वैसे तो दुनिया में महामारियाँ बहुत आई हैं और भविष्य में भी आती रहेंगी, परंतु कोविड-19 महामारी थोड़ी अलग इसलिए है क्योंकि इसने पूरी दुनिया की आर्थिक गतिविधियों के साथ-साथ लालची मानव को उन सारी गतिविधियों पर भी पाबंदी लगाने पर मजबूर कर दिया जिनसे यह लालची मानव प्रकृति को बेहिसाब नुकसान पहुँचा रहा था और खुद को ईश्वर या प्रकृति की व्यवस्था से बढ़कर समझने लगा था।
धरती पर निवासरत इंसान यह भूल गया था कि प्रकृति की अपनी एक व्यवस्था है और उसी व्यवस्था के अनुसार पूरी दुनिया पिछले हज़ारों वर्षों से चल रही है। वह भूल गया था कि हमें प्रकृति की इस व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं करना चाहिए; हमें सिर्फ प्रकृति की व्यवस्था में सहायक की भूमिका निभानी चाहिए और प्रकृति को उसका कार्य स्वतंत्रता पूर्वक करने की आज़ादी देना चाहिए, इसी में पूरी दुनिया की और हमारी आने वाली पीढ़ी की भी भलाई है। उसकी इसी भूल का अहसास करवाने आई है यह महामारी। इस महामारी ने हमें नए सिरे से अपने कृत्यों पर विचार करने का अवसर उपलब्ध कराया है।
ऐसा नहीं है कि कोरोना आने से पहले इस दुनिया में लोग मर नहीं रहे थे। कोरोना से पहले भी लोग मर रहे थे और कोरोना खत्म हो जाने के बाद भी मरेंगे, क्योंकि कोरोना के साथ इंसान के लालच का शायद ही अंत हो। कोरोना से पहले जो लोग मर रहे थे वे खुद इंसान की आधुनिकता के आडंबर और विकास का जो सपना दुनियाभर की सरकारों ने अपनी जनता को दिखाया था उसके कारण मर रहे थे। दूसरे शब्दों में कहें तो इंसान के कभी कम न होने वाले लालच का शिकार हो रहे थे। और यह इंसानी लालच जितने बड़े पैमाने पर जीवन को लील रहा है उतने बड़े पैमाने पर तबाही मचाने के लिए कोविड-19 जैसे हज़ारों वायरस भी कम पड़ेंगे।
यदि आपको मेरी इस बात पर यकीन न आ रहा हो तो मैं चंद सरकारी आँकड़े आपकी खिदमत में पेश किए देता हूँ जिनसे आपको पता चल जाएगा कि इंसानी लालच किस अनुपात में लोगों की जानें ले रहा है:
मध्यप्रदेश में कुपोषण से होने वाली मौतों के आँकड़े- मध्यप्रदेश के महिला एवं बाल विकास विभाग के आँकड़ों के अनुसार प्रदेश में जनवरी 2016 से जनवरी 2018 के बीच करीब 57,000 बच्चों ने कुपोषण के चलते दम तोड़ दिया। मध्यप्रदेश में हर रोज़ 92 बच्चों की मौत कुपोषण के चलते होती है। जबकि सरकार हर साल करोड़ों-अरबों रुपये खर्च करती है कुपोषण मिटाने के लिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये पैसे किसके लालच की भेंट चढ़ जाते हैं।
किसानों की आत्महत्या से जुड़े आँकड़े: नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकॉर्ड (NCBR) ने ‘एक्सीडेंटल डेथ्स और सुसाइड’ नामक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2016 में 11 हज़ार 379 किसानों ने आत्महत्या की थी। यानी हर महीने 248 और हर दिन 31 किसानों ने अपनी जान दी। जबकि हर साल हज़ारों करोड़ रुपये किसानों और खेती की दशा सुधारने के लिए खर्च किए जा रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये हज़ारों करोड़ किसके लालच की भेंट चढ़ जाते हैं।
