्पति वृद्धि करता है।एक एकड़ से 260 किग्रा. तक सूखे प्रकंद प्राप्त किए जा सकते है। अतीस की सुखी जड़ों एवं प्रकंदो की बिक्री से किसानों को एक एकड़ में 2,00,000/- से 2,50,000/- रुपये की आमदनी हो जाती हैं।

पाइपर लौंगम (पिपलामूल)
पिपलामूल एक औषधीय मसालाहै, जिसकी पत्तियां पान के पत्तों के आकार की होती है।इन पतियों की लम्बाई प्रायः 5 से 7 सेमी. होती है। आयुर्वेदिक और यूनानी चिकित्सा प्रणाली में सूखे फल तथा पौधे की जड़ काउपयोग किया जाता है। पिपलामूल के सूखें फलों में 4 से 5 प्रतिशत तक पाइपरीन तथा पिपलार्टिन नामक एल्केलाइड पाये जाते हैं। इसके फलों में खुशबूदार तेल होता है,जिसमे जीवाणुरोधी और कृमिनाशक गुण पाया जाता है।

पिपलामूल की जड़ों में पाइपरिन, पिपलार्टिन, पाइपरलौंगुमिनिन तथा पाइपर लौंगुमाइन रासायनिक घटकपाये जाते हैं।पिपलामूल में वायरस रोधी, एंटीऑक्सीडेंट,  एंटीफंगल, अवसादरोधी, एनाल्जेसिक जैसे कई अन्य लाभकारी गुण होते है। आयुर्वेदिक चिकित्सा में, इसका उपयोग आमतौर पर पुरानी ब्रोंकाइटिस, अस्थमा, कब्ज, दस्त, हैजा, श्वसन संक्रमण, पेट दर्द, खांसी और ट्यूमर के इलाज के लिए प्रयोग किया जाता है।इसकी खेती के लिए विस्तार, और वेल्लनिकारा-1 उन्नत किस्म विकसित की गई है।पिपलामूल को कटिंग के माध्यम से मार्च-अप्रैल में प्रचारित किया जाता है।कटिंग मई के अंत तक मुख्य क्षेत्र में रोपण के लिए तैयार हो जाती है।एक एकड़ क्षेत्र में लगभग 28,000 पौधें, मई-जून में 60×60 सेमी. चौड़ी क्यारियॉ में लगाया जाता है।इसकी लताओं को सहारा देने के लिये रतनजोन, अरंडी, अडास्ती, सेंजना, नारियल,सूखी झाडी अथवा अन्य फसल लगाई जाती है।पिपलामूल में रोपाई के 4 माह के बाद फूल आना प्रारंभ हो जाते हैं जो अक्टूबर-नवम्बर में परिपक्व हो जाते हैं।प्रथम तुड़ाई के बाद प्रतिवर्ष 35-40 दिनों के अंतराल में फलों की तुड़ाई करीबन 3 से 5 साल तक की जाती है। प्रथम वर्ष में सूखें स्पाईक्स् 150-180, द्वितीय वर्ष 220 -260, तृतीय वर्ष 400-450 किग्रा.प्रति एकड़ उपज प्राप्त होती है। रोपण के 18 माह बाद सूखी जड़ें लगभग 200 किग्रा.एक एकड़ से मिलती है।इस फसल से प्रथम वर्ष में लगभग 50,000/- से 60,000/- रूपये प्रति एकड़ का शुद्ध लाभ कमाया जा सकता है, जबकि आगामी वर्षों में लाभ की मात्रा लगभग प्रथम वर्ष की अपेक्षा अधिक हो जाती है।

