साक्षात्कार

भारतीय कृषि पत्रकारिता के पितामह हैं डॉ मधुप

प्रस्तुति: मोईनुद्दीन चिश्ती
बचपन से सुनते आए हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है। हम इस बात से इंकार भी नहीं कर सकते कि इसी कृषि प्रधान और सोने की चिडिय़ा कहलाने वाले मुल्$क में खेती करने वाले अन्नदाता किसानों की स्थिति सदा से ही सुर्खियों में रही है। किसान सदा से ही पीड़ा भोगता आया है, कोई भी नहीं था जो इन तकलीफों से उसे निजात दिलवाता, लेकिन अंधेरी रात कितनी ही लंबी क्यों न हो, ढलती ज़रूर है। राजस्थान के जोधपुर में 2 मार्च 1947 को जन्मे डॉ. महेंद्र मधुप ने किसानों की सूरत-ए-हाल को बदलने की ठानी। वे काफी हद तक अपने इस उद्देश्य में कामयाब भी हुए हैं। उनसे जुड़े कई किसान आज ज़ीरो से हीरो हो गए हैं, करोड़ों रुपयों का कारोबार करते हैं, साथ ही खुद की ऊर्जा से भावी किसानों को भी जीवन जीने और खेती से जुड़े रहकर नवाचार करने के लिए प्रेरित करते हैं।
बीते दिनों देश की कृषि पत्रकारिता के पितामह कहलाने वाले वरिष्ठ कृषि पत्रकार और ‘मिशन फार्मर साइंटिस्ट’ के प्रणेता डॉ. महेंद्र मधुप से जयपुर स्थित उनके आवास पर कृषि परिवर्तन’ के लिए लंबी वार्ता हुई, जिसके प्रमुख अंश यहाँ प्रस्तुत हैं-

पिता और चाचा ने किया लिखने को प्रेरित…
बातचीत की शुरुआत में डॉ. मधुप ने कहा, ”पिता ज्ञानमल जी सरकारी नौकरी में थे। जब राजस्थान बना तो वे जयपुर आ गए। यहाँ राजस्थान विधानसभा की सेवा में चीफ एडीटर और समिति अधिकारी रहे। पिताजी की लेखन में गहरी रुचि रही, उन्होंने खूब लिखा और 2 पुस्तकें भी छपीं। चाचा प्रकाश जैन अजमेर से ‘लहर’ नामक मासिक पत्रिका निकालते थे, जिसके कारण अजमेर को पूरे देश में पहचाना जाता था। इन दोनों के लिखने-पढऩे के शौक के चलते ही मेरी भी लेखन में रुचि जाग्रत हुई।

”12 साल की उम्र में स्कूल में गुरुजी कृष्ण कुमार सौरभ भारती से संबद्ध ‘दैनिक अधिकार’ में लिखना शुरू किया। ‘राष्ट्रदूत’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘लोकवाणी’ आदि में भी निरंतर लिखा। आकाशवाणी में पहली सजीव वार्ता बच्चों की कहानी के रूप में 1959 में ‘मुकुल’ में प्रसारित हुई। मानदेय स्वरूप 5 रुपये मिले। उन 5 रुपयों की खुशी आज के लाखों रुपयों से बढ़कर है।

”12वीं के बाद कला संकाय में प्रवेश लिया। विश्वविद्यालय महाराजा कॉलेज की पत्रिका का छात्र संपादक रहा। फिर विश्वविद्यालय राजस्थान कॉलेज की पत्रिका का हिंदी में एमए के दौरान भी छात्र संपादक रहा। संभवत: विश्वविद्यालयी जीवन में इकलौता छात्र रहा जो 2 विश्वविद्यालय-कॉलेजों और एक विश्वविद्यालय विभाग का 3 साल तक लगातार संपादक रहा। 1968 के करीब ‘नीरा’ पत्रिका की संपादन टीम में रहा। राजस्थान राज्य कृषि विपणन बोर्ड से 6 जुलाई, 1976 को जुड़ा और ‘नियमित मंडी’ का संपादन किया। इसी दौरान देशभर के कृषि चिंतकों, लेखकों, पत्रकारों की टीम बनाने की सोची।”

