आलेख

जल-जीवन मिशन: भूमिका बदलने की ज़रूरत

जल-जीवन मिशन: भूमिका बदलने की ज़रूरत

हर परिवार को नल से जल।
भारतीय जनता पार्टी के घोषणा-पत्र में घोषित ‘जल-जीवन मिशन’ का लक्ष्य यही है। ज़ाहिर है कि अब यह हमारी मौजूदा केन्द्रीय सरकार का लक्ष्य बन गया है। इस लक्ष्य को हासिल करने की समय-सीमा वर्ष 2024 रखी गई है। एक नज़र से देखें तो यह सपना प्रभावित करता है। इस सपने और लक्ष्य के पक्ष में कई तर्क हो सकते हैं।

पक्ष
धरती के नीचे का पानी तेजी से नीचे उतर रहा है। प्रदूषित भूजल के इलाकों की संख्या भारत में तेजी से बढ़ रही है। लिहाज़ा पेयजल की उपलब्धता और गुणवत्ता का संकट भी तेजी से ही बढ़ रहा है। फरवरी से जून महीनों के दौरान कई इलाकों में पीने के पानी के लिए टैंकर पर निर्भर रहना पड़ता है। कहीं-कहीं पीने योग्य पानी के स्त्रोत दूर हैं, वहाँ पानी पाने के लिए लंबी दूरी तक चलकर जाना पड़ता है, बोझ को कमर, सिर या साईकिल पर ढोकर लाना पडऩा है। लोग ऐसे गाँवों में अपनी बेटी की शादी नहीं करना चाहते जहाँ दूर से पानी ढोने के काम औरतों के जि़म्मे हैं। संभव है कि कई लड़कियाँ सिर्फ इसीलिए स्कूल न जा पाती हों। कई इलाकों के भूजल में भारी धातु तत्व, फ्लोराइड, नमक तथा आर्सेनिक जैसे ज़हर की उपस्थिति लोगों को बीमार बना रही है। उनके पास कोई विकल्प नहीं है, सिवाय इसके कि वे पानी साफ करने की मशीनें लगाएँ अथवा बाज़ार से पानी खरीदने में पैसा गँवाते रहें।

तर्क दिया जा सकता है कि यदि हर परिवार को नल से जल पहुँचा दिया जाए, तो इन सब परेशानियों से निजात मिल जाएगी। अत: यह किया जाए। जितना बजट चाहिए हो, दिया जाए।

प्रतिपक्ष
इस सपने के प्रतिपक्ष में भी तर्कों की कमी नहीं। पूछा जा सकता है कि जहाँ-जहाँ नल पहुँच गए, क्या वहाँ-वहाँ के नलों में हम पर्याप्त पानी पहुँचा पा रहे हैं?

जो पानी पहुँच रहा है, क्या उसकी गुणवत्ता ऐसी है कि उसे सीधे पीया जा सकता है?

हर घर में नल से जल वाली दिल्ली में पीने के पानी के लिए बाज़ार पर निर्भरता घटने की बजाए बढ़ क्यों गई है?

इन प्रश्नों के पक्ष में दिल्ली, बैंगलौर, चेन्नई, हैदराबाद, मुंबई, भोपाल, जयपुर, शिमला जैसी राजधानियों से लेकर टिहरी, गैरसेण जैसे पहाड़ी इलाकों तक की सूची को सामने रखकर कहा सकता है,

”जनाब! जब मूल स्त्रोत में पानी होगा, तब तो नल से जल पिलाओगे।”

सूखती केन को सामने रखकर यही सवाल केन-बेतवा नदी जोड़ के भरोसे बुंदेलखण्ड को पानी पिलाने का दावा करने वालों से भी किया जा सकता है।

नगरों तथा भौगोलिक विषमता के चलते पहाड़ी इलाकों के हर परिवार को नल से पानी पहुँचाने की आवश्यकता को एक बारगी मंजूऱ कर भी लिया जाए, तो मैदानी गाँवों के संदर्भ में तर्क दिया जा सकता है कि पाइप से पानी की उपलब्धता लोगों को पानी के मामले में पराधीन बनाती है।

पाइप से पानी मिलने लगता है तो लोग पानी की स्वावलंबी व्यवस्था के बारे में सोचना और करना… दोनों बंद कर देते हैं। इसका तिहरा नु$कसान होता है।