एंडोग्रेफिस पैनिकुलाटा(किंग ऑफ बिटर)
किंग ऑफ बिटर को हिंदी और संस्कृत भाषा में कालमेघ एवं भूनिम्ब कहा जाता हैं।यह मूल रूप से भारत का बहुवर्षीय 30 से 60 सेमी. लंबाई का शाक जातीय पौधा है।इस पौधे के सभी भाग जैसे- पत्ती, पुष्पक्रम और तना का औषधि उपयोग किया जाता है।भूनिम्ब में मिलने वाले एंड्रोग्रैफोलॉईड को अनेक प्रकार के वायरस के विरुद्ध उपयोगी होने के प्रमाण विभिन्न स्तरों पर मिले हैं,जिस कारण इस रासायनिक घटक की मांग बढ़ रही है।इसकी पत्तियों में मिलने वाला कालमेघीन नामक क्षार में एन्टीवायरल, एन्टीबैक्टीरियल और एन्टीऑक्सीडेण्ट का गुंण पाया जाता है।

एंडोग्रेफिस पैनिकुलाटा (किंग ऑफ बिटर)

भूनिम्ब को पारंपरिक रूप से सर्दी-जुकाम, फ्लू, ऊपरी श्वसन-तंत्र के संक्रमण, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, जॉन्डिस व अन्य लीवर संबंधित विकारों के उपचार के लिये प्रयोग किया जाता है। सीएसआईआर-सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित उन्नत किस्म सिम-मेघा में 1.90 प्रतिशत एंड्रोग्रैफोलॉईड पाया जाता है जिस कारण यह किस्म किसानों के बीच काफी लोकप्रिय है।भूनिम्ब उचित जल निकास वाली दोमट से लेकर लेटेराईट मृदाओं में उगाया जा सकता है।इसकी खेती के लिए 15 से 3030 मई के मध्य 250 ग्राम बीज प्रति एकड़ की दर से नर्सरी माध्यम से की जाती है।जिसकी पौध 32 से 38 दिनों में रोपाई के लिए तैयार हो जाता है।भूनिम्ब90 से 110 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाता है।एक अच्छी प्रकार से उगाई गयी फसल 1.5 से 2 टन प्रति एकड़ तक सूखी शाक प्राप्त कीजा सकती है, जिसकी बिक्री से 40,000/- से 45,000/- रूपयेप्रति एकड़का शुद्ध लाभ कमाया जा सकता है।

पिकरोराइजा कुरोआ (कुटकी)
कुटकी हिमालय-पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाने वाला एक बहुवर्षीय शाकीय पौधा है।भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में यह हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड में गढ़वाल और दूसरे उत्तर-पश्चिम राज्यों में पाया जाता है।इसकी औसत ऊंचाई 16 से 17 सेमी. तक होती है जो कि भूस्तारी-प्रकंद से अंकुरित होकर फैलता है।औषधि के लिए इसके प्रकंद का उपयोग किया जाता है।

पिकरोराइजा कुरोआ (कुटकी)

कुटकी के पादप रसायन में कुटकिन और कुटकोसाइड नामक ग्लाइकोसाइड पाए जाते है जिनकी घरेलु मांग को पूरा करके निर्यात भी किया जा सकता है।इसके पौधे में एंटीऑक्सिडेंट, एंटी-इंफ्लेमेटरी और एंटी-एलर्जिक सक्रिय गुण मौजूद है।भारतीय पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में कुटकी यकृत और श्वसन संबंधी विकारों के इलाज के लिए बहुतायत से प्रयोग की जाती है।इसका उपयोग पुरानी बुखार, अपच के उपचार, दस्त और बिच्छू के डंक में भी किया जाता है।कुटकी की खेती के लिए रेतीली, बलुई-दोमट और हल्की अम्लीय मिटटी सर्वोतम मानी जाती है।कुटकी का प्रवर्धन बीज और कलम द्वारा किया जाता है।एक एकड़ क्षेत्र में रोपाई के लिए 30-35 ग्राम बीज पर्याप्त होते है।अथवा कलमों द्वारा 6-8 सेमी. लंबे भूस्तरी-प्रकंदो को मार्च-अप्रैल माह में नर्सरी किया जाता है।एक एकड़ से ढाई से तीन वर्षों में 255 किग्रा. तक सूखे प्रकंद प्राप्त किए जा सकते है।कुटकी के सूखे प्रकंदो की बिक्री से एक एकड़ में 1,50000/- से 2,00000/- रुपये की आय हो सकती हैं।

