अभी बीती 26 जनवरी को हम सबने कोरोनाकाल में 72वां गणतंत्र दिवस मनाया और 2020 का अंत भी हो गया। 2020 हमें कई नई सीखें दे गया है, देखना यह होगा कि इन सीखों से हम कितना सीखते हैं और उस सीखे हुए को कितना अमल में लाते हैं। फिलहाल खबर यह है कि सरकार ने संसद में साफ-साफ शब्दों में किसानों से कह दिया है कि कानून वापस नहीं होंगे। और दूसरी तरफ किसान भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं, उन्होंने ‘आंदोलनजीवी’ बनकर आंदोलन को और तेज़ कर दिया है। बातचीत का दौर खत्म हो चुका है और आगे क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा।
खैर, लोकतंत्र में विरोध न हो तो वह लोकतंत्र ही नहीं कहलाता है और हम तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में निवास करते हैं। लेकिन दोस्तो, मन की बात कहूँ तो अब इस लोकतंत्र को ढोते-ढोते मैं बहुत थक चुका हूँ। मुझे समझ ही नहीं आता है कि आखिर मैं हूँ कौन। जिसका जैसा मन करता है वह मुझे वैसा ही बना देता है। जब चुनाव प्रचार हो रहा हो तो किसी के लिए मैं गले तक क़र्ज़ में धँसा किसान या अन्नदाता हो जाता हूँ, किसी के लिए गरीब जनता हो जाता हूँ, किसी के लिए करदाता हो जाता हूँ, किसी के लिए हिन्दू हो जाता हूँ, किसी के लिए मुस्लिम हो जाता हूँ; कोई मुझे सिख बना देता है तो कोई ईसाई बना देता है; कोई मुझे जातियों में विभाजित कर देता है तो कोई धर्म में। और चुनाव के दिन मैं सबके लिए ‘लोकतंत्र का रक्षक’, यानी मतदाता हो जाता हूँ। आज तक मुझे कोई एक ऐसी पहचान ही नहीं मिली जिससे मैं सदा पहचाना जाऊं। आज़ादी के बाद के भारत में रहकर मेरी पहचान गुम-सी हो गई है और इतनी सारी पंजीकृत एवं गैर-पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों ने सत्ता की अपनी भूख के कारण जानबूझकर मुझे मेरी असली पहचान (भारतीय नागरिक) से गुमराह कर दिया है और इतने असमंजस में डाल दिया है कि मुझे ही याद नहीं रहा कि मैं कौन हूँ।
वर्तमान में तो हालात और भी खराब हैं। यदि मैं सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर दूँ तो मैं देशद्रोही, आतंकवादी या फिर खालिस्तानी हो जाता हूँ। मैं अपनी जेब पर बढ़ रहे महँगाई के बोझ का विरोध भी नहीं कर सकता हूँ, मैं अपनी समस्याओं के लिए भी विरोध नहीं कर सकता हूँ। तो फिर मैं कहाँ लोकतंत्र में जी रहा हूँ? साल दर साल किस गणतंत्र का दिवस मना रहा हूँ? यहाँ न तो गण की कोई हैसियत है और न ही तंत्र की कोई व्यवस्था। सरकार अपने हिसाब से मेरी परिभाषा बना लेती है और विपक्ष तथा मीडिया अपने हिसाब से। इन सबकी चिकपिक में मैं भूल ही जाता हूँ कि मैं हूँ कौन।
क्या मैं संविधान में लिखी प्रस्तावना ”हम भारत के लोग” में से एक हूँ? क्या मैं भारत का एक जि़म्मेदार नागरिक हूँ? या एक जि़म्मेदार पढ़ा-लिखा बेरोज़गार युवा हूँ? क्या मैं एक जि़म्मेदार व्यापारी हूँ? क्या मैं जि़म्मेदार सरकारी कर्मचारी हूँ? क्या मैं जि़म्मेदार शिक्षक हूँ? क्या मैं वही ईमानदार करदाता हूँ? जो हर वर्ष समय पर अपना आयकर भरता है? क्या मैं वही हूँ जो अपनी आय और खर्च दोनों पर भारी कर (टैक्स) देता हूँ? क्या मैं भारत