पहला, स्त्रोत तथा आपूर्ति प्रणाली को दुरुस्त रखने की सारी जि़म्मेदारी जलापूर्ति करने वाले निकाय पर आ जाती है। दूसरा, जल की सहज उपलब्धता के कारण उपभोक्ता उसकी कीमत सिर्फ बिल में दिए पैसे से लगाता है। जिसकी जेब में जितना बिल वहन करने की क्षमता है, वह उतने जल के उपभोग व बर्बादी को अपना अधिकार समझने लगता है। दूसरी ओर, जिसके पास बिल देने के लिए पैसे नहीं हैं उसके पानी का कनेक्शन काट दिया जाता है। तीसरा, अनुभव यह है कि जल-आपूर्ति करने वाले निकाय को कई बार जान-बूझकर नाकारा बना दिया जाता है ताकि जलापूर्ति को निजी कंपनियों को सौंपा जा सके। इस तरह जल के मूल स्त्रोत के उपयोग के अधिकार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कंपनी के हाथों में चले जाते हैं। कंपनी इस अधिकार का दुरुपयोग बेलगाम मुनाफा कमाने में करती है। जीवन के लिए जल ज़रूरी है यह मानकर ही संवैधानिक तौर पर जलाधिकार को जीवन के अधिकार से जोड़कर देखा जाता है। बोलीविया समेत दुनिया के कई घटनाक्रम गवाह हैं कि इस अधिकार में कंपनियों के हस्तक्षेप का नतीजा अराजक सिद्ध हुआ है।

पानी चाहे पाइप से पहुँचाया जाए अथवा नहरों से, जलापूर्ति के इस तंत्र की एक कमज़ोरी यह भी है कि जितना पानी उपयोग में नहीं आता, उससे ज़्यादा बर्बाद हो जाता है। भारत की नहरी सिंचाई व्यवस्था के प्रभावी उपयोग का आँकड़ा मात्र 15 से 16 प्रतिशत का है। पाइप के ज़रिए मूल स्त्रोत से नल तक पानी पहुँचाने के रास्ते में 40 प्रतिशत तक पानी रिसकर बह जाने का आँकड़ा है। नदी जोड़ की परियोजनाओं में इस रिसाव का $खतरा कई गुना होगा।

बाँधों और सिंचाई परियोजनाओं के बूते आर्थिक समृद्धि हासिल करने वाला महाराष्ट्र आज पानी के लिए सबसे अधिक जूझता राज्य है, बावजूद इसके हम बाँधों, नहरों और पाइपों पर आधारित नदी-जोड़ परियोजना को लागू करने की जि़द छोड़ नहीं रहे। क्यों?

गौर कीजिए कि सिंचाई तंत्र तथा बाँधों के लिए वर्ष 2011 तक 07 लाख करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। ‘जल-जीवन मिशन’ की लक्ष्य प्राप्ति के लिए जल-बजट में और अधिक वृद्धि की बात चर्चा में आ रही है।

पूर्व सचिव, जल संसाधन शशि शेखर का बयान आया है कि बजट बढ़ाने से ज़्यादा ज़रूरत पानी के प्रभावी उपयोग की है।

पूछा जा सकता है कि जब तक हम पाइप से पानी पहुँचाने के मामले में पूरी तरह लीकप्रूफ नहीं हो जाते, तब तक क्या हमें पाइप से पानी पहुँचाने का अतिरिक्त ढाँचा बनाने के बारे सोचना चाहिए? अपने या औरों के घर की टंकी हो या कोई सार्वजनिक टूटा नल, बेकार बहते पानी को देखकर जब तक हममें से प्रत्येक के भीतर उसे रोकने की बेचैनी, साहस और तमीज पैदा नहीं हो जाती, क्या तब तक मैदानी गाँवों को हर घर में नल के सपने से दूर नहीं रखना चाहिए?

किसी एक इलाके के हिस्से का पानी ले जाकर किसी दूसरे इलाके को देना अनैतिक है। जल-बँटवारों के विवाद पहले से हैं। पाइप से पानी को बढ़ावा देने से पानी के झगड़े और अधिक बढेंग़े।

ऐसे में पूछा जा सकता है कि हर घर को नल से जल की राह में इतनी विषमताएँ हैं तो क्या ज़रूरी है कि हम इस राह चलें? कम से कम मैदानी गाँवों के मामलों में क्या यह उचित नहीं कि ग्राम्य पेयजल स्वावलंबन की दृष्टि को लक्ष्य बनाएँ?

