संपादकीय

बेढंगा विकास मतलब सुव्यवस्थित विनाश, फिर भी ज़िन्दा है आस

पवन नागर, संपादक

ताज़ा खबर यह है कि गर्मी में जहाँ आधा देश पानी की समस्या से जूझ रहा था, वहीं अब देश के अधिकतर राज्य बाढ़ की समस्या से दो-दो हाथ कर रहे हैं। इसी बाढ़ में अभी तक ख़बरों के मुताबिक लगभग 250 लोगों की जान जा चुकी है और लापता लोगों की संख्या अभी ज्ञात नहीं है। बाढ़ में मरने वालों की संख्या में अभी इजाफा होगा। अभी तो सारे बाँधों का जल स्तर पूरा हुआ है और जैसे ही इन बाँधों के दरवाज़े खुलेंगे, वैसे ही बाढ़ से और नुकसान होने की संभावना बढ़ जाएगी। यह तो हुई मानवीय नुकसान की बात। साथ ही किसानों की फसल का नुकसान, जानवरों को नुकसान, सड़क, मकान, पुल-पुलिया आदि का नुकसान अलग है जिसकी वास्तविक गणना करना मुमकिन तो है परन्तु नामुमकिन जैसा ही है क्योंकि प्रशासन के पास ज़मीनी स्तर पर कार्य करने वाले कुशल कार्यबल की संख्या बहुत ही कम है। और बताने की ज़रूरत नहीं कि लगभग हर साल ही अधिकतर राज्यों में बाढ़ आती है और हर बार काफी नुकसान करके चली जाती है और साथ में चेतावनी भी दे जाती है कि फिर आऊँगी। फिर भी हम विकास की अंधी दौड़ में और पैसे कमाने की अंधी दौड़ में बारिश जाने के बाद भूल जाते हैं और अपनी दौड़ में फिर तेजी से दौडऩे लगते हैं। इसी दौड़ के चलते हम अगले ८ माह में पर्यावरण को इतना नुकसान पहुँचा देते हैं कि हमें इस बात का भान ही नहीं रहता कि हम पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा चुके हैं।

वैसे तो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने पर कड़े नियम और कानून बने हुए हैं, परन्तु बड़े-बड़े उद्योगपति घराने पैसों की दम पर समय-समय पर इन नियमों को धता बताते रहते हैं और मुआवजे और जुर्माना देकर मामले को रफा-दफा कर देते हैं। और इस क्रम को प्रकृति भी कायम रखती है और फिर साल भर में कोई न कोई प्राकृतिक आपदा में धरती पर नुकसान पहुँचाकर लालची इंसानों को पर्यावरण के विरुद्ध किए कार्य की सज़ा देकर वह भी न्याय कर अपनी जि़म्मेदारी निभा देती है, क्योंकि प्रकृति ‘जैसों को तैसा’ वाले नियम पर चलती है। और उसके नियम तोडऩे वालों के लिए कोई रियायत शब्द उसके शब्दकोश में ही नहीं है, यह बात हम सबको याद रखनी चाहिए।

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में बाढ़ पहली बार आई है। पिछले साल केरल में बाढ़ आई थी, पर उससे भी हमने कुछ नहीं सीखा। बिहार, असम, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, कर्नाटका, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश इत्यादि में तो लगभग हर साल ही बाढ़ आती है। अभी वर्तमान में केरल, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश बाढ़ की समस्या से जूझ रहे हैं। गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक 2016 में बाढ़ के कारण 1.09 करोड़ लोग प्रभावित हुए तथा 850 लोगों को जान गँवानी पड़ी, जिनमें 184 मध्य प्रदेश में, 99 उत्तराखंड में, 93 महाराष्ट्र में, 74 उत्तरप्रदेश में और 61 गुजरात में थे।