दहेज हत्या संबंधी आँकड़े: हर घंटे एक महिला की दहेज हत्या। तीन साल में करीब 25 हज़ार मौतें। तब भी दहेज लोभियों का कोई अंत होता नज़र नहीं आता।
दंगों के आँकड़े : हाल ही में दिल्ली में हुई हिंसा पिछले 18 साल में देश का तीसरा सबसे बड़ा सांप्रदायिक दंगा था। सन 2004 से 2017 के बीच देश में 10399 दंगे हुए, जिनमें 1605 लोगों की जानें गईं। इससे पहले 2002 में हुए गुजरात दंगों में 2000 से ज़्यादा लोगों की जानें गई थीं। सब जानते हैं कि दंगे होते नहीं हैं बल्कि कराए जाते हैं। सत्ता और शक्ति के लालची लोगों द्वारा।
वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों के आँकड़े: संयुक्त राष्ट्र के अनुसार वायु प्रदूषण से हर साल 70 लाख लोगों की मौत होती है। वायु प्रदूषण दुनियाभर में तेजी से बढ़ रहा है, खासतौर पर भारत जैसे तेजी से विकसित (!) हो रहे देशों में। यही वजह है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है और यह महामारी का रूप लेता जा रहा है। इंसान की बेलगाम महत्वाकांक्षा ने, उपभोग की कभी न मिटने वाली भूख ने केवल वायु ही नहीं बल्कि प्रकृति के हर अवयव को बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है। विकास के लालच में हम विनाश को आमंत्रित करते जा रहे हैं।
कीटनाशकों से होने वाली मौतों के आँकड़े: मार्च 2018 में संसद में एक सवाल के जवाब में तत्कालीन कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह का कहना था कि 2014-15 और 2018-19 के बीच अकेले महाराष्ट्र में ही 272 किसानों की मौत कीटनाशकों के कारण हुई। इन्हीं कीटनाशकों की वजह से हमारी मिट्टी, पानी और हवा सब ज़हरीले हो रहे हैं, हमारी फसलों और पेड़-पौधों में ज़हर भर रहा है, किसानों और उनके मवेशियों के मरने और बीमार होने की घटनाएँ सामने आ रही हैं और देश की जनता ज़हरयुक्त अनाज खाने को मजबूर है। और यह सब हो रहा है ज़्यादा से ज़्यादा पैदावार करके ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाने की इंसानी हवस के चलते।
सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों के आँकड़े: सड़क दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या से चिंतित सुप्रीम कोर्ट को यहाँ तक कहना पड़ा कि देश में इतने लोग सीमा पर या आतंकी हमले में नहीं मरते जितने सड़कों पर गड्ढों की वजह से मर जाते हैं। पिछले एक दशक में ही भारत में लगभग 14 लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए हैं।
व्यसनों से होने वाली मौतों के आँकड़े : दुनियाभर में हर साल 70 लाख लोग और भारत में हर दिन करीब 2739 लोग तंबाकू व अन्य धूम्रपान उत्पादों के कारण कैंसर व अन्य बीमारियों से दम तोड़ देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया भर में हर साल 30 लाख लोग शराब पीने की वजह से मर जाते हैं। लेकिन कोई भी सरकार शराब, सिगरेट, बीड़ी, तंबाकू तथा गुटखे पर प्रतिबंध नहीं लगाती, या लगाती भी है तो केवल दिखावे के लिए। क्यों? क्योंकि इन चीज़ों से उन्हें सर्वाधिक राजस्व प्राप्त होता है, इन्हीं चीज़ों से नेताओं और अफसरों की कमाई होती है।