भारत के सबसे कम वर्षा वाले जिले जैसलमेर की रामगढ़ तहसील के इंतज़ाम को सामने रखकर दावा किया जा सकता है कि हर इलाके के सिर पर पर्याप्त पानी बरसता है; यदि हर इलाका अपने सिर पर बरसे पानी को संजो ले, तो ही उसके पीने के पानी का इंतज़ाम हो जाएगा।

यह एक ऐसा बिंदु है जिस पर आकर पाइप से पानी पहुँचाने के पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच समझौता संभव है, बशर्ते एक शर्त मान ली जाए। तय हो कि अपने नल में अपना पानी ही आएगा, अर्थात नल भी अपना, पाइप भी अपनी, पानी की आपूर्ति का मूल स्त्रोत भी अपना तथा स्त्रोत व आपूर्ति… दोनों का प्रबंधन भी अपने हाथ ही हो। दूसरे इलाके के स्त्रोत से पानी खींच कर लाने पर पूर्ण प्रतिबंध होगा।

आप पूछ सकते हैं कि क्या यह व्यावहारिक है? हाँ, यह व्यावहारिक भी है, लीक पू्रफ  भी है और संभव भी है, क्योंकि भारत का पेयजल-संकट पर्यावरणीय कम और गवर्नेन्स से जुड़ा संकट ज़्यादा है।

केन्द्र सरकार के मुखिया के तौर पर प्रधानमंत्री श्री मोदी ने ‘न्यू इण्डिया’ का सपना सामने रखा है। हर परिवार को नल से जल इसी ‘न्यू इण्डियाÓ के सपने का हिस्सा है। यदि हम चाहते हैं कि ‘न्यू इण्डिया’ सचमुच पानीदार हो तो सबसे पहला कदम प्रधानमंत्री स्वयं उठाएँ; गौर करें कि पानी राज्य सरकारों के निर्णय और निर्वहन का विषय है। केन्द्र सरकार की भूमिका सिर्फ तकनीकी और वित्तीय सहायक की है। केन्द्र सरकार को चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय एवं अंतरराज्यीय प्रवाहों तथा केन्द्र शासित क्षेत्रों को छोड़कर अन्य जल-प्रवाहों व जल-संरचनाओं के प्रबंधन मामलों में वह अपने-आपको सिर्फ और सिर्फ तकनीकी और वित्तीय सहयोगी की भूमिका तक ही सीमित करे।

राज्य सरकारें गौर फरमाएँ कि सरकारों का एक तीसरा स्तर भी होता है; गाँव और नगर के स्तर पर ‘लोकल सेल्फ  गवर्नमेन्ट’ यानी ‘स्थानीय स्व सरकार’, अर्थात स्थानीय गाँव सरकार तथा स्थानीय नगर सरकार। अब सभी राज्य सरकारों को भी चाहिए कि वे ‘स्थानीय स्व-सरकार’ के संवैधानिक दर्जे का सम्मान करें। पेयजल ही नहीं अपितु गाँव स्तर पर संपूर्ण जल-प्रबंधन तथा जल-स्वच्छता की समग्र, स्वावलंबी एवं समयबद्ध कार्य-योजना बनाने तथा उसे क्रियान्वित करने का संपूर्ण दायित्व एवं आर्थिक-तकनीकी-प्रशासनिक अधिकार संबंधित जल संबंधी वार्ड समितियों को सौंप दें। उनकी जल-संरचनाओं के स्थान का चयन, डिज़ाइन, निर्माण सामग्री तथा प्रक्रिया उन्हें स्वयं तय करने दें। उन्हें तय करने दें कि वे अपने गाँव में नल से आया पानी पीना चाहते हैं अथवा कुँओं, हैण्डपंपों व तालाबों से लाया हुआ।