पिछले 15 साल के आंकड़े तो यही बयां करते हैं कि लगभग हर दूसरे-तीसरे साल किसी न किसी राज्य या शहर में भारी बारिश और बाढ़ के कारण त्रासदी नित्य नए रिकॉर्ड बना-बनाकर खुद ही अगले साल अपना ही रिकार्ड तोड़ देती है जिसका ताज़ा उदाहरण है भारत का सबसे विकसित शहर मुंबई। मुंबई वर्तमान समय में बारिश से परेशान है। अब आप ज़रा सोचिए कि जब भारत के सबसे अमीर और विकसित शहर में बारिश के पानी से निपटने की व्यवस्था नहीं है तो शेष भारत के गाँवों और शहरों की कल्पना करने की ज़रूरत ही नहीं, क्योंकि हर साल बाढ़ और उससे हुए नुकसान की खबर आप तक पहुँच ही जाती है और इस बाढ़ में हमारे ही लोग मरते हैं, बेघर होते हैं। फिर भी अब तक हम बाढ़ से बचने का पुख्ता इन्तेज़ाम नहीं कर पाए। यह एक बहुत ही बड़ा प्रश्न तो है ही, साथ में आधुनिकता को ठेंगा दिखाने की प्रकृति की अपनी कला है जिसे हम समझकर भी अनजान बने हुए हैं। यह तो हुई बात बाढ़ से हुए नुकसान की, अब बात आती है कि इसका समाधान क्या है? ऐसा नहीं है कि शासन-प्रशासन इसके प्रयास नहीं करते हैं। सरकार भरपूर प्रयास के साथ जागरूकता अभियान भी चलाती है और विभिन्न विभाग इस कार्य में लगे हुए हैं। फिर भी धरातल पर इसके पूरे परिणाम नज़र नहीं आते हैं और इसी का नतीजा है कि हम हर साल बाढ़ के कारण हज़ारों लोगों की जान से हाथ धो बैठते हैं और जि़म्मेदार मुआवजा देकर अपनी जि़म्मेदारी से छुटकारा पा लेते हैं। आपको बताते चलें कि मुआवजा समस्या का हल नहीं है। पैसा कुछ दिन तो आपके निकाल देगा परन्तु मुआवजे के पैसे से जीवन-यापन नहीं होगा और न ही जाने वाला वापस आएगा। यह बात जि़म्मेदारों को समझनी होगी और समस्या के स्थायी हल के लिए पूरी ईमानदारी और सही नियत से काम करना होगा, जिसमें हम सब की भलाई होगी। जिससे हमारे देश की तरक्की में रुकावट नहीं आएगी अपितु निरंतरता बनी रहेगी।

भारत में बाढ़ और पानी की कमी; दोनों समस्याओं को हल करने में तालाब महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इन समस्याओं से शहर के लोगों के साथ-साथ गाँव के लोग भी प्रभावित होते हैं परन्तु इसकी सबसे बड़ी कीमत तो किसानों को ही चुकानी पड़ती है, क्योंकि उनकी आजीविका पानी पर ही तो टिकी है और बाढ़ के पानी के कारण उनकी आजीविका को भी नुकसान होता है।

पानी की समस्या को हल करने का सबसे आसान तरीका यही है कि हमें हमारे पुराने परंपरागत तरीकों को अपनाना होगा। यानी कि फिर से खेतों में कुँए और तालाब बनाने होंगे। जब भी बाढ़ आती है तो मैदानी इलाकों और खेतों में पानी एकत्रित होता है और फिर उसके बाद बाढ़ का पानी रुख करता है गाँव की ओर। यदि हर खेत में तालाब होंगे तो बाढ़ का पानी या ज़्यादा बारिश का पानी पहले इन तालाबों में संग्रहीत होगा। हम तालाबों को 50 फीट गहरा भी बना सकते हंै। जितना गहरा तालाब होगा उतना ही ज़्यादा पानी संचित होगा और यह पानी रवि की फसल में भी काम आएगा और भूजल स्तर भी बढ़ाएगा। यदि सरकार चाहे तो किसानों को साथ लेकर इस बात के लिए तैयार कर सकती है कि जिसके पास जितनी ज़मीन है उसके 1/10 भाग में तालाब बनाना है (वैसे भी तालाब बनाने की योजना सरकार चला ही रही है)। यदि किसी के पास 5 एकड़ ज़मीन है तो उसे सिर्फ 0.5 एकड़ में तालाब ऐसी जगह बनाना है जिस तरफ खेत का ढाल हो या जहाँ पानी एकत्रित हो सकता हो। इस प्रकार तालाब में बारिश और बाढ़ के पानी को संचित करके बाढ़ और पानी की कमी के कारण हो रही बहुत सारी समस्याओं से निजात पा सकते हैं।