दूरदर्शन से जुडऩा हुआ…

”उन दिनों 1980 के आसपास राजस्थान में दूरदर्शन केंद्र नहीं था। बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान के लिए कार्यक्रम मंडी हाउस, दिल्ली में रिकॉर्ड होते और बाद में रोटेशन से प्रसारित होते थे। दूरदर्शन से 1982 में जुडऩा हुआ और एंकरिंग शुरू की। 6 जुलाई, 1987 को राजस्थान में दूरदर्शन आया और अकाल पर बने पहले ‘चौपाल’ कार्यक्रम की एंकरिंग करने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ। दूरदर्शन, टीवी चैनलों और आकाशवाणी के करीब 2500 से अधिक कार्यक्रमों का मैं एंकर रहा।”

किसानों की सफलता की कहानियों का दौर…
”2005 में महाराष्ट्र के ख्यातिप्राप्त कृषि विपणन विशेषज्ञ डॉ. बी.डी. पवार जयपुर आए। ‘शरद कृषि’ नामक प्रयोगधर्र्मी कृषि पत्रिका की अवधारणा पुणे में हुई। ‘सेंटर फॉर इंटरनेशनल ट्रेड इन एग्रीकल्चर एंड एग्रो बेस्ड इंडस्ट्रीज’ (‘सिटा’) ने राज्य सरकार को एक पत्र लिखकर जयपुर में मुझे इसके हिंदी संस्करण का मानद संपादक बनाने की इजाज़त चाही, जो मिली। मार्च 2005 से हिंदी संस्करण का मानद संपादक बना, जो मई तक जारी रहा। जून से जनवरी 2017 तक हिंदी संस्करण का संपादक रहा।

”इस पत्रिका ने भू-मण्डलीकृत कृषि व्यवस्था और दूसरी हरित-क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। देश में बदलती कृषि प्रबंधन व्यवस्था की नवीनतम जानकारी और संभावनाओं के आकलन लिए इसका बेसब्री से इंतज़ार किया जाता था।

” ‘शरद कृषि’ में ‘खेतों के वैज्ञानिक’, ‘खेतों के वैज्ञानिकों ने कर दिखाया कमाल’, ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ जैसे कॉलमों में किसान वैज्ञानिकों की सफलताओं पर लिखी कहानियों की लंबी सीरीज़ छपी। तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को जब इस सीरीज़ की पहली पत्रिका भेंट की गई तो सुझाव आया कि किसानों के पते, ईमेल, मोबाइल नंबर आदि भी छापें, ताकि उनकी पहचान देशभर में कायम हो। उन दिनों दैनिक भास्कर समूह की राष्ट्रीय पत्रिका ‘अहा! जि़ंदगी’ के संपादक रहे यशवंत व्यास ने ‘खेतों के वैज्ञानिक’ स्तंभ शुरू किया और 30-35 किसानों के साक्षात्कार छापे। इस तरह लोगों की जि़ंदगियाँ बदलनी शुरू हुईं।”

मिशन फार्मर साइंटिस्ट की शुरुआत…
” ‘सिटा’ से हम पति-पत्नी को 1,10,000 रुपये मानदेय मिलता था, लेकिन मन में किसान वैज्ञानिकों के लिए कुछ कर गुज़रने की चाह थी। जनवरी 2017 में ‘शरद कृषि’ का आखिरी अंक निकालकर नौकरी छोड़ दी। बेटे अपूर्व और पुत्रवधु आकांक्षा ने आज्ञाकारी बच्चों का दायित्व निभाते हुए हर महीने मुझे 1 लाख रुपये देने की बात कही और कहा कि किसानों के लिए जितना करना चाहते हैं, करें! लंदन में रह रही बिटिया आस्था और दामाद विश्वकांत भी मेरी इस यात्रा में सहभागी हो गए। इस तरह मैंने ‘मिशन फार्मर साइंटिस्ट’ के ज़रिए नई पारी खेलने की तैयारी की। हरियाणा में किसान वैज्ञानिक ईश्वर सिंह कुंडू के घर पर साथी युवा कृषि पत्रकार मोईनुद्दीन चिश्ती के साथ मिलकर रूपरेखा तैयार की। सोचा कि किताबों के माध्यम से पूरी दुनिया को इन किसान वैज्ञानिकों के कार्यों से अवगत करवाया जाए।”

किसान वैज्ञानिकों के कारनामों पर 3 किताबें…
”नवाचारी किसानों की कहानियों पर लिखी पुस्तकें ‘खेतों के वैज्ञानिक’ (मार्च 2017), ‘वैज्ञानिक किसान’ (जुलाई 2017) और ‘प्रयोगधर्मी किसान’ (फरवरी 2018) को मित्र यशवंत व्यास ने अंतरा इन्फोमीडिया पब्लिकेशन के तहत प्रकाशित किया। इससे पहले दुनिया की किसी भी भाषा में किसान वैज्ञानिकों के जीवन, संघर्ष और शोध पर एक भी पुस्तक नहीं थी।