ऐसा करने हेतु जल स्वावलंबन प्रस्ताव-2019 में शामिल 21 नीतिगत निर्णय अपेक्षित हैं। कृपया जल स्वावलंबन प्रस्ताव-2019 के प्रत्येक बिंदु पर गंभीरता से विचार करें। मुझे यकीन है कि भारतीय जल प्रबंधन की मौजूदा कमियों से पार पाने की दिशा में यह क्रांतिकारी कदम होगा। तय मानिए कि जल प्रबंधन के इस व्यवस्था बदलाव से सरकार का बोझ घटेगा तथा जिसे पानी पीना है, उसकी हकदारी और जवाबदारी बढ़ेगी। बिना तैयारी के किया गया रचनात्मक कार्य भी विध्वंसक सिद्ध होता है। लिहाज़ा राज्य सरकारें इसे पूर्ण प्रचार, प्रशिक्षण तथा पूर्व तैयारी के साथ करें। इससे जल-जीवन का मिशन भी पूरा होगा और संसदीय लोकतंत्र को पंचायती लोकतंत्र की दिशा में ले जाने का संवैधानिक संकल्प भी।

जल-स्वावलंबन प्रस्ताव-2019
प्रस्तावक: अरुण तिवारी

मूल विचार
भूजल स्तर में लगातार होती गिरावट परावलंबी जलापूर्ति, पानी के बाज़ार, पलायन तथा अशांति को प्रोत्साहित करती है। सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय दृष्टि से यह प्रतिकूल परिस्थिति होती है। इसे रोकने के लिए ज़रूरी है कि भारत का प्रत्येक गाँव, खण्ड, जिला व नगर पानी के मामले में स्वावलंबी हो।

प्राथमिक लक्ष्य
प्रकृति के पर्यावरणीय संवद्र्धन तथा प्रत्येक जीव के जीवन व आजीविका हेतु आवश्यक भूजल-सुरक्षा तथा तद्नुसार गुणवत्ता मानकों को हासिल करना।

प्राथमिक लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रस्तावित एवं राज्य सरकारों से अपेक्षित 21 नीतिगत निर्णय

  1. समस्या का निवारण समस्या के मूल कारणोंं में स्वत: निहित होता है। अत: भूजल गिरावट के दुष्प्रभावों से निपटने हेतु जलापूर्ति, नहरीकरण, नदी जोड़ अथवा अन्य कोई विकल्प पेश करने की बजाए समस्या के मूल कारणों का निवारण ही प्राथमिकता हो।
  2. भूजल स्तर में गिरावट के संकट का मूल कारण भूजल-संचयन की तुलना में भूजल-निकासी का अधिक होना है। जल निकासी एवं संचयन में संतुलन स्थापित करने में जवाबदेही सुनिश्चित करने वाली नीति यह हो कि जिसने प्रकृति से जितना और जैसा लिया, वह प्रकृति को कम से कम उतना और वैसी गुणवत्ता का जल लौटाए।

यह नीति सिद्धान्तत: अपनी आजीविका अथवा धनार्जन हेतु पानी को अति आवश्यक स्त्रोत के रूप में उपयोग करने वाले सभी उपभोक्ता वर्गों पर लागू हो। सिंचाई एवं उद्योग, ये पानी के क्रमश: सबसे बड़े दो उपभोक्ता हैं। अत: यह नीति प्राथमिकता के तौर पर सर्वप्रथम इन दो वर्गों के उपभोक्ताओं पर लागू की जाए। इनमें भी सबसे पहले बोतलबंद पानी, शीतल पेय, शराब आदि बनाने वाली उन कंपनियों पर लागू हो जो स्थानीय समुदाय के हिस्से का सतही/भूजल का अति दोहन कर पानी का ही पैसा बनाते हैं।

इस नीति का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए अनुशासन-प्रोत्साहन संबंधी शासनादेश जारी हों।

  1. विविध भूगर्भ-संरचना, विविध सामाजिक विन्यास और माँग के विविध स्तर व प्रकार पानी प्रबंधन के तौर-तरीकों में विविधता और विकेन्द्रित नियोजन तथा दायित्व पूर्ति की माँग करते हैं। अत: निर्णय, कार्य योजना निर्माण तथा क्रियान्वयन की जवाबदेही का तंत्र पूर्णतया विकेन्द्रित एवं स्वावलंबी हो।
  2. 73वें संविधान संशोधन ने ग्राम स्तरीय पंचायती तंत्र तथा 74वें संविधान संशोधन ने नगर स्तरीय निगम-तंत्र को ‘लोकल सेल्फ गवर्नमेंटÓ यानी ‘स्थानीय स्व-सरकार’ का दर्जा दिया है। यह दर्जा संवैधानिक है। इसी के अनुसार, ग्राम पंचायत/नगर निगम की परिधि में आने वाले साझे जल-स्त्रोतों तथा संसाधनों के प्रबंधन तथा आबादी को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने की जि़म्मेदारी ‘स्थानीय स्व-सरकार’ यानी ग्राम पंचायत/नगर निगम की है। इसके लिए प्रत्येक ग्राम पंचायत/नगर निगम में जल प्रबंधन संबंधी समिति का प्रावधान है। कृषि आदि संबंधित विषय इसी समिति के अधिकार क्षेत्र में हैं।