ऑसीमम सैक्टम(पवित्र तुलसी)
पवित्र तुलसी एक बारहमासी औषधीय और सुगंधित पौधा है, जिसके पौधे की ऊंचाई 30से 70 सेमी0 तक बढ़ती है।भारत में इसकी खेती सुगंधित तेल और इसकी सूखी पत्तियों के लिए की जाती है ।इस फसल के अंतर्गत दो प्रकर की किस्में उगाई जाती हैं पहली ग्रीन टाइप (पूजा तुलसी)- सिम-आयु एवं सिम-कंचन और दूसरी बैंगनी प्रकार (कृष्णा तुलसी)- सिम-अंगना तुलसी की अधिक उत्पादन देने वाली सीएसआईआर-सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित उन्नतशील प्रजातियाँ है।

ऑसीमम सैक्टम(पवित्र तुलसी)

इसका उपयोग सिर दर्द की समस्या, आँखों के दर्द खांसी-जुकाम, कफ, वात, बुखार, दमा, तनाव,दांत का दर्द, दांत में कीड़ा लगना, मसूड़ों में खून आना,पायरिया, दिल की बीमारियाँ में किया जाता है। आजकल इसके औषधीय गुणों को देखते हुयेइसकी पतियों से ‘तुलसी चाय” भीबनाई जा रहीहैं। इसकी खेती करने के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिटटी, गर्म और नम जलवायु उपयुक्त रहती है।एक एकड़ तुलसी लगाने के 120ग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है।पवित्र तुलसी की फसल 110 से 120 दिनों में कटाई के लिया तैयार हो जाती है।आमतौर पर तुलसी की 2-3 कटाई की जा सकती है। पहली फसल की कटाई तब की जाती है जब पोधों में फूल पूरे खिले दिखाई देने लगे और बाद की फसलों की कटाई 60-70 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए।इस फसल से एक एकड़ में 50, 000/- से 60, 000/- रूपये का शुद्ध लाभ कमाया जा सकता है।

टीनोस्पोरा कार्डीफोलिया(गुडुची)
गुडुची एक बहुवर्षिय औषधिलताहोती है, जिसके पत्ते पान की तरह बड़े आकार के हरे रंग के होते हैं।गुडुची पौधे का तना औषधि में पत्तियों की तुलना में अधिक गुणकारी हैं। गुडुची में रासायनिक घटक टिनोस्पोरोन, टिनोस्पोरिक एसिड, टिन स्पोराल, गिलोइन, गिलोइनिन, वर्बेराइन तथा कर्डिफोल आदि पाए जाते हैं। इसके तना एवं पत्तियों में विषाणुरोधी, जीवाणुरोधी, एंटी-डायबिटीजआदि लाभकारी गुण मौजूद है।

टीनोस्पोरा कार्डीफोलिया(गुडुची)

पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में गुडुची का तना सामान्य दुर्बलता, अपच, बुखार, डेंगू, पाचन शक्ति में, खांसी, सर्दी, चर्म रोग, कमजोरी, पेट के रोग मिटाने वाली, सीने में जकड़न, और मूत्राशय संबंधी विकारों में प्रयोग किया जाता हैं। भारत में गुडुची की फसल को नीम और आम के बाग में लगाना काफी प्रचलित है।गुडुची के नए पौधे तना कटिंग द्वारा तैयार किए जाते है।गुडुची प्रसारण के लिए पुरानी शाखाओं से ली गयी 5 से 8 इंच लंबी तथा पेन्सिल की मोटाई के बराबर वाली तना कलम को क्यारी में लगा देना चाहिए। मुख्य खेत में रोपण के लिए कटिंग 20 से 30 दिन में तैयार हो जाती है। एक एकड़ खेत में 3 मीटर की दुरी पर लगाने के लिए 1013 कटिंग की आवश्यकता पड़ती है। फसल की कटाई शरद ऋतु में जब तनों का व्यास 2.5 सेमी. से अधिक हो जाए, तो छोटे टुकड़ों में काटकर छाया में सुखाया जाना चाहिए। गुडुची की अच्छी फसल से औसतन 4 से 4.5 क्विंटल सूखे तने प्रति एकड़ की दर से प्राप्त हो जाते है, जिसकी बिक्री से एक एकड़ में 50,000/- से 60,000/- रूपये की आमदनी हो जाती है।

