खेती-बाड़ी

खुशहाली के लिए गेंदे की खेती

प्रस्तुति: डॉ. मोनिका जैन; डॉ. एस.आर.मालू; डॉ. शिप्रा पालीवाल; एवं रमेश पारीक
पेसिफिक कृषि महाविद्यालय, पेसिफिक यूनिवर्सिटी, उदयपुर

फूल हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं, जिनकी माँग वर्षभर बाज़ार में बनी रहती है। हर त्यौहार या उत्सव में इनका उपयोग अधिक से अधिक होता है। फूलों का घर की सजावट, देवी-देवताओं को अर्पित करने, शादी में मण्डप, पंडालों तथा स्टेज की सजावट में और पुष्पगुच्छ बनाकर अतिथियों के स्वागत के अलावा विभिन्न उत्पादों को बनाने के लिए भी किया जाता है। कई तरह के फूलों का निर्यात भी किया जाता है। भारत में जलवायु विविधता होने से अनेक प्रकार के फूलों की खेती की जाती है। इनमें प्रमुख हैं गुलाब, गुलदाउदी, कारनेशन, रजनीगंधा, गेंदा, गेलार्डिया आदि। पूर्व में फूलों की कास्त सिमित थी परन्तु अब व्यवसायिक उद्देश्य के लिए उत्पादन कर अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

इन सभी फसलों में गेंदे का महत्वपूर्ण स्थान है। हर जगह इस्तेमाल होने के कारण इन्हें व्यावसायिक नकदी फसल के रूप में गिना जाने लगा है। गेंदे की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह गर्मी, बरसात एवं सर्दी तीनों ही मौसमों में सुलभता से उगाया जा सकता है जिससे इसकी हमेशा उप्लब्धता रहती है। इसकी विशेषता यह है कि जिन महीनों में अन्य कोई फूल नहीं मिलते हैं उन दिनों में भी गेंदा आसानी से उप्लब्ध रहता है। अत: किसान भाई इस फसल से दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक आय अर्जित कर सकते हैं। गेंदे की उन्नत खेती से भूमि में रह रहे सूत्री कृमी, रोग एवं कीटों का नियंत्रण भी हो जाता है जिससे आगे लगने वाली फसल को लाभ मिलता है।

प्रमुख प्रजातियाँ: गेंदा एस्टेरेसी कुल की फसल है। इसकी निम्नलिखित किस्मों की खेती कर लाभ उठाया जा सकता है।
अफ्रीकन गेंदा (टेजेटिस इरेक्टा): इसकी लंबाई 90 सेमी. या अधिक होती है। पौधा सीधा एवं शाखाओं वाला होता है। फूल बड़े आकार वाले होते हैं जिनका रंग नारंगी, पीला (चमकीला या स्वर्ण) या सफेद होता है। पूसा नारंगी गेंदा, पूसा बसंती गेंदा, पूसा बहार, अफ्रीकन जायंट येलो तथा अफ्रीकन जायंट ऑरेंज आदि इसकी प्रमुख किस्में हैं।

फ्रेंच गेंदा (टेजेटीस पेटुला): इसके पौधे छोटे (30- 40 सेमी) एवं सघन होते हैं। जिन पर पीले, नारंगी, चित्तीदार या मिश्रित रंग के 3-4 सेमी आकार के फूल लगते हैं। पूसा अर्पिता, पूसा दीप, हिसार जाफरी -2, रस्टी रेड, पिटाईट ऑरेंज, पिटाईट येलो तथा लेमन ड्राफ आदि इसकी प्रमुख किस्में हैं।
गेंदे की एक अन्य किस्म: टैजिटस माइन्यूटा भी है जिसे तेल निष्कर्षण के लिए उगाया जाता है।
गेंदे में बुवाई के 125 -136 दिनों बाद पुष्प आने प्रारंभ हो जाते है।