जम्मू-कश्मीर पंचायती अधिनियम में हल्का पंचायत (ग्राम पंचायत) को 21 विभागों से संबंधित कार्य, कर्मचारी तथा कोष सौंपने का प्रावधान पहले से है।

बिहार प्रदेश में पेयजल व्यवस्था को वार्ड समिति को सौंपने का निर्णय नवंबर, 2016 में पहले ही लिया जा चुका है।

अब सभी राज्यों को चाहिए कि प्रदेश शासन गाँव स्तर पर कम से कम ग्राम जल स्वच्छता एवं स्वावलंबन संबंधी विभागों के सभी कार्य, कर्मचारी तथा कोष सीधे-सीधे ग्राम पंचायतों की जल व स्वच्छता संबंधी वार्ड समितियों के अधीन करे।

समग्र एवं समयबद्ध कार्य-योजना बनाने तथा उसे क्रियान्वित करने का संपूर्ण दायित्व व आर्थिक-तकनीकी-प्रशासनिक अधिकार संबंधित वार्ड समिति के हों।

वार्ड समिति के कार्य को सुचारू व स्वावलंबी बनाने के मार्ग में जो भी प्रशासनिक, तकनीकी तथा आर्थिक बाधाएँ हों उन्हें समाप्त करने हेतु सतत सक्रिय रहें, निर्णय लें।

प्रदेश सरकार तथा स्थानीय प्रशासन स्वयं को सिर्फ प्रेरणा, क्षमता विकास, निगरानी, समीक्षा, समन्वय तथा माँग होने पर अन्य सहयोग की भूमिका में रखें।

इसी नीति का अनुसरण करते हुए प्रदेश सरकारें नगरीय जल स्वच्छता एवं स्वावलंबन हेतु नियोजन व समयबद्ध क्रियान्वयन का संपूर्ण दायित्व व आर्थिक-तकनीकी-प्रशासनिक अधिकार नगरीय स्व-सरकार अर्थात नगर पंचायतों/नगर-निगमों को सौंपें तथा स्वयं को व स्थानीय प्रशासन को प्रेरणा, क्षमता विकास, निगरानी, समीक्षा, समन्वय तथा माँग होने पर अन्य सहयोगी की भूमिका में रखें।

  1. जो प्रवाह एवं सतही जल-स्त्रोत अंतरग्रामीय, अंतरखण्डीय अथवा अंतर-जनपदीय हैं, इनसे संबंधित प्रबंधन कार्य संबंधी निर्णय के अधिकार तथा दायित्व तद्नुसार क्रमश: सीधे क्षेत्र पंचायत, जिला पंचायत/नगर पंचायत/नगर निगम तथा प्रदेश शासन के होते हैं। वे न सिर्फ बने रहें बल्कि अधिक प्रतिबद्धता के साथ ज़मीन पर उतारे जाएँ।
  2. बाध्यता हो कि प्रदेश की सभी ग्राम पंचायतें आपस में मिलकर आधिकारिक रूप से प्रत्येक न्याय पंचायत क्षेत्रवार भूजल-निकासी की एक समान अधिकतम गहराई तय करें, जिससे नीचे जाने की अनुमति सिर्फ लगातार पाँच साला सूखे से उत्पन्न आपात स्थिति में ही हो। यह गहराई ‘डार्क ज़ोन’ घोषित किए जाने के लिए तय गहराई से हर हाल में कम से कम 10 फीट कम ही हो। पालना नहीं करने पर संबंधित व्यक्ति के शासकीय योजना लाभ वापस लिए जा सकें तथा एक ग्राम सभा में 10 से अधिक व्यक्तियों द्वारा ऐसा करने पर ग्राम पंचायतों को वित्तीय आवंटन रोक दिया जाए।

इसी मौलिक नीति के आधार पर नगर-पंचायतें/नगर निगम/नगर पालिकाएँ भी अपने-अपने क्षेत्र में भूजल की अधिकतम एक समान गहराई तय करें।