विथानिया सोमानिफेरा (इंडियन विंटर चेरी)
इंडियन विंटर चेरी को इंडियन जिनसेंग और अश्वगंधा भी कहा जाता है, जिसे आयुर्वेदिक और स्वदेशी चिकित्सा पद्धति में 3000 वर्षों उपयोग किया जा रहा है।इंडियन विंटर चेरी एक मध्यम लम्बाई 40 सेमी. से 150 सेमी. वाला बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधा है। इंडियन विंटर चेरी में अनेकों प्रकार के एल्केलाइड्स पाये जाते है, जिनमें विथानिन तथा सोमनीफेरेन मुख्य है। आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी और होम्योपैथी जैसी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों मेंजड़ और पत्ती का उपचार के लिए उपयोग किया जाता है।इंडियन विंटर चेरी में एंटीऑक्सिडेंट, एंटीवाइरल, एंटीपार्किन्सोनियन, जीवाणुरोधी जैसे कई लाभकारी गुण मौजूद है।

विथानिया सोमानिफेरा (इंडियन विंटर चेरी)

पारंपरिक चिकित्सा में इसकी जड़ का प्रयोग गठिया, नपुंसकता,भूलने की बीमारी, चिंता और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए किया जाता है।सीएसआईआर-सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित पोषिता किस्म अन्य प्रजातियों की अपेक्षा लगभग तीन गुना जड़ के उत्पादन की क्षमता रखती है।अभी हाल ही में इस संस्थान से सिम-पुष्टि,  निमितली-101 एवं निमितली-118 किस्में विकसित की गई है।इसकी खेती के लिए कई विधि प्रचलित है, लेकिन छिटकवां विधि सफल विधि मानी जाती है।इस विधि से बुवाई करने के लिए 6-8किग्रा.बीज प्रति एकड़ की दर से पर्याप्त होता है। इंडियन विंटर चेरी की फसल फरवरी से मार्च में 150 से 180 दिन के पश्चात खुदाई के लिए तैयार हो जाती है।संपूर्ण पौधे को उखाड़ा जाता हैऔर जड़ों को शीर्ष से 1-2 सेमी. छोड़कर काटकर अलग कर दिया जाता है।व्यवसायिक खेती के तहत एक एकड़ फसल से औसतन लगभग 300से 350 किग्रा. सूखी जड़ें और 15 से 20 किग्रा. बीज प्राप्त हो जाता है।एक एकड़ में इस फसल से किसान जड़ व बीज की बिक्री से 60,000/- से 80,000/- रुपये आसानी से कमा सकते हैं।

ग्‍लीसीर्रहीजा ग्लाब्र (यष्टिमधु)
आयुर्वेद में यष्टिमधु को मुलेठी भी कहते हैं। यष्टिमधु बहुवर्षीय झाड़ीनुमा जड़ी बूटी है, इसके पौधे की ऊंचाई एक से दो मीटर होती है।औषधीय उपयोग में इसकी जड़े या भूमिगत तने ही उपयोग में लाए जाते है। इसका मुख्य रसायनिक घटक ग्लाइसिराइजिक एसिड और ग्लोब्रिडिन है जिसका उपयोग भोजन और दवा उद्योगों में किया जाता है। इसकी मीठी जड़ों में विषाणु रोधी, जीवाणुरोधी, ऐंटिफंगल क्षमता पाई जाती है। यष्टिमधु खांसी, गले की खराश, श्‍वासनली की सूजन तथा मिरगी आदि के इलाज में उपयोगी है। इसकी खेती के लिए रेतीली-चिकनी मिट्टी उत्तम मानी जाती है।