एक स्टडी के मुताबिक हर साल शुगर युक्त ड्रिंक्स की वजह से दुनिया भर में 1 लाख 84 हज़ार लोगों की मौत हो रही है। लेकिन इन पेय पदार्थों को बनाने वाली लालची कंपनियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
तो मेरे प्रिय देशवासियो और 4500 से ज़्यादा पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों के कर्मठ सदस्यो! मेरा विचार है कि इतने आँकड़े काफी हैं आपको यह बताने के लिए कि किस तरह देश और दुनिया में लोग कोरोना से पहले भी मर रहे थे और कोरोना के बाद भी तब तक मरते रहेंगे जब तक इंसान का लालच जि़ंदा है। अभी तो हमने बहुत से आँकड़े प्रस्तुत किए ही नहीं हैं, जैसे कि घरेलू हिंसा, शोषण, चुनावी हिंसा इत्यादि में मारे जाने वाले लोगों तथा परीक्षा परिणाम आने के बाद बच्चोंं द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं संबंधी आँकड़े। इसके अलावा औद्योगिक दुर्घटनाओं तथा बेवजह के युद्धों में मरने वाले निर्दोषों के आँकड़े। और भी जाने कितने आँकड़े हैं जिनका समावेश यहाँ नहीं किया गया है। लेकिन जितने भी आँकड़े यहाँ दिए गए हैं यदि उनसे आपके पैरों के नीचे की ज़मीन नहीं खिसकती तो आपकी गिनती ‘इंसान’ में नहीं बल्कि ‘लालची इंसान’ में होगी इतना आप समझ लीजिए।
वैसे तो विश्व में महामारियाँ बहुत सी आयी हैं परंतु पहली बार किसी महामारी ने पूरी दुनिया को ‘लॉकडाउन’ किया है। और इसी से आम जनता और सब सरकारों को सबक लेने की ज़रूरत है। ये सारे आँकड़े इसीलिए पेश किए हैं ताकि आप जान सकें कि विश्व भर की सरकारें वास्तव में जनता की कितनी शुभचिंतक और देखभाल करने वाली सरकारें हैं। चाहे सरकार किसी भी देश की हो या प्रदेश की, इन्हें हमसे ज़्यादा हमारे द्वारा दिए जाने वाले टैक्स रूपी पैसों से सरोकार है, बाकी ये जो घोषणाएँ करते हैं वे सब दिखावा हैं। अगर इनको जनता की जान की इतनी ही फ्रिक है तो क्यों नहीं उस शराब पर प्रतिबंध लगा देते जिसकी वजह से दुनिया भर में हर साल 30 लाख लोगों की मौत हो जाती है? तो फिर शराब को भी महामारी घोषित क्यों नहीं कर देते? आखिर कुपोषण को इतने हल्के में क्यों लेती है सरकार? अगर आप गणित में कमज़ोर नहीं हैं तो खुद देख सकते हैं कि पिछले 3 महीनों में कोरोना ने उतनी जानें ली नहीं हैं जितनी बचाई हैं। कोरोना से उस अनुपात में मौतें हो ही नहीं रहीं बल्कि उल्टा कोरोना की वजह से जो लॉकडाउन पूरी दुनिया में हुआ है उससे इंसान के साथ-साथ इस पूरी दुनिया को चलाने वाली प्रकृति को भी काफी फायदा पहुँचा है।
कोरोना वायरस की वजह से पूरे देश में लगाए गए लॉकडाउन से भले ही देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ रहा हो लेकिन पूरा देश प्रदूषण मुक्त हो रहा है। नदियाँ साफ हो रही हैं। हिमालय जालंधर से दिख रहा है। हरिद्वार में गंगा का पानी पीने लायक हो गया है। मतलब यह है कि लॉकडाउन से पूरा देश ही नहीं अपितु पूरा विश्व साफ हवा में साँस ले रहा है। इसकी पुष्टि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी की है।