  1. वित्तीय स्वावलंबन सुनिश्चित करने हेतु प्रावधान हों कि ग्राम पंचायतों/नगर निगमों/ नगर पालिकाओं को केन्द्रीय वित्तीय आवंटन में प्राप्त हिस्से के अलावा प्रारंभिक पाँच वर्षों तक आवश्यकता होने पर जलापूर्ति, सिंचाई, कृषि आदि मद के वित्त का एक उचित हिस्सा भी स्थानान्तरित किया जा सके। ग्राम पंचायत विकास योजना के चंदा, दान व सोशल दायित्व के कॉरपोरेट कोष से धन ले सकने का प्रावधान तो है ही।
  2. प्रदेश सरकारें एक अंतरजनपदीय नदी तथा वन/उद्यान को क्रमश: राज्य नदी तथा राज्य वन/उद्यान का दर्जा दें। जिला पंचायतें क्षेत्र पंचायतों की राय के आधार पर अपने-अपने जिले की एक-एक अंतरखण्डीय नदी या झील या तालाब तथा वन/उद्यान को क्रमश: जनपदीय नदी/जनपदीय झील तथा जनपदीय वन/उद्यान का दर्जा दें। दर्जे के सम्मान के लिए मानक भी खुद तय करें और मानकों की प्राप्ति हेतु त्रि-वर्षीय कार्य योजना बनाने, कब्ज़ा मुक्ति तथा उसके समयबद्ध क्रियान्वयन की जवाबदेही भी खुद ही लें।

इसी तरह क्षेत्र पंचायतें ग्राम पंचायतों की राय से अपने-अपने विकास खण्डों के अंतर-न्याय पंचायती स्तर के एक-एक जल ढाँचे तथा उद्यान/वन को लेकर दर्जा दें, मानक तय करें, मानकों की पूर्ति हेतु कार्य-योजना बनाएँ तथा उसका क्रियान्वयन करें।

इसी तर्ज पर ग्राम पंचायतें भी अपनी क्षेत्र सीमा के कम से कम एक तालाब को आदर्श तालाब तथा एक-एक आदर्श वन/उद्यान तथा आदर्श चारागाह का विकास करें।

  1. भूजल की दृष्टि से संकटग्रस्त क्षेत्र इस कार्य को विशेष प्राथमिकता देकर करें। उन्हें आवश्यकतानुसार अतिरिक्त वित्तीय सहयोग देने के लिए पूरी पारदर्शिता बरतते हुए स्थानीय कंपनी से कॉरपोरेट सोशल रिसपोन्सीबिलिटी फण्ड देने का शासकीय स्तर पर आह्वान एवं प्रोत्साहन व्यवस्था हो। यह धन सीधे क्रियान्वयन एजेन्सी को दिया जाए तथा यह सुनिश्चित किया जाए कि इस आर्थिक सहयोग की एवज़ में कंपनियाँ किसी व्यावसायिक लाभ की छूट अथवा सर्जित की गई जल-संरचना/वन/उद्यान के स्वामित्व अथवा उपयोग के अधिकार की माँग न करें।
  2. प्रदेश शासन राज्य की प्रत्येक नदी, जल संरचना तथा वन/उद्यान क्षेत्र की भूमि का चिह्नीकरण, सीमांकन तथा उसका भू-उपयोग अधिसूचित करे। ऐसी भूमि का भू-उपयोग बदलने की इजाज़त किसी को न हो।
  3. प्रदेश सरकार राज्य नदी के लिए जिन मानकों को तय करे उन्हें अंतरजनपदीय नदियों के लिए हासिल करने का भी समयबद्ध कार्यक्रम बनाए।
  4. प्रदेश सरकार अंतरजनपदीय नदी संवद्र्धन हेतु संबंधित नदियों को केन्द्र में रखते हुए उनके जलग्रहण क्षेत्र के प्रबंधन की परियोजना का निर्माण तथा क्रियान्वयन करे।
  5. उद्योगों को शोधित जल के पुनरोपयोग के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
  6. ताज़ा जल नदियों में जबकि शोधित जल नहरों में बहाने की नीति तय हो। ताज़ा जल धीरे-धीरे नदियों में बढ़ाते जाएँ और नहरों में घटाते जाएँ। नहरों में प्रवाह बनाए रखने के लिए शोधन पश्चात प्राप्त अतिरिक्त जल को नहरों में प्रवाहित करने को प्रोत्साहित किया जाए। प्रवाहित किए जाने वाले ऐसे शोधित जल की गुणवत्ता की निगरानी एवं नियंत्रण हेतु समितियाँ गठित हों। इन समितियों में संबंधित नहर उपभोक्ताओं के प्रतिनिधियों को बतौर निर्णायक अधिकार प्राप्त सदस्य शामिल किया जाए।
  7. कचरे को ढोकर ले जाना नैतिक एवं वैज्ञानिक पाप माना जाए। कचरे का निष्पादन उसके उपजने के स्त्रोत पर किया जाए।

