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भारत एक कृषि प्रधान देश है इसमें कोई दो राय नहीं। हमारी लगभग 65 प्रतिशत से अधिक आबादी गाँवों में निवास करती है और खेती-किसानी को ही अपनी आजीविका का एकमात्र साधन मानती है और इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं कि हमारी अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान भी कृषि क्षेत्र का ही है। आश्चर्य तो इस बात का है कि जिस देश की इतनी आबादी कृषि कार्य में व्यस्त है, उस देश में ही खाने-पीने की चीज़ों, मसलन दालों व सब्जि़यों के दाम आसमान छू रहे हैं!
सोचने वाली बात यह है कि क्या वाकई में हमारे यहाँ सब्जि़यों की किल्लत हो गई है? और अगर हाँ, तो कैसे? और कौन जि़म्मेदार है इसके लिए? यह प्रश्न हर भारतीय और हर किसान को अपने आप से पूछना चाहिए। हाँ, किल्लत हो गई है, क्योंकि हम अपनी ही ज़मीन होते हुए, अपनी ही ज़रूरत की चीज़ों के लिए बाज़ार पर निर्भर हो गये हैं और हमने अपने लिए ही काम करना बंद कर दिया है, जो हम पहले किया करते थे। पहले हम जिन चीज़ों के उत्पादक हुआ करते थे, जो चीज़ें पहले हमारे घर-आँगन में, बाग-बगीचों में आसानी से उपजा ली जाती थीं, आज उन्हीं चीज़ों के लिए हम बाज़ार का मुँह ताकते हैं।
आज से 10-15 वर्ष पहले ऐसा नहीं होता था। इन रोज़मर्रा की सब्जि़यों के लिए किसान को बाज़ार नहीं जाना पड़ता था। घर-घर इनका उत्पादन होता था। इस कारण बाज़ार में मांग उतनी नहीं हो पाती थी। और इसीलिए सब्जि़यों की कीमतें भी नियंत्रण में रहती थीं और किसान के घर का बजट भी। तब किसान बाज़ार से सिर्फ वही सब्ज़ी खरीद कर लाता था जिसका उत्पादन उसके क्षेत्र में न होता हो। अभी जो महंगाई है, उसका कारण ही यही है कि माँग बहुत ज्य़ादा है और उत्पादन बहुत ही कम। इस कारण सरलता से उगने वाली सब्जि़यों के दाम भी आसमान छू रहे हैं। और ऊपर से मुसीबत यह कि ज्य़ादा दाम देकर हम बाज़ार से जो सब्जि़याँ खरीद रहे हैं उनके साथ रासायनिक खाद व कीटनाशकों का ज़हर हमारे शरीर में जा रहा है और तमाम जानलेवा व लाइलाज बीमारियाँ पैदा कर रहा है। कुल मिलाकर यह कि पहले हम मुफ्त में अमृत पा रहे थे और अब ज़हर मोल ले रहे हैं।
तो अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर पहले हम ऐसा क्या करते थे जो अब नहीं कर पा रहे हैं? असल में हुआ यह है कि कम से कम में ज्य़ादा से ज्य़ादा मुनाफे के चक्कर में हम आधुनिक यंत्रों, रासायनिक खाद, कीटनाशकों और आधुनिक बीजों का उपयोग करने लगे हैं और अपनी उस परम्परागत कृषि को भूल बैठे हैं जो हमारे पूर्वज किया करते थे। यह वह कृषि थी जो मौसम और मिट्टी को देखते हुए की जाती थी। कम पानी वाली ज़मीन में अलग और ज्य़ादा पानी वाली जगह में अलग फसल बोई जाती थी। इससे सभी तरह की फसलों का पर्याप्त उत्पादन होता था और मिट्टी की उर्वरता भी बरकरार रहती थी। लेकिन जब से तथाकथित आधुनिक कृषि का आगमन हुआ, तब से किसानों के दिमाग में केवल नगदी फसलों के अधिकाधिक उत्पादन का भूत सवार होने लगा, जिसके कारण अलसी, तिवड़ा, मसूर जैसी फसलों का उत्पादन बहुत ही कम हो गया और जो अब बहुत ही कम बोई जाती हैं। अब तो हम केवल वही उगाते हैं जिसके बाज़ार में ऊँचे दाम मिल रहे हों- फिर चाहे हमारी ज़मीन उसके अनुकूल हो अथवा नहीं। जैसे कि धान अधिक पानी वाली फसल है जिसके लिए बारिश के पानी के अलावा भी पानी की आवश्यकता पड़ती है, परंतु जिन किसानों के पास पानी की व्यवस्था नहीं है उनको भी धान लगाना है।
