संपादकीय

अब जनता को ‘उल्लू बनाना’ आसान नहीं

अभी हाल ही में प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में एक निर्माणाधीन पुल गिर जाने की घटना में हमने भ्रष्टाचार की परकाष्ठा देखी, जिसमें कई लोगों की मौत हुई। इन मौतों से कितने ही परिवारों का संतुलन बिगड़ गया, पर इस बात से किसी जि़म्मेदार को कोई लेना-देना नहीं, उन्होंने तो मुआवजा देकर छुट्टी पा ली।
वहीं दूसरी ओर २२ मई की एक ताज़ातरीन घटना में जब वेदांता की स्टरलाइट यूनिट के कॉपर प्लांट के प्रदूषण से नाराज़ लोग विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे तो पुलिस द्वारा की गई फायरिंग में कई लोगों की जान चली गई और कई पुलिसकर्मियों सहित बहुत से लोग घायल हुए। गुलामी के समय में सरकारी नीतियों का विरोध करने पर लाठीचार्ज और गोलियों की बौछार होती थी, परंतु आज तो हम आज़ाद भारत में जी रहे हैं न, तो क्या अब भी सरकारों का विरोध करना गुनाह है? क्या यही लोकतंत्र है? लोकतंत्र का मतलब तो होता है लोक यानि जन का सम्मान करने वाला तंत्र यानि व्यवस्था। जिस तंत्र में लोगों के विरोध और जान की कोई कीमत नहीं वह लोकतंत्र न होकर सिर्फ भ्रष्टतंत्र कहलाता है। इस भ्रष्टतंत्र के उदाहरण हम लगभग रोज़ ही देख रहे हैं।
देश के कई हिस्सों से खबर आ रही है कि मण्डी में फसल बेचने के लिए भरी गर्मियों में ४ से ५ दिनों का समय लगने से कई किसानों की मण्डी प्रांगण में ही मृत्यु हो गई। मार्च में किसानों की चने की फसल निकल गई थी, उसकी तुलाई अभी तक नहीं हुई है। अभी तो तुलाई ही नहीं हुई, तो पैसे कब आएँगे भगवान ही जाने। और बिना पैसे के किसान अपने परिवार का पेट कैसे पालेगा यह भी भगवान ही जानता है।
आज का दौर तकनीक का दौर है। आज के समय में सरकार और लोग तकनीक का पूरा इस्तेमाल कर रहे हैं। तकनीक के इस दौर में किसी को भी उल्लू बनाना आसान नहीं है। सरकार ने आधार को अनिवार्य कर दिया है जिससे अपात्र लोग जो पात्र लोगों के हिस्से का लाभ भी ले लेते थे, वह बंद हुआ। कई फर्जी बैंक अकाउंट बंद हुए, फर्जी गैस कनेक्शन भी बंद हुए। आधार के आने से फर्जी लोगों द्वारा सरकार को उल्लू बनाना अब आसान नहीं रहा।
वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया का चलन भारत में बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। इससे भी लोगों में जागरूकता फैल रही है, जिसके चलते अब उन्हें उल्लू बनाना आसान नहीं है। चाहे कोई कंपनी हो या राजनैतिक दल, अब लोगों को उल्लू बनाना आसान नहीं है यह उनको समझ लेना चाहिए। किसान भाई भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं।
राजनैतिक दल चुनावी भाषणों में बड़े-बड़े वादे करते हैं पर सरकार में आने के बाद उनसे मुकर जाते हैं, तो आजकल जनता उन्हें उनके भूले हुए वादे याद दिलाने के लिए सोशल मीडिया पर उन्हीं के वीडियोज़ शेयर करती है, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि चुनावों के दौरान उन्होंने क्या कहा था और अब क्या कर रहे हैं। इस तरह राजनैतिक दलों की कथनी और करनी में अंतर साफ नज़र आ जाता है। इन राजनैतिक दलों को एक बात नहीं भूलना चाहिए कि पाँचवे साल तो जनता के पास वोट लेने जाना ही पड़ेगा। जनता के पास एक बहुत ही ताकतवर हथियार है वोट देने का अधिकार और इसी से अपना फैसला सुनाती हैं। राजनैतिक दलों को अब समझ लेना चाहिए कि तकनीकी प्रसार के इस दौर में पब्लिक को उल्लू बनाना आसान नहीं है। अब लोगों के पास हर तरह की सूचनाएँ पलक झपकते पहुँच जाती हैं और वे सही-गलत का भेद आसानी से कर सकते हैं।
बहरहाल किसान भाईयो, हमारे लिए राजनैजिक रूप से सजग होना और सही-गलत में फर्क कर पाना जितना ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी है यह जानना कि अपनी ज़मीन, अपने पर्यावरण और अपनी खेती के लिहाज़ से क्या सही है और क्या गलत। हमें चाहिए कि इस मामले में भी सूचना तकनीकि का भरपूर प्रयोग करके सतत अपनी जानकारी बढ़ाएँ और ऐसी खेती करें जिससे हमारी ज़मीन उर्वर बनी रहे, पर्यावरण को नुकसान न हो तथा हमारा मौसम-चक्र भी सुचारू रूप से चलता रहे।
समाचार माध्यमों से आपको ज्ञात हो ही चुका होगा कि हाल ही में देश के कुछ राज्यों में बेमौसम आँधी-पानी की भीषण घटनाएँ हुईं। यह प्रकृति का संदेश था कि अभी भी वक्त है सुधर जाओ। अगर हम अभी भी नहीं सुधरे और इसी प्रकार रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब सालभर ही बारिश होती रहेगी और खेती करना मुश्किल हो जाएगा।
जिस प्रकार अब लोगों को उल्लू बनाना आसान नहीं है वैसे ही हम प्रकृति को भी उल्लू नहीं बना सकते, क्योंकि प्रकृति तो अपना संतुलन खुद व खुद बनाती चलती है, जिसके बहुत सारे उदाहरण हम पिछले कुछ वर्षों में देख चुके हैं। अच्छी बात है कि अब जनता इस विषय में कुछ-कुछ जागरूक हो रही है और प्रदूषण के खिलाफ प्रदर्शन करने लगी है।
मेरा किसान भाईयों से अनुरोध है कि वेे सिर्फ अधिक पैसा कमाने के लिए खेती न करें बल्कि अपनी प्रकृति व वातावरण को शुद्ध रखने वाली खेती का अनुसरण करें। प्रकृति की अनदेखी करके खेती करना हमें और हमारी आने वाली पीढ़ी को स्थाई नुकसान पहुँचाने वाला साबित होगा, इसलिए हमें चाहिए कि हम प्रकृति के कायदे में रहकर खेती करें। नरवाई न जलाएँ। इससे प्रदूषण तो फैलता ही है, साथ में ज़मीन की उर्वरता भी कम होती है। आज से ही प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने वाली रासायनिक, ज़हरीली एवं लालच भरी खेती को छोड़कर प्राकृतिक खेती, परंपरागत खेती या जैविक खेती को अपनाएँ। न उल्लू बनें, न बनाएँ।
पवन नागर, संपादक

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