इस नीति के अनुसार, सभी प्रकार की नई बसावटों में सीवेज पाइप तंत्र विकसित करने की बजाए मल उपजने के स्थान पर ही पर्यावरणीय दृष्टि से अनुकूल मल शोधन तकनीकों को अपनाना सुनिश्चित किया जाए।

  1. मौजूदा नगरीय जल-मल के शोधन का नया तंत्र विकसित करने की आवश्यकता होने की दशा में उसे नदी किनारे न करके क्षेत्रवार विकेन्द्रित तंत्र विकसित किया जाए। तदनुसार चार दीवारी वाले आवासीय, व्यावसायिक तथा औद्योगिक परिसरों को मुख्य सीवेज तंत्र से अलग किया जाए। ऐसे परिसरों में जल-मल निष्पादन की स्वयंसेवी तथा पर्यावरणीय दृष्टि से अनुकूल तकनीकों को अपनाना अनिवार्य किया जाए। इसके लिए विशेष प्रोत्साहन योजना हो। इस व्यवस्था को अपनाने की पहल सबसे पहले सरकारी परिसरों में हो।
  2. राज्य नदी तथा अंतरजनपदीय नदियों के लिए मानक तय करने तथा उनकी प्राप्ति की समग्र एवं समयबद्ध कार्य-योजना बनाने का काम भूजल, प्रदूषण, सिंचाई, जलापूर्ति, कृषि आदि से संबंधित विभाग मिलकर करें।

प्रेरणा, क्षमता विकास, क्रियान्वयन तथा सभी विभागों के बीच समन्वयन की निर्णायक भूमिका पूरी तरह किसी एक विभाग अथवा संस्थान की हो।

  1. ग्राम पंचायतों/नगर निगमों/नगर पालिकाओं को अपने-अपने स्तर की योजना बनाने तथा क्रियान्वयन हेतु जागरूकता, प्रेरणा एवं क्षमता विकास का कार्य पहले से मौजूद निम्नलिखित प्रशिक्षण संगठनों की भूमिका तय करते हुए किया जाए-

क) जल एवं मृदा प्रबंधन संस्थान
ख) जिला पंचायती राज संस्थान
ग) लोक प्रशासन एवं ग्रामीण विकास संस्थान
घ) राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय ग्रामीण विकास संस्थान
ड़) राज्य साक्षरता मिशन

जल प्रबंधन हेतु आवश्यकता होगी कि स्थानीय ग्राम पंचायतें तथा नगर निगम व पालिकाएँ अपने कार्य क्षेत्र के मौजूदा जल का लेखा-जोखा तैयार करें; माँग और उपलब्ध जलानुसार पेयजल, सिंचाई, कृषि उपज, जल संचयन तथा निकासी का नियोजन तैयार करें; तकनीकी व आर्थिक समझ के साथ-साथ क्रियान्वयन करने तथा निगरानी, अंकेक्षण व समीक्षा करने का कार्य भी करें।

(इस संबंध में जागृति, प्रेरणा, प्रशिक्षण, प्रोत्साहन तथा समन्वयन के कार्य अपने आपमें पूर्णकालिक तंत्र की माँग करते हैं। अत: उचित हो तो प्रत्येक प्रदेश सरकार विशुद्ध रूप से उक्त कार्यों हेतु प्रदेश जल संसाधन एवं प्रशिक्षण केन्द्र की भी स्थापना किए जाने पर विचार करे। इस केन्द्र का कार्य प्रशिक्षण एवं आवश्यकतानुसार शोध तो हो ही, साथ ही यहाँ पर प्रत्येक ग्राम पंचायत व नगर निगम क्षेत्र से लेकर राज्य स्तर की जल तथा उससे संबंधित योजनाओं/ परियोजनाओं की समस्त जानकारी उपलब्ध रहे। जानकारी प्रसार एवं दो तरफा संवाद हेतु वेबपोर्टल आदि तकनीकों का उपयोग हो।