ग्‍लीसीर्रहीजा ग्लाब्र (यष्टिमधु)

यष्टिमधु की हरियाणा मुलेठी न.-1 उन्नत किस्म है, जिसे सम्पूर्ण भारत में उगाया जाता है।यष्टिमधु को फरवरीसे मार्च तथा जुलाई से अगस्त में लगाया जा सकता है।इसकी जड़ों को खेत में लगाने के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 3 फीट व पौधे से पौधे की दूरी 1.5 फीट पर लगाने के लिए100 से 125 किग्रा. प्रति एकड़ जड़ की आवश्यकता पड़ती है।कटाई मुख्यत: सर्दियों के माह नवंबर से दिसंबर में की जाती है ताकि उच्च मात्रा में ग्लाइसिराइजिक एसिड प्राप्त किया जा सके। यष्टिमधु का पौधा रोपाई के लगभग ढाई से तीन साल के आसपास खुदाई के लिए तैयार हो जाता है।इसकी फसल से औसतन उत्पादन 30 से 35क्विंटल प्रति एकड़ सुखी जड़ प्राप्त की जा सकती है, जिसकी बिक्री से 2,00000/-  से  2,50000/-  रूपये प्रति एकड़ शुद्ध लाभ कमाया जा सकता है।

भारत में औषधीय पौधों के खेती दिनों-दिन लोकप्रिय हो रही है जिनसे ग्रामीण क्षेत्रों एवं लघु उद्योगोंमें रोजगार के नये साधन उपलब्ध हो रहे है और किसानों की आय में बढ़ोतरी हो रही है।सीएसआईआर-सीमैप औषधीय पौधों पर निरंतर शोध कार्य कर रहा है और औषधीय पौधों में पाए जाने वाले लाभकारी रासायनिक घटकों को जनाने का प्रयास हो रहा है।साथ ही वैज्ञानिक खोजों के आधार पर औषधि रसायन के चिकित्सकीय उत्पाद भी विकसित किये जा रहे है।हर्बल उत्पादोंकी बिक्री में वृद्धि से औषधीय फसलों के कच्चे माल, रासायनिक यौगिक के निष्कर्षण के लिए चिकित्सीय एजेंट और खाद्य उद्योगों के रूप में मांग अंतरराष्ट्रीय बाजार में रहने की पूर्ण संभावना है।ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आने वाले समय में औषधीय फसलों से प्राप्त होने वाले रासायनिक घटक एवं इसके उत्पादों अर्थात हर्बल उत्पादों का समय होगा।औषधीय फसलों के अधिक उत्पादन और घरेलु मांग को पूरा करने के पश्चात् इन फसलों के उत्पादों के निर्यात से देश में विदेशी मुद्रा का अर्जन भी किया जा सकता है।अपने देश के विभिन्न हिस्सों में कई महत्वपूर्ण औषधीय फसलें खेती की क्षमता रखती हैं, जिससे किसानों और उद्यमियों की आय के नए मार्ग खोले जा सकते है।पिछड़े इलाकों में आदिवासियों के लिए औषधीय फसलों की खेती और इन पौधों का संग्रह रोजगार का एक बेहतर जरिया बन सकता है, बल्कि उन्हें स्वावलम्बी भी बना सकता हैं।

सम्पर्क सूत्र: आशीष कुमार
सीएसआईआर – केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान (सीमैप) अनुसंधान केंद्र,
बोदुप्पल, हैदराबाद, तेलंगाना-50092
[ई-मेल: [email protected]]
[मो.: 8520949620]

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3 Comments

  1. मेडिकल पौधों को बारे म में बहुत अच्छी जानकरी दी है इंसुलिन के पौधे के बारे में भी कुछ बताइये धन्यवाद

    1. जी आपका बहुत धन्यवाद, इन्सुलिन के बारे में भी जल्द ही जानकारी देने का प्रयास करेंगे.

  2. आपके द्वारा औषधि पौधों के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी गई है कृपया एलोवेरा के बारे में भी कुछ बताएं इतनी अच्छी जानकारी देने के लिए धन्यवाद

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