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कृषि का दुर्भाग्य या कृषि हमारा भाग्य?

आप कल्पना कर सकते हैं एक ऐसे बच्चे की जो कई सारी परीक्षाओं में अव्वल भी आया, लेकिन लक्ष्य निर्धारित ही नहीं कर पाया या कहें कि वह भटक गया लक्ष्य निर्धारण में? उसे सिर्फ हर कक्षा में अव्वल आना है। उसे नहीं मालूम है कि वह अव्वल तो आ रहा है लेकिन उसे आगे क्या करना है। सिर्फ भटकाव। भटकाव बड़ा विचित्र शब्द है। कार्यों को करते-करते मार्ग से भटक जाना तब ज़्यादा अखरता है जब भटकाव हमारे अस्तित्व से जुड़ा हो। और जब भटकते-भटकते मुसाफिर अपनी मंजि़ल तक आ जाए तो उसे फिर भटकाव नहीं बल्कि ”देर आए दुरुस्त आए” वाली बात कही जा सकती है। लेकिन किसी काम में ज़्यादा देर भी हो जाए तो वह काम की नहीं रहती है।

कृषि?
प्रश्नवाचक चिह्न इसलिए लगाया है क्योंकि कृषि क्या है यह एक प्रश्न है, जो आज मैं आपसे पूछ रही हूँ। क्या हल को लेकर जोतना कृषि है? या दिन-रात मेहनत करके एक बीज को एक पेड़ बनाने तक का कार्य कृषि है? सही है, यही कृषि है। हम देश के युवा हैं, हमारा देश लोकतांत्रिक देश है, सब बातों को हम सहजतापूर्वक रखते हैं। तो कृषि के लिए हम क्यों गंभीरतापूर्वक नहीं सोचते हैं? क्यों हम अपने को सिर्फ अपने तक सीमित रखते हैं?

शायद युवा यह सोचते हंै कि कृषि कार्य कठिनाई से भरे होते हैं, जबकि पढ़ाई पैसा कमाने का सबसे सस्ता साधन है। इसलिए पढ़ाई करके अच्छी नौकरी पाकर दूसरे देशों में बस जाते हैं और फिर विभिन्न भेदों का शिकार होते रहते हैं।

किसान बनने से लेकर खेती करने तक का सफर बहुत कठिन होता है, यह तो बिल्कुल सही है लेकिन कृषि करने के दौरान हमें समय-समय पर जो सुखद परिणाम मिलते हैं वो भी किसी तोहफे से कम नहीं, क्योंकि मेहनत से मिले फल की बात कुछ और ही है। शायद खेती की इतनी मेहनत को देखकर ही हम लोग खेती में अपना अस्तित्व नहीं खोजते।

उन्नत कृषि व युवा भटकाव
युवा आज भी कृषि को कॅरियर के रूप में पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं करते हैं। किसान माँ-बाप भी अपनी पैतृक ज़मीनों को बेचकर शहर में बस रहे हैं। शहरों की चकाचौंध बच्चों को खींच रही है और माँ-बाप भी ”जो हम न कर सके, अपने बच्चों को करने दे” वाले वाक्यों पर अमल कर रहे हैं। खेती करना जैसे अपराधी का काम हो गया! कुछ गाँवों के तो हालात ये हैं कि बच्चों का शहरों में पलायन हो गया और सिर्फ बूढ़े माँ-बाप ही गाँव में रह गए, और माँ-बाप भी संतुष्ट हैं कि चलो हमने तो बहुत मेहनत कर ली पर हमारा बच्चा बाहर नौकरी कर रहा है। लेकिन वास्तव में वो नौकरी नहीं कर रहा बल्कि पलायन कर गया है अपनी मिट्टी से।

मुझे इसमें एक ही समस्या यह नज़र आती है कि मैं एक किसान हूँ या मैं किसी अन्य प्रोफेशन से हूँ और अपने कार्यों को सिर्फ नकारात्मकता लिए ही अपने बच्चों के सामने बात करूँ, या मैं एक किसान परिवार से हूँ और ये कहूँ दिन-रात अपने बच्चों को कि खेती में तो बड़ी मेहनत है, बहुत कठिन है, बहुत मुश्किलें आती हैं तो बच्चा बचपन से ही आसान रास्ते ढूँढऩे लगता है। हमारे मन में अपने कार्यों के प्रति सम्मान होना चाहिए और हमें अपने बच्चों को उसकी महत्ता के बारे में बताना चाहिए, न कि ”कितनी भी मेहनत कर लो, हाथ में कुछ नहीं आता” वाले वाक्य कहने चाहिए। अब खेती सहज और सरल तरीके से भी की जा रही है। इसलिए बच्चों को खेती के प्रति लगाव बताएँ, न कि नकारात्मकता। अन्यथा पलायन का स्तर और बढ़ेगा। और ये पलायन हमें कहाँ ले जाएगा? नहीं मालूम, क्योंकि संतुष्टि तो शहरों में नहीं है। संतुष्टि का कोई पैरामीटर नहीं होता है।

कृषि विकासशील नहीं अपितु विकसित हो चुकी है। युवा डर के बैठा है कि कृषि में हाथ डाला तो बहुत मेहनत होगी, इसलिए वह कृषि में जाना ही नहीं चाहता। लेकिन सही तरीके से खेती के विषय में जानकारी हो तो खेती से लाभ उठाया जा सकता है। संसार में दो लोगों का काम बहुत कठिन होता है, एक जवान और दूसरा किसान। एक सुरक्षा देता है, दूसरा अन्न, और दोनों ही हमारे लिए आवश्यक हैं।

”अन्न ब्रह्म है।” यदि अन्न उगाने वाले ही न रहे तो धरा का क्या होगा? इस धरा को सींचने वाले नहीं रहे तो धरा का क्या होगा? ज़रूरी नहीं है कि मिट्टी का कजऱ् चुकाने के लिए सीमा पर बंदूक उठाकर खड़े हों। यदि धरती माता का ऋण चुकाना ही है तो खेती करके और कृषक बनकर अपने देश को समृद्ध बनाएँ, खेती को कॅरियर के रूप में चुनें, परिवार वालों को साथ लेकर चलें। कहते हैं यदि देश के हालात के बारे में जानना है तो उसके कृषक के बारे में जानें कि वो कैसा है। हम स्मार्ट, आधुनिक व नई तकनीकों का प्रयोग करके भारत को कृषि में नई दिशा दे सकते हैं। सिर्फ कलम तक नहीं, अमल में कृषि करें।

लेखिका: मुक्ता पहाड़े, भोपाल (म.प्र.)

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2 Comments

  1. Mukta ji ye likna bahut ki yuva kheti se door ja rahe hai desh mai jyadatar chote kishan hai jinke pass 1 acre se 2 acre jamin hi hai aise mai krishi mai lagat itni jyda badh jati hai ki fasal aane pr lagat aur khane bhar ka anaj nikalpana bada muskil hota hai kisan sarkari kote se har mahine anaz lekar kha rahe hai jab kishan banoge tab pta chalega

  2. ये लेख 5star आफिस में बैठकर लिखा गया लगता है। किसान जो भी फसल पैदा कर रहा है, उसकी सही कीमत उसे नहीं मिल रही है। सरकार समर्थन मूल्य की केवल घोषणा भर करती है। सभी सरकारें भ्रष्ट हैं। विपक्षी भी आवाज नहीं उठाते। मोदी जी से उम्मीद थी, लेकिन वह भी मूल काम नहीं करके 6000 की चटनी चटा रहे हैं।

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