का वही किसान हूँ जो कभी अन्नदाता कहलाता था और अब सरकार का विरोध करने पर देशद्रोही हो गया हूँ? इन सब में से मैं कौन हूँ? मुझे अब याद नहीं, क्योंकि अब मैं आज़ाद भारत में रह रहा हूँ, अब मैं आज़ाद हूँ। यह कोई अंग्रेज़ों का ज़माना थोड़े ही है जो हम सब मिल-जुलकर भाईचारे से रहें। हमें कौन सी आज़ादी की लड़ाई लडऩी है जो जाति, धर्म, भाषा, वेशभूषा इत्यादि में एकजुटता दिखाएँ। अब तो हम आज़ाद हैं और एक महान लोकतंत्र में निवास कर रहे हैं। इसलिए अब हम सबको धर्म, जाति, भाषा, देशभक्त, देशद्रोही, अर्बन नक्सल, खालिस्तानी इत्यादि में बाँट दिया गया है और हमारी असली पहचान -एक जि़म्मेदार भारतीय नागरिक- को कहीं पाताल लोक में भेज दिया गया है।
तो मेरे प्रिय देशवासियो! आप सबसे निवेदन है कि आपस में भाईचारा और एकजुटता बनाए रखें, और हमेशा यह याद रखें कि हम चाहे हिन्दू हों, मुस्लिम हों, सिख हों, ईसाई हों; अगड़े हों कि पिछड़े हों; बच्चे हों, युवा हों, बुजुर्ग हों; पुरुष हों या महिला हों; व्यापारी हों या नौकरीपेशा हों या बेरोज़गार हों; पर हम सबकी वास्तविक पहचान एक ही है और वह है एक जि़म्मेदार भारतीय नागरिक की। इस पहचान को कभी न भूलें। और याद रखें कि एक जि़म्मेदार भारतीय नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम सभी धर्मों, जातियों, समुदायों, भाषाओं इत्यादि का सम्मान करें। किसी से भी भेदभाव या द्वेष न रखें। किसी के भी बहकावे में ना आएँ और एकजुटता एवं भाईचारा बनाए रखें, जैसा कि आज़ादी के पहले था। इसी में सभी की भलाई है।
राजनीतिक पार्टियाँ भरसक प्रयास करेंगी कि आप इस बात को भूले रहें कि वास्तव में आप कौन हैं और उनके अनुसार ही चलते रहें। इसलिए आप से निवेदन है कि चाहे आप व्यापारी हों या किसान हों या नौकरीपेशा हों या फिर बेरोज़गार हों, आप चाहे कोई भी हों परंतु एक जि़म्मेदार भारतीय नागरिक होने की अपनी पहचान को हमेशा अपने ज़ेहन में जि़ंदा रखिए, अपनी आवाज़ को बुलंद रखिए और गर्व से कहिए कि हम सब एक हैं।
अंत में किसान भाईयों से निवेदन है कि कानून वापस हों या न हों, आप इतना समझ लीजिए कि आने वाला समय आपके लिए बहुत कठिन होने वाला है, इसलिए बेहतर होगा कि जल्द से जल्द आप खेती के अपने वर्तमान तरीके को बदल लें और आप वापस से अपने पूर्वजों के तौर-तरीकों को अपना लें, यानी कि वापस से बिना खर्चे की और बिना ज़हर वाली बहुफसली खेती अपना लें। इसी बहुफसली प्रणाली में आपकी सभी समस्याओं का हल है। आपको एकल फसल प्रणाली और रासायनिक खेती से छुटकारा पाने के लिए लडऩा होगा तभी आपकी समस्याओं का हल निकलेगा। पहले अपने घर की ज़रूरत की हर चीज़ को अपने खेत में लगाएँ और फिर बचे हुए रकबे में सरकार और बाज़ार के लिए उगाएँ। अधिक से अधिक फसलें अपने खेत में लगाएँ और रासायनिक खादों व कीटनाशकों की जगह देशी खाद व प्राकृतिक कीटनाशकों का उपयोग करें। प्रकृति के सहायक बनें, उसके दुश्मन नहीं। एकल फसल प्रणाली से तौबा कर लें और प्रकृति की रक्षा करने वाली प्राकृतिक खेती की शुरुआत करें। डरे नहीं, डटे रहें मैदान में!
पवन नागर,
संपादक
धन्यवाद एवं आभार व्यास जी
धन्वाद एवं आभार अनीता जी