”किसान वैज्ञानिकों के साथ निभाए उम्र भर के स्नेह का ही परिणाम था कि लगभग 80 प्रतिशत पुस्तकें लोकार्पण वाले दिन ही किसान वैज्ञानिकों ने खरीद लीं और अपने मिलने-जुलने वालों को तोहफे में देने का सिलसिला शुरू किया।

” ‘खेतों के वैज्ञानिक’ की प्रति ‘अहा! जि़ंदगी’ के कार्यालय में देने गया तो फिर इन किसानों की कहानियों को कॉलम के रूप में छापे जाने की बात हुई। मई 2017 से ‘खेतों के वैज्ञानिकÓ कॉलम दुबारा शुरू हुआ।”

मिनख देह के लिए किया यह सब…
डॉ. मधुप बताते हैं, ”मनुष्य जीवन बड़ी मुश्किल से मिलता है। माँ को इस बरस जुलाई में देह त्यागे 4 बरस हो जाएँगे। 99 वर्ष की उम्र में उन्होंने कहा था- ‘मैं और जीना चाहती हूँ क्योंकि मनुष्य देह बड़ी मुश्किल से मिलती है। क्या पता अगले जन्म यह देह मिले, न मिले!’ इसलिए हमेशा अच्छा करो, ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को फायदा पहुँचाओ। मैंने देश के किसी भी किसान वैज्ञानिक के लिए, कृषि के लिए कुछ भी नहीं किया, जो भी किया प्रभु की दी मिनख देह के लिए किया।

” पिताजी की मृत्यु के 10 बरस बाद विधानसभा में एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ने मुझे रोककर पूछा, क्या आप लोढ़ा जी के बेटे हैं? उस दिन मुझे इतना गर्व हुआ कि मौत के 10 बरस बाद भी मेरे पिता को कोई याद करता है। मेरी मृत्यु बाद जब मेरे बच्चों को कोई कहेगा कि आप मधुपजी के बच्चे हैं? तो क्या मेरा जीवन सफल नहीं हुआ?

” न मैं कृषक परिवार में जन्मा, न खेतीबाड़ी की, न किसी अखबार का मालिक हूं। 2017 से किसी व्यवसाय में भी नहीं हूं। 71 साल का हो चुका हूं, अगले साल 60 साल इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के साथ जी लूंगा। अब लगता है कि जो किसान के साथ जी लिया, वह सब कुछ जी लिया, सब कुछ पा गया! ”

हिंदुस्तान में पैसे की कोई कमी नहीं…
”किसानों के लिए लोन, सब्सिडी आदि की सुविधाओं के लिए लडऩे की कोई ज़रूरत नहीं। कहीं भी कोई किसान अच्छा काम कर रहा है तो उसके बारे में हमें बताइए। अगर उसे 10 लोग जानते हैं तो 10 लाख लोग जानने लगें, इसका जि़म्मा हमारा। अगर उसकी पहचान व्यापक हो गई तो हिंदुस्तान में पैसे की तो कोई कमी है ही नहीं। लोगबाग उसके शोध पर इतना पैसा लगा देंगे कि उसकी जि़ंदगी ही बदल जाए।”

देखते-देखते बदली हैं जि़ंदगियाँ…
”तीनों किताबों के 52 किसानों में से अनेक किसानों का मत है कि हमारी आर्थिक सुदृढ़ता में आपका योगदान अमूल्य है। मोटाराम शर्मा (सीकर) कहते हैं, ‘बाढ़ में मेरा सबकुछ बह गया था पर ‘अहा! जि़ंदगी’ में छपे लेख से 5000 फोन कॉल आए और जि़ंदगी बदल गई।’ धर्मवीर कंबोज (हरियाणा) जब पहली बार जयपुर में मिले तो रिक्शा चलाते थे। आज करोड़ों रुपए की प्रोसेसिंग मशीनें बेच चुके हैं।”