क्यों ज़रूरी है तालाब बनाना?
दरअसल होता यह है कि जब ज़्यादा बारिश होती है और ऊपर से बाँधों के दरवाज़े भी खुल जाते हैं तब यह समस्या आती है कि अब इतना पानी जाए तो जाए कहाँ? ऊपर से हमने जंगलों को मिटाकर कंक्रीट के नए जंगल बना दिए हैं जिसमें पानी के ज़मीन में जाने के सारे रास्ते बंद हैं। शहरों में अब ज़मीन बची ही नहीं और पानी बहकर निकलकर मैदानी इलाकों में एकत्रित होता है और इसी प्रक्रिया में जितना भूजल स्तर बढऩा होता है उतना ही बढ़ता है, बाकी पानी बर्बाद हो जाता है। इसका जीता-जागता उदाहरण चेन्नई शहर है जिसमें भूजल 2000 फीट की गहराई पर भी उपलब्ध नहीं है। यदि हमें इससे सीख लेना है और भविष्य के खतरों से बचना है तो सरकार को तुरंत सीमेंट की सड़कों पर पाबन्दी लगानी होगी और फुटपाथों को भी कच्चा ही बनाना शुरू करना होगा। और हर नागरिक को सचेत करना होगा कि अपने पानी की व्यवस्था खुद को करनी होगी। भूजल स्तर को बनाए रखना हो, तो इसलिए भी लिए ज़रूरी हो जाता है तालाब बनाना।

सुझाव से फायदे:
हमारा सुझाव यही है कि यदि इन्हीं मैदानी इलाकों और हर खेत में तालाब बना दिए जाएँ तो पहले फायदे के तौर पर बाढ़ की समस्या से तो निजात मिलेगी ही, साथ ही दूसरे फायदे के रूप में किसानों को रवि सीजन में फसल के लिए पानी मुफ्त में मिलेगा। तीसरा फायदा यह होगा कि भूजल के गिरते स्तर की समस्या से भी बेफिक्र हो पाएँगे। चौथा फायदा सरकार को यह होगा कि किसानों की बिजली पर निर्भरता कम होगी। पाँचवे फायदे के तौर पर गर्मी के मौसम में पानी के हाहाकार से मुक्ति मिलेगी।

छह प्रकार के क्षेत्रों में पहले पायलेट प्रोजेक्ट
सरकार चाहे तो पायलेट प्रोजेक्ट के तौर पर पहले प्रयोग के रूप में किसी भी अधिक बाढ़ प्रभावित जिले में यह प्रयोग कर सकती है। दूसरा प्रयोग अधिक सूखे से प्रभावित क्षेत्र में करना है। तीसरा प्रयोग अधिक से अधिक भूजल का दोहन करने वाले क्षेत्र में करना है जहाँ ट्यूबवेल से अधिक सिंचाई होती है। चौथा प्रयोग वहाँ करना है जहाँ नहर से सिंचाई होती है, क्योंकि यहीं पर सबसे ज़्यादा पानी बर्बाद होता है क्योंकि यहीं पर बाँधों से अतिरिक्त पानी आता है। पाँचवा प्रयोग उस क्षेत्र में करना है जहाँ के किसान नदी से सिंचाई पर निर्भर हैं। छठवा और अंतिम प्रयोग उस क्षेत्र में करना है जहाँ धान की खेती की जाती है क्योंकि इस क्षेत्र में पहले से छोटे-छोटे गटे (छोटे-छोटे खेत) बनाकर पानी रोका जाता है और अधिक पानी गिरने पर यहाँ से पानी को किसानों द्वारा निकाला जाता है जो कि पूरा बर्बाद हो जाता है। इस क्षेत्र में पहले से पानी भरा होने के कारण पानी ज़मीन में बैठता नहीं और इसीलिए भूजल स्तर नीचे जा रहा है।

इस प्रकार एक साल में ही हमारे पास छह प्रकार के क्षेत्रों के उदाहरण होंगे और उनके नतीजे आगे की योजना बनाने में सहायक होंगे। ज़रूरत बस इतनी सी है कि इस काम में पूरी ईमानदारी, पारदर्शिता और दृढ़ निश्चय हो।

योजना का क्रियान्वयन कैसे हो।
सबसे पहले तो योजना के नियम आसान हों। पहला नियम यह हो कि वह व्यक्ति ज़मीन का मालिक हो और दूसरा यह कि वह तालाब बनवाना चाहता हो। इसके आलावा और कोई जटिल नियम नहीं होने चाहिए जैसे कि बाकी योजनाओं में होते हैं।