जलवायु एवं भूमि:
गेंदे की खेती के लिए बलूई दोमट भूमि जिसका पी.एच. मान 5.6 से 7.5 के बीच हो तथा जिसमें वायु संचार एवं जल निकास का उचित प्रबंध हो, उपयुक्त रहती है। क्षारीय एवं अम्लीय भूमि इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। ज़्यादा या कम तापमान होने पर पौधे की बढ़वार रुक जाती है तथा फूल का आकार छोटा होने लगता है। इनकी खेती के लिये 15 -29 डिग्री सेल्सियस तापमान गेंदे के फूलों की संख्या एवं गुणवत्ता के लिए उत्तम है।
भूमि की तैयारी:

भूमि को 2-3 बार गहरी जुताई करके उसमें सड़ी हुई गोबर की खाद 300 क्विन्टल प्रति हैक्टेयर के हिसाब से अच्छी तरह मिला देना चाहिए।

प्रवर्धन:
गेंदे का प्रवर्धन बीज एवं कलम द्वारा किया जाता है। पर बीज से तैयार किए पौधे ज़्यादा अच्छे एवं अधिक उपज देने वाले होते हैं। अत: इनकी व्यावसायिक खेती के लिये सामान्यत: बीज द्वारा ही पौधे तैयार किए जाते हैं।

पौधे तैयार करना: गेंदे की नर्सरी तैयार करने के लिए भूमि को अच्छी तरह से 30 सेमी गहरा खोद लेना चाहिए तथा सड़ी गोबर की खाद या पत्ती की खाद को मिलाकर मिट्टी को भुरभुरी बना लेना चाहिए। इसके बाद उसमें नर्सरी क्यारियाँ 15 सेमी. ऊँची ,1 मी. चौड़ी तथा 3-4 मी. लंबी नर्सरी क्यारियाँ बनाते हैं। एक हैक्टेयर के लिये 300 -450 ग्राम बीज की मात्रा पर्याप्त है। बीज बोने से पूर्व नर्सरी में 0.3 प्रतिशत की दर से कैप्टान का भुरकाव करना चाहिए। तैयार क्यारियों में बीज को 6-8 सेमी. की दूरी पर 2 सेमी. गहराई तक बोना चाहिए। इसके बाद बीजों को हल्की मिट्टी एवं पत्ती या गोबर की छानी हुई खाद के हल्के मिश्रण से ढँक कर आवश्यकतानुसार रोज पानी देना चाहिए।

गेंदे को वर्ष में तीन बार लगाया जा सकता है। सामान्यत: गेंदे की पौध तैयार करने एवं रोपण का समय निम्न अनुसार है:
मौसम: सर्दी
बुआई का समय: सितंबर-अक्टूबर
पौध रोपण का समय: अक्टूबर-नवंबर

मौसम: गर्मी
बुआई का समय: जनवरी-फरवरी फरवरी-मार्च
पौध रोपण का समय: वर्षा जून-जुलाई जुलाई-अगस्त

पौध की रोपाई: पौध की रोपाई आमतौर पर तैयार क्यारियों में बीज बोने के 25-30 दिन बाद जब पौधे में 3-4 पत्तियाँ आने लगे तब करनी चाहिए। अगर पौध समय पर खेत में न लगाई जाए तो पैदावार कम आती है। पौधों की रोपाई शाम के समय करनी चाहिए। अफ्रीकन गेंदे के पौधों की रोपाई 40 x 40 सेमी. जबकि फेंच गेंदे की रोपाई 20×20 सेमी. की दूरी पर करनी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक:

खेत की तैयारी के समय मिलाई गई सड़ी हुई गोबर की खाद के अलावा उत्तम पैदावार के लिए 120 किलो नाइट्रोजन, 80 किलो फॉस्फोरस तथा 80 किलो पोटाश प्रति हैक्टेयर देनी चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूर्ण मात्रा भूमि तैयार करते समय एवं शेष बची नाइट्रोजन की आधी मात्रा का आधा भाग पौधों को क्यारियों में लगाने के एक महीने बाद तथा दूसरा भाग 55-65 दिन बाद छिड़काव विधि से देना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण:
खेत में पौधों की रोपाई के बाद खरपतवार उगने की समस्या बढ़ती है। यह खरपतवार पौधों के साथ पोषक तत्व, स्थान, नमी आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करती है और कीटों व बीमारियों को आश्रय देती है। अत: इसे सही समय पर निकाला जाना चाहिए। इसके लिए पहली निराई-गुड़ाई पौध रोपण के 25-30 दिन बाद एवं दूसरी इसके लगभग एक महीने बाद करनी चाहिए।

