संपादकीय

किसानों की आत्महत्या का जवाब क्यों नहीं?

पवन नागर, संपादक 

आये दिन अख़बारों और न्यूज़ चैनल्स के माध्यम से आपको पता चल रहा होगा कि देश में आए दिन किसान की आत्महत्याओं के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। और संभवत: आप में से अधिकांश लोग इस बात को लेकर चिंचित भी होंगे। पर सरकार पर इन आत्महत्याओं का कोई असर हो रहा हो इस बात के कुछ भी संकेत नहीं मिल रहे। सरकार की तरफ से इन आत्महत्याओं को रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम अब तक नहीं उठाए गए हैं। केवल कोरे आश्वासन दिए गए हैं। लेकिन जिस बात ने किसानों के मनोबल को सबसे ज्य़ादा गिराया है वह है सरकार के कुछ जवाबदार मंत्रियों द्वारा इस संबंध में दिए जा रहे निहायत ही बेतुके और गैर-जि़म्मेदाराना बयान।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकडे बताते है कि 1995 से अब तक देश में तकरीबन तीन लाख किसान आत्महल्या कर चुके हैं। मेरे विचार में ये आंकड़े इस बात की तस्दीक करने के लिए पर्याप्त हैं कि देश के किसान कितने बदहाल हैं। लेकिन लाखों लोगों का पेट भरने वाला किसान क्यों इतना बदहाल हो गया कि उसे अपने हाथों अपनी ही जान लेने पर मजबूर होना पड़ रहा है, और वह भी इतनी बड़ी तादाद में, इस बात का जवाब किसी भी सरकार या देश की कृषि नीतियाँ बनाने वालों के पास नहीं है।
कितने दुख की बात है कि इतने बड़े पैमाने पर किसानों के जान गँवाने के बाद भी सरकार कोई कदम नहीं उठा रही है। यहीं यदि किसी उद्योग या बड़ी कंपनियों पर कोई संकट आया होता तो सरकार तुरंत किसी पैकेज की घोषणा कर देती, या किसी राज्य के चुनाव सर पर होते तो मुक्त हस्त से रेवडिय़ाँ बाँट देती (जैसे कि उत्तरप्रदेश में चीनी मिलों के लिए और हाल ही में बिहार के लिए सवा लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की गई) लेकिन किसानों के लिए हर सरकार के हाथ तंग ही रहते हैं। जबकि किसान बड़ी आस के साथ इस इंतज़ार में है कि उनके लिए भी सरकार कोई पैकेज घोषित कर दे, उनको भी कुछ आर्थिक मदद मिल जाए तो वे इस मुसीबत से उबर कर पुन: देश-दुनिया का पेट भरने के अपने कृषकधर्म का निर्वाह करने की स्थिति में आ जाए। आज तो हालत यह है कि खेती-किसानी में हो रहे लगातार नुकसान की वजह से किसान का आत्म-बल पूरी तरह टूट चुका है और दिन-ब-दिन वह कर्ज़ के दलदल में धंसता ही जा रहा है। एक तो फसल में मुनाफा नहीं हो रहा, ऊपर से मौसम की भी मार पड़ रही है। ऐसी स्थिति में यदि सरकार ने भी किसानों की मदद नहीं की तो वे कहीं के नहीं रहेंगे।
किसान के नुकसान की भरपाई के लिए सरकार द्वारा राष्ट्रीय बीमा योजना बनाई तो है पर उसमें भी इतनी कमियां हैं कि उसका असल लाभ किसानों तक पहुंच ही नहीं पाता। बीमे की किश्त तो किसान बराबर समय से भरता है, पर फसल खराब होने पर क्लेम के लिए उसे लंबा इंतज़ार करना पड़ता है, वह भी जब मिलता है तो असल नुकसान के मुकाबले बहुत कम होता है। कुल मिलाकर यह कि किसान की कहीं कोई गत नहीं है, कहीं कोई सुनवाई नहीं है। उसे बस ऊपरवाले के भरोसे छोड़ दिया गया है।
पर प्रश्न यह है कि आखिर सरकार किसानों की समस्या का कोई स्थायी हल क्यों नहीं निकालती? इसका जवाब यही है कि उसके पास कोई समाधान है ही नहीं। अगर होता तो आज़ादी के साठा बरस बाद भी किसानों की यह दुर्दशा नहीं होती और वे इतनी बड़ी संख्या में मरने को मजबूर नहीं होते। आज किसान चौतरफा मुसीबतों से घिरा हुआ है- एक तरफ उर्वरक के दाम बढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ बिजली महंगी होती जा रही है, कभी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिलता तो कभी सूखे या बाढ़ के कारण फसल बर्बाद हो जाती है। कैसी विडंबना है कि एक कृषि प्रधान देश में किसानों की ऐसी दुर्दशा हो रही है कि वे या तो किसानी छोडऩे को मजबूर हो रहे हैं या फिर अपनी जान देने को! पर सरकार को इस सबसे कोई मतलब नहीं। किसान मरता है तो मरता रहे।
फिलहाल तो किसी को नहीं पता कि किसानी की हालत कब और कैसे सुधरेगी। अभी तो किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं है। फिलहाल तो हम बस यही कामना कर सकते हैं कि सरकारों को जल्द से जल्द सद्बुद्धि आए और भारत का किसान फिर से खुशहाली की राह पर अग्रसर हो, और आत्महत्याओं की यह बाढ़ थम जाए।
पवन नागर, संपादक

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