यह योजना पूरी तरह से डिजिटल होनी चाहिए। चूँकि अब डिजिटल इंडिया का ज़माना है, इसलिए इस योजना के लिए एक विशेष वेबसाइट बनाई जाए और उसमें ‘लॉग इन’ की सुविधा हर किसान को दी जाए। हर किसान की एक अलग आईडी बनाई जाए। इसी आईडी में योजना के क्रियान्वयन से संबंधित सभी जानकारी अपडेट होती रहेगी। इसमें सरकार की लैंड रिकॉर्ड की वेबसाइट काफी मदद कर सकती है। जो भी कार्य तालाब बनाने में किए जा रहे हैं उनकी वीडियो रिकॉर्डिंग हो और तुरंत whatsup रूप में साझा हो तथा ये वीडियो वेबसाइट पर बनी किसान की आईडी पर भी भेजे जाएँ। यह काम आप किसान से ही करा सकते हैं क्योंकि आज सभी के पास स्मार्ट फोन है, बस ज़रूरत है तो इन आधुनिक उपकरणों का सदुपयोग करने की। यानी कि इस योजना में कागज का इस्तेमाल बिलकुल भी नहीं होना चाहिए, नहीं तो यह योजना भी बाकी योजनाओं की तरह कागजी ही साबित होगी।

तालाब से पानी के मामले में आत्मनिर्भरता का सबसे अच्छा उदाहरण मध्यप्रदेश के देवास जिले में टोंकखुर्द तहसील है जहाँ बलराम तालाब योजना के अंतर्गत सबसे ज़्यादा तालाब बने हैं और जिसके चलते यहाँ के किसान व रहवासी अब पानी की समस्या पर विजय प्राप्त कर चुके हैं।

हर साल बाढ़ में असीमित पानी बर्बाद हो जाता है और फिर हम गर्मी के दिनों में इसी पानी के लिए तरसते हैं। समस्या का समाधान इसी बर्बाद हो रहे पानी में छुपा हुआ है। इसी पानी का हम सब को मिलकर सही प्रबंधन करना है। यह देश की सबसे बड़ी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग योजना साबित हो सकती है।

अब हमारे पास दो ही रास्ते हैं। पहला यह कि हम इसी प्रकार बेढंगा विकास करते रहें, यानि की उपजाऊ ज़मीन को मकान निर्माता कंपनियों और उद्योग घरानों को औने-पौने दामों पर किसानों से दिला दें जो इस ज़मीन पर कॉलोनी बनाएँ, पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले उद्योग लगाएँ, जंगलों और पहाड़ों को काटकर इनके बीच में से चौड़े-चौड़े एक्सप्रेस-वे बनाएँ या पहाड़ों को मिटाकर बड़े-बड़े बाँध बनाएँ जो हमारे और हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए विनाशकारी सिद्ध हों।

या फिर दूसरा रास्ता यह है कि हमें प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलकर उसके नियमों के हिसाब से विकास के मापदंड तय करने होंगे और उनके लिए कड़े नियम बनाने होंगे और यह सुनिश्चित करना होगा कि इन नियमों में किसी भी व्यक्ति को छूट नहीं दी जाएगी, फिर चाहे वह कितने ही बड़े पद पर बैठा हो। प्रकृति के साथ चलने में सारे विश्व की भलाई है। यही जि़ंदा रहने की एक मात्र आस है। हम सबको इन दोनों रास्तों में से एक रास्ता तय करना है।

पढि़ए, सोचिए और इस पर अमल भी कीजिए क्योंकि जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए ज्ञान को व्यवहार में उतारना आवश्यक होता है। सभी से निवेदन है कि प्रकृति की व्यवस्था के साथ कदम से कदम मिलाकर चलेंगे तो कभी कोई परेशानी नहीं आएगी। एक नई उमंग के साथ आगामी 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाइए और यदि पैसे की भागमभाग से समय निकाल सकें तो पर्यावरण को बचाने के लिए कुछ पेड़ लगाकर स्वतंत्रता दिवस को सार्थक बनाएँ ताकि हमारे साथ-साथ प्रकृति का भी विकास हो सके! नागरिक भी मिलकर अपनी जि़म्मेदारी पर इस प्रकार ‘आज़ादी भी और हरियाली भी’ अभियान चला सकते हैं। कृषि परिवर्तन टीम की ओर से सभी देशवासियों को ईद, स्वतंत्रता दिवस और रक्षा बंधन के साथ ‘आज़ादी भी और हरियाली भी’ की ढेर सारी शुभकामनाएँ। जय हिन्द, जय भारत।

पवन नागर, संपादक

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