पहले यह व्यवस्था थी कि हर किसान के पास एक बाड़ा और एक खलियान हुआ करता था और घर पर गाय-भैंस हुआ करती थीं। परंतु कृषि के आधुनिकीकरण और मशीनीकरण के कारण यह व्यवस्था लगभग समाप्त-सी हो चुकी है। अब न किसी के पास बाड़ा है और न खलियान। इनकी उपयोगिता ही भूल चुके हैं किसान। जिनको न मालूम हो उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि बाड़ा असल में घर से लगा हुआ उपजाऊ ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा होता है जिसके एक हिस्से में गड्ढा बनाकर उसमें पशुओं के गोबर तथा घर से निकले जैविक कचरे को डालकर सड़ाया जाता है ताकि वो जैविक खाद में बदल जाए। बाकी हिस्से में उसी खाद का उपयोग कर अपने खेत व घर के लिए मौसमी सब्जि़याँ और फल उगा लिए जाते हैं- जो रासायनिक खादों और कीटनाशकों से पूरी तरह मुक्त होते थे। पहले का किसान लौकी, बल्लर (सेम), टमाटर, करेला, कुन्दरू, पालक, मैथी, धनिया, मिर्च, बैंगन, ककड़ी, भुट्टा (मक्का), इत्यादि अपने ही बाड़े में पैदा करता था और बाकी सब्जि़याँ, जैसे प्याज, लहसुन, मूली, मटर, इत्यादि खेत में अनाज के साथ लगा लेता था। सिर्फ आलू जैसी कुछेक सब्जि़याँ ही (जिनका उत्पादन किसान अपने यहाँ नहीं कर सकता था) बाज़ार से खरीदना पड़ती थीं। इसी तरह एक खलियान भी होता है जो घर से थोड़ा दूर बनाया जाता है और जहाँ फसल कटाई के बाद रखी जाती है। इसी खलियान में पशुओं को भी बाँध दिया जाता है। अब मशीनीकरण के कारण किसान की फसल सीधे घर पर आ जाती है तो किसान के लिए खलियान की उपयोगिता खत्म हो गई। अब गाँवों में खलियान लगभग खत्म हो चले हैं और वहाँ पशुओं के बजाए इंसानों के घर बन गए हैं।
मशीनीकरण का एक और नुकसान यह हुआ कि भूसे के उत्पादन में भारी कमी आ गई। अब जब भूसा इतना महंगा होगा तो कौन सोचेगा जानवर पालने की। जानवर नहीं रहे तो किसानों को दूध भी बाज़ार से खरीदना पड़ रहा है। जो उत्पादक थे, वे ही उपभोक्ता बन गए। फलत: दूध, घी, दही, मही (मठ्ठा), मावा इत्यादि की कीमतें आसमान छूने लगी हैं और मिलावटी दूध, घी, मावा इत्यादि बिकने लगा है।
अगर यह बाड़े और खलियान वाली संस्कृति दोबारा अपना ली जाए तो न केवल सब्जि़यों और दूध-घी पर छाई महंगाई खत्म हो जाएगी बल्कि किसान अपने परिवार की शारीरिक व आर्थिक सेहत भी बरकरार रख पाएगा।
यह सही है कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, किंतु जिस तेज़ी से गाँवों के लोगों की मानसिकता का शहरीकरण हो रहा है वह निकट भविष्य में उसके लिए आर्थिक गुलामी व खाद्य पदार्थों की कमी का कारण बन सकता है। यदि हम अभी भी नहीं जागे तो वह दिन दूर नहीं जब सारी दुनिया का पेट भरने वाला किसान खुद अपना पेट भरने के लिए बाज़ार पर आश्रित हो जाएगा। हालात बदल सकते हैं, ज़रूरत है तो बस थोड़ी सी मेहनत की, अपने देश के भविष्य के बारे में सोचने की और अपनी आने वाली पीढ़ी के स्वास्थ्य की चिंता करने की।
”कृषि परिवर्तन” के माध्यम से हम इसी बदलाव के लिए प्रयासरत हैं। और हमें पूर्ण विश्वास है कि आप और हम मिलकर ऐसा कर सकते हैं।
पवन नागर, संपादक