सिंचाई:
गेंदा शाकीय पौधा है जिसके बढऩे एवं फूलने के लिए ज़मीन में उचित नमी आवश्यक है। प्रथम सिंचाई पौध रोपण के तुरन्त बाद तथा उसके बाद गर्मी में 4-6 दिन जबकि सर्दी में 7-10 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए।

पिंचिंग:
पौधों के ऊपरी भाग को तोडऩा पिंचिंग कहलाता है। यह पौधों में अग्रस्थ प्रभाव को कम करने के लिए किया जाता है। इससे पौधों में अधिक शाखाएँ निकलती हैं और फूलों की पैदावार बढ़ जाती है। यह क्रिया सामान्यत: रोपाई के 35-40 दिन बाद करनी चाहिए। फ्रेंच गेंदे में पिंचिंग नहीं की जाती है।

फूलों की तुड़ाई:
ग्रीष्मकालीन फसल में मई के मध्य से, वर्षाकालीन में सितम्बर मध्य जबकि शीतकालीन फसल में मध्य जनवरी से फूल आना शुरू हो जाते है। इनकी तुड़ाई सुबह-सुबह करनी चाहिए। फूलों को तोडऩे के बाद उन्हें बांस की टोकरियों में भरकर नम कपड़े से ढँ़ककर इक_ा करना चाहिए एवं शीघ्र ही बाज़ार में भेज देना चाहिए।

फूलों की उपज:
गेंदे के फूलों की पैदावार कृषि क्रियाओं पर निर्भर करती है। अफ्रीकन गेंदे के ताज़े फूलों की उपज 200-300 क्विंटल जबकि फ्रेंच गेंदें की उपज 180-200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है।

रोग एवं प्रमुख कीट:
रोग:-आद्रगलन
कारक:- राइजोक्टोनिया सोलेनाइ
लक्षण:– रोगग्रसित पौधे का तना गलना एवं जड़ तंत्र का सडऩा
रोकथाम:- बीजो को बुवाई पूर्व 3 ग्राम कैप्टान या कार्बेनड़ाजीम उपचारित करें।

रोग:-पाउडरी मिल्ड्यू
कारक:- ओडियम स्पीशीज
लक्षण:– पत्ती पर सफेद चूर्ण जैसे चकते दिखाई देना
रोकथाम:- सल्फेक्स या कैराथेन का छिड़काव करें।

रोग:-पुष्प कली सडऩ रोग
कारक:- अल्टरनेरीया डाएन्थी
लक्षण:– फूलों की पंखुडी पर काले धब्बे
रोकथाम:- रिडोमिल या डाइथेन एम-45, 2 ग्राम/ लीटर का घोल बनाकर छिड़काव करें ।

कीट: रेड स्पाइडर माईट
रोकथाम: मेटासिसटोक्स या रोगोर 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर बनाकर छिड़काव करें।

रोकथाम: कली छेदक कीट
रोकथाम: मैलाथियान या प्रोफेनोफोस 1.5-2 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकरबनाकर छिड़काव करें।

कीट: मोयला
रोकथाम: रोगोर 30 ई .सी. या मेटासिसटोक्स 25 ई .सी. को 200-300 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।

नोट: जैविक खेती करने वाले किसान जैविक या देशी कीटनाशकों का प्रयोग करें।

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One Comment

  1. आप बहुत ही अच्छी ब्लॉग लिखते हैं कृपया एलोवेरा की खेती के बारे में बताएं

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