मैंने जीते जी गंगास्नान कर लिया…
”किसान वैज्ञानिकों के काम से मेरी आत्मा जुड़ चुकी है। इन सबके परिवार के अधिकांश लोगों से तो मैं मिला भी नहीं। मार्केटिंग बोर्ड में था जब सुंडाराम वर्मा के घर दांता में ‘कृषक संवाद’ कार्यक्रम आयोजित हुआ था। जगदीश पारीक के गाँव कभी नहीं गया। इन दोनों से 40 साल से परिचय है। इस साल दिल्ली में ‘महिंद्रा समृद्धि’ अवॉर्ड के समारोह से लौटते समय जगदीश जी के घर गया। इसी तरह कुंडू जी और धर्मवीर जी के घर गया। इन 4 किसान वैज्ञानिकों के अलावा किसी के घर नहीं गया। किसी के घर की चाय नहीं पी। पर इन सबके फोन आते हैं। एक दिन संतोष पचार का फोन आया, बोलीं- ‘मैं आपकी बेटी हूँ! मेरा इन सबसे कोई निजी संबंध नहीं रहा, पर इन सबके साथ जि़ंदगी जीकर मैंने गंगास्नान कर लिया।’ ”

देश में कृषि पत्रकारिता की स्थिति संतोषजनक नहीं…
”देशभर में कृषि पत्रकार और पत्रकारिता की हालत बेहद नाज़ुक है। जो अखबार-पत्रिकाएँ निकल रही हैं, मैं उनसे संतुष्ट नहीं हूँ। आत्मा योजनाओं के लिटरेचर को ही छापा जाता है। व्यावसायिक कंपनियों के विज्ञापन छपते हैं। ऐसा करने से आप इन कंपनियों के रक्षा कवच बन जाते हैं। ‘शरद कृषि’ ने 2005 से 2017 तक किसी भी खाद या बीज कंपनी का कोई विज्ञापन नहीं छापा।”

अब बदलाव आ रहा है। कुछ अखबार-पत्रिकाएँ अन्नदाता की सफलता की कहानियों को छापने में रुचि दिखा रही हैं। पर कुछ अखबार अब भी सोशल मीडिया पर जारी खबरों को छाप देते हैं, जिनकी सच्चाई को जानने का कोई आधार ही नहीं होता। इधर ‘मीडिया मिरर’ के संपादक प्रशांत राजावत ने अच्छा काम किया है, मैं खुश हूँ। ‘मीडिया मिरर’ वाले कटिंग्स नहीं चुराते, वे विश्वसनीय स्त्रोत से पूछते हैं, जैसे- मधुपजी बताओ, मोइन जी बताओ?

” ‘फार्म एन फूड’, ‘कृषि गोल्डलाइन’, कृषि परिवर्तन’ आदि अच्छा कार्य कर रहे हैं। ‘गाँव कनेक्शन’ भी अच्छा है, पर उनको मेरी सलाह है कि वे न्यूज़ की सत्यता और प्रामाणिकता को परख कर ही आगे बढ़ें। दूरदर्शन के ‘कृषि दर्शन’ और ‘किसान चैनल’ सहित ईटीवी के ‘अन्नदाता’ कार्यक्रमों ने भी क्रांति ला दी है।”

कृषि के खबरनबीश…
”प्रिंट मीडिया में देविंदर शर्मा 1 नंबर पर हैं। राजस्थान में यदि किसी व्यक्ति के पाँव में पहिये लगे हैं, तो वो मोईनुद्दीन चिश्ती हैं। मैं सोचता हूँ कि मैं थक जाऊँगा, नहीं कर पाऊँगा, पर वो खेत-खेत घूमता है, खुद देखता है, समझता है, फिर लिखता है।

”इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में राष्ट्रीय स्तर पर हरेंद्र गर्ग ने अच्छा कार्य किया है। इधर जयपुर में वीरेंद्र परिहार ने भी दूरदर्शन में अच्छा काम किया, वे प्रस्तुति सहायक के रूप में 13 साल पहले आए थे।

”दुख की बात यह भी है कि समुचित मानदेय न मिलने के कारण कुछ पत्रकार जो अच्छा कर सकते थे, बीच रास्ते से ही घर लौट गए।”

एग्रीकल्चर मीडिया की जि़म्मेवारी…
आपके अखबार-पत्रिका को सीधे किसानों तक पहुँचाने की जि़म्मेवारी आपकी है। आपने कृषि पत्रकारिता कर ली, विज्ञापन भी ले लिए। सरकार से मिलकर सकुर्लेशन भी बढ़ा लिया, बीज निर्माताओं-खाद कंपनियों से पैसा भी ले लिया, समृद्ध कोठी भी बन गई, पर जिस किसान की जि़ंदगी बदलनी थी उस तक तो वह पहुँचा ही नहीं।