अब आप देखिए कि गंगा सफाई के लिए सरकारों ने कितने प्रयत्न किए और 20 हज़ार करोड़ से भी ज़्यादा पैसा गंगा को साफ करने पर बहा दिया परंतु इन लालची इंसानों से गंगा साफ नहीं हुई। परंतु कोरोना के डर से जो लॉकडाउन हुआ उससे गंगा 60 दिन में ही साफ हो गयी और पैसा भी नहीं लगा। उल्टा कोरोना ने तरीका भी बता दिया कि किस प्रकार प्रशासन चलाना चाहिए जिससे प्रकृति को बिना नुकसान पहुँचाए भी आर्थिक गतिविधियाँ जारी रह सकें। यदि प्रकृति को फायदा हो रहा है तो कहीं न कहीं वह फायदा इंसान को ही हो रहा है। यदि नदियाँ साफ हो रही हैं तो उसके साफ पानी का उपयोग इंसान ही तो करेगा। यदि वायु प्रदूषण कम हो रहा है तो इस शुद्ध वायु का उपयोग भी तो इंसान ही करेगा न, जिससे वह बीमार भी नहीं पड़ेगा। यदि भारी-भरकम यातायात में कटौती हुई है तो इससे उन सड़क दुर्घटनाओं में भी तो कमी आई है जिनमें लाखों-करोड़ों लोगों की जान चली जाती थी। तो इससे भी फायदा इंसान को ही तो हुआ। यदि लॉकडाउन से शराब की ब्रिकी पर रोक लगी और शराब के सेवन से होने वाली बर्बादी रुकी तो इससे भी फायदा इंसान को ही तो हो रहा है।
कोरोना के डर से जो लॉकडाउन हुआ उससे विश्वभर में होने वाले ऐसे सभी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, खेलकूद संबंधी, चुनावी आयोजनों संबंधी, दिवस एवं जयंतियाँ मनाने संबंधी तथा अन्य बाज़ार आधारित आयोजन बंद हो गए जिनमें बेतहाशा समय और पैसा खर्च होता था तथा प्रकृति को भी काफी नुकसान पहुँचता था। इस प्रकार कोरोना ने हमें हमारी वास्तविक आवश्यकताओं से परिचित कराया है और यह दिखाया है कि किसी भी प्रकार की फिजूलखर्ची किए बगैर भी जीवन गुज़र सकता है, बशर्ते आप में दृढ़ निश्चय और संयम हो। हाँ, लॉकडाउन से आर्थिक नुकसान हुआ है परंतु क्या आर्थिक नुकसान इंसान की जान से बढ़कर है? यदि आपकी जान ही नहीं रहेगी तो फिर यह आर्थिक फायदा आपके किस काम का? अभी विश्व की महाशक्तियाँ -अमेरिका, रूस तथा फ्रांस- कोरोना से सबसे ज़्यादा पीडि़त हैं। ये देश, जो भौतिक संपन्नता के मामले में सबसे आगे हैं, अपने देशवासियों को कोरोना के कारण मरने से नहीं बचा पा रहे हैं। अमेरिका में तो मौतों का आँकड़ा 1 लाख पार कर गया है। तो सोचिए कि इतना पैसा और इतनी ताकत किस काम की यदि हम अपने ही लोगों को अपने सामने मरते हुए देख रहे हैं।
यदि जि़म्मेदार लोग थोड़ी सी सावधानी और ठंडे दिमाग से अपनी जि़म्मेदारी निभाते तो कोरोना वायरस का इतना हल्ला भी नहीं होता और अर्थव्यवस्था की हालत भी इतनी बुरी नहीं होती। वास्तव में कोरोना हमें यही संदेश देने के लिए आया है कि जितनी आवश्यकता हो उतना ही उपभोग करो और फिजूल की विस्तारवादी सोच को त्याग दो। लालच छोड़ दो और ‘जियो और जीने दो’ वाली सोच को अपने जीवन में उतार लो यही इस महामारी का मूलमंत्र है। कोरोना आज नहीं तो कल चला ही जाएगा, परंतु यदि हमने इस कठिनाई भरे समय से भी सीख नहीं ली तो प्रकृति हमें आगे इससे भी भयंकर महामारियाँ देने को तैयार रहेगी। कोरोना और लॉकडाउन प्रकृति की ओर से भविष्य में आने वाली परेशानियों का इशारा मात्र हैं और प्रकृति कह रही है कि मुझे बेवजह परेशान मत करो, क्योंकि मेरे कल्याण में ही विश्वभर के इंसानों का भला छुपा है, इसी में मानव जाति और आने वाली पीढिय़ों की भलाई है। खतरनाक कोरोना नहीं बल्कि हमारा ज़रूरत से ज़्यादा लालच है।
चलिए अब इस पर भी बात कर लेते हैं कि कोरोना से बचाव कैसे संभव है। डॉक्टरों द्वारा कहा जा रहा है कि जिन लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर है उनको कोरोना वायरस बहुत ही जल्द दबोच लेता है जबकि मज़बूत रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों पर यह थोड़ा कम असरकारक है। जैसा कि विदित है कि यदि आप शारीरिक रूप से कमज़ोर हैं या किसी प्रकार का नशा करते हैं या अशुद्ध चीज़ों का सेवन करते हैं या मिलावटी चीज़ों के सेवन के आदी हो गए हैं या फिर आपने शारीरिक श्रम करना छोड़ ही दिया है और पूरी तरह से मशीनों पर निर्भर हो गए हैं तो ऐसी स्थिति में आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम हो जाएगी और किसी भी रोग से लडऩे की क्षमता आपके शरीर में नहीं बचेगी। अपने भीतर रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आपको दो-तरफा प्रयास करने होंगे। पहला, आपको अपनी जीवन-शैली को श्रम आधारित बनाना होगा। आपको अत्यधिक सुविधाभोगी बनने से बचना होगा। आपको हर बात के लिए मशीनों पर निर्भर रहना छोडऩा होगा। आपको पैसा कमाने की होड़ में शरीर व स्वास्थ्य को नज़रअंदाज़ करना बंद करना होगा। आपको व्यसन-मुक्ति की दिशा में बढऩा होगा। आपको प्रकृति को संरक्षित करने में योगदान करना होगा। दूसरी बात यह कि आपको अपने खानपान पर ध्यान देना होगा। आपको रासायनिक खाद व कीटनाशकों से उपजाए गए विषैले भोजन की बजाए प्राकृतिक तरीके से उगाई गई चीज़ों को अपनाना होगा। आपको स्थानीय और मौसमी भोज्य पदार्थों को बढ़ावा देना होगा। आपको यह समझना होगा कि आप कुछ भी खाकर भीतर से मज़बूत नहीं रह सकते। आपको इस बात पर ध्यान देना होगा कि आप जो खा रहे हैं वह कहाँ और कैसे उपजाया गया है।
यहाँ एक बात किसान भाईयों के लिए भी। अब विश्वभर की जनता को अपने खान-पान पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। इस नाते हम किसानों की यह जि़म्मेदारी बन जाती है कि हम रासायनिक खादों और कीटनाशकों वाली खेती छोड़कर ज़हरमुक्त अनाज, फल, मसाले और सब्जियाँ उगाएँ और वाजिब दामों पर सभी को उपलब्ध कराएँ, तभी सही मायने में हम धरतीपुत्र कहलाएँगे। सबसे पहले हमें अपना लालच छोडऩा होगा, तभी इस धरती से इंसानी लालच के अंत की शुरुआत हो सकेगी।
आखिर में बस इतना ही निवेदन है कि कोरोना के कारण जो लॉकडाउन हुआ है उसी में आने वाले भविष्य की संभावना छुपी है और इस वर्तमान दौर से हम बहुत कुछ सीखकर भविष्य में अपनी आने वाली पीढिय़ों का जीवन आसान बना सकते हैं। हम सबको अबसे अपने खान-पान की शुद्धता पर ध्यान देना है और ज़हरयुक्त चीज़ों से तौबा करना है। फिजूलखर्ची और आडंबरपूर्ण उत्सवों व सामाजिक कार्यक्रमों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। हमें कम सुविधाभोगी बनना है और प्रकृति के नियम अनुसार ही चलना है। लालच नहीं करना है। स्थानीय स्तर पर ही रोज़गार सृजन करना है। स्थानीय स्तर पर एक नयी अर्थव्यवस्था की नींव रखनी है ताकि फिर भविष्य में कोरोना जैसी किसी महामारी की यदि मार पड़े भी तो हम इस प्रकार से किसी परेशानी में न उलझें।
पवन नागर, संपादक