”हमने 2017 और 2018 में विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित किसान वैज्ञानिकों के 3 राष्ट्रीय मंथन कार्यक्रमों में किसी भी मंत्री को नहीं बुलाया, व्यवस्था के नाम पर किसी भी किसान से एक पैसे का भी सहयोग नहीं लिया। किसानों के कामों को निरंतर विस्तार दिया। दूरदर्शन द्वारा हाल ही में लिए गए मेरे साक्षात्कार में उन्होंने माना कि हमने खेतों के वैज्ञानिकों पर जो कहानियाँ दिखाईं, उनका आधार डॉ. मधुप की 3 पुस्तकें थीं।”

किसानों की अगली पीढ़ी आगे आई…
”हमने किसानों की संतानों को भी प्रोत्साहित किया। ईश्वरसिंह कुंडू के बेटे सुनील-सुशील, धर्मवीर के बेटे प्रिंस, रायसिंह की बेटी राज आदि ने अपनी विरासत को सहेजना शुरू किया। एक तरफ जहाँ लोग खेतीबाड़ी से मोहभंग कर रहे हैं, वहीं पढ़ी-लिखी पीढ़ी का जुड़ाव शुभ संकेत देता है।”

गाँवों में प्रोसेसिंग मशीनें लगाए सरकार…
”सरकार को सुझाव है कि हर ग्राम पंचायत में किसानों को फसलों के उचित दाम दिलवाने के लिए प्रोसेसिंग मशीनें लगाए। पैदावार तो किसान ने कर ली। अब तिल उपजता है तो घाणी की मशीन लगा दे। टमाटर, आलू या सरसों होता है तो इनकी प्रोसेसिंग मशीनें लगवा दे। सीएफटीआरआई, मैसूर ने सस्ती मशीनें बनाई हैं। गाँव के युवाओं को ट्रेनिंग दिलवाकर प्रोसेसिंग, पैकेजिंग सिखाए। स्थानीय ब्रांड बनाए। आसपास के गाँवों-कस्बों में बेचे। बाज़ार में जो बोतल 150 की है, उसे 50 में दे।

”चाहें तो क्या कुछ नहीं हो सकता। पहले गाँवों से दूध, शहद, घी, घाणी का तेल आता था। लोग विश्वास से लेते थे। जब आपके उत्पाद पर भरोसा पैदा हो जाएगा तो 50 की जगह 70 भी मिलेंगे, जबकि पहले इसी के किसान को 10 रुपये मिल रहे थे। 10 और 70 में कितना बड़ा अंतर है? ख़र्च निकालकर 50 रुपये भी बचे तो मुनाफा तो हुआ न!

”विदेशों में किसान ही उत्पादक है, वही प्रोसेसिंग भी करता है। यूके में इको टूरिज़्म की तजर्ऱ् पर काम हो रहा है। यूके, नेपाल, स्विट्ज़रलैंड और थाईलैंड की यात्रा से मुझे यही सीख मिली कि किसान तभी जीतेगा जब वह उत्पादन के साथ-साथ प्रोसेसिंग और मार्केटिंग करेगा। ऐसा हम क्यों नहीं कर सकते? जब हम तकनीकें सीख लेंगे तो प्याज और टमाटर को फैंकने की बजाय प्रोसेस कर लाभ कमाने की सोचेंगे।”

मेरी कामयाबी के असली हकदार…
”माँ सज्जन कँवर लोढ़ा और पिता ज्ञानमल लोढ़ा के संस्कार व आशीष से ही सब संभव हुआ। इस जीवन का अनमोल तोहफा जीवन संगिनी निर्मल मधुप द्वारा हर संकट में मेरे पाले में रहना और उत्साहित करते जाना, इस यात्रा की अनंत ऊर्जा है। बेटी-दामाद आस्था-विश्वकांत, पुत्र-पुत्रवधु अपूर्व-आकांक्षा के सहयोग बिना भी सबकुछ संभव हो पाना मात्र एक सपना था। खुद को सृष्टि का सबसे खुशनसीब व्यक्ति मानता हूँ।”

संपर्क कर सकते है:
104/114, सोम्य मार्ग, विजय पथ, अग्रवाल फार्म,
मानसरोवर, जयपुर-302020 (राजस्थान)
मोबाइल नंबर: 094142 65720

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Close