विभिन्न विभागों के बीच समन्वयन का भी कार्य विशुद्ध रूप से इस केन्द्र की जि़म्मेदारी हो सकता है।

राज्य जल संसाधन एवं प्रशिक्षण केन्द्र के लिए पहले से मौजूदा संगठनों के जल विशेषज्ञों, प्रशिक्षकों तथा ज़मीनी अभियान संचालकों की सेवाएँ डेपुटेशन के आधार पर ली जा सकती हैं।

छ) उच्च शिक्षा संस्थानों के भूगोल, पर्यावरण व सिविल इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष के छात्र समूहों के लिए उनके क्षेत्र में स्थित एक ग्राम पंचायत की जल-बजटिंग करने, पंचायती क्षेत्र के भूगोल के अनुसार वर्षा जल संचयन के तरीके सुझाने, जल ढाँचों का स्थान चयन व तकनीकी डिज़ायन तय करने तथा उनकी लागत व जलसंग्रहण क्षमता का आकलन करने की परियोजना आवश्यक की जा सकती है।

छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए उन्हीं शिक्षा संस्थानों के भूगोल, पर्यावरण व सिविल इंजीनियरिंग प्राध्यापकों हेतु एक अंशकालिक ‘ग्राम्य जल प्रबंधन प्रशिक्षक प्रमाण-पत्र कोर्स’ तैयार किया जा सकता है।

इसी तर्ज पर स्वयंसेवी संगठनों व जल संबंधी वार्ड समिति सदस्यों तथा समाज कार्य विज्ञान व ग्रामीण विकास प्रबंधन के छात्रों हेतु ‘ग्राम्य जल प्रबंधन प्रेक्टिशनर्स कोर्स’  तैयार किया जा सकता है।

ग्राम पंचायतों को तकनीकी सलाह हेतु उक्त दोनों कोर्सेस के ज़रिए तैयार लोगों की अतिरिक्त सेवाएँ ली जाएँ। इसके लिए तकनीकी सलाहकारों का क्षेत्र पंचायतवार पैनल तैयार किए जाए।

ज) प्रशिक्षण में शामिल किए जाने वाले विषय निम्नलिखित हो सकते हैं :
वर्षा जलसंचयन- स्थान चयन, डिज़ायन एवं निर्माण तकनीक, नमी संरक्षण, हरीतिमा संरक्षण, नदी संरक्षण एवं नदी जलग्रहण क्षमता विकास। जल का अनुशासित उपयोग एवं पुनरोपयोग- तकनीक, शोधन एवं सावधानियाँ। प्रदूषण की रोकथाम- तकनीक एवं व्यवस्था। वार्ड समिति के अधिकार, दायित्व एवं कार्य-प्रणाली। आर्थिक प्रबंधन एवं कोष संचालन।

  1. नीति पूरे प्रदेश में एक साथ घोषित तो हो लेकिन ज़मीन पर उतारने की प्राथमिकता भूजल संकटग्रस्त इलाकों के अनुसार तय की जाए।
  2. नीतिगत निर्णयों को ज़मीन पर उतारने से पूर्व प्रदेश में वार्ड समितियों द्वारा किए गए कार्यों की समीक्षा तथा तदनुसार आवश्यक नीति व प्रावधानों में सुधार किया जाए।

भू-जलसंकट से अधिक दुष्प्रभावित क्षेत्रों की प्राथमिकता सूची बनाई जाए। उन्हें नीति क्रियान्वयन का सघन क्षेत्र मानकर प्रथम दो वर्ष इन्हीं क्षेत्रों पर ध्यान व धन केन्द्रित किया जाए।

समन्वयन, जन-जागरण, प्रशिक्षण, वित्तीय-तकनीकी सहयोग तथा निगरानी की जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु एकीकृत, निर्णायक एवं जवाबदेह व्यवस्था विकसित की जाए।

  1. नीतिगत निर्णयों की मंजूरी होने के बाद प्रथम एक वर्ष का समय पूरे प्रदेश में इसका व्यापक प्रचार करने, जल संबंधी वार्ड समितियों/नगर-निगमों की समितियों को जागरूक, प्रेरित तथा क्षमता विकास हेतु उन्हें प्रशिक्षित करने में लगाया जाए।.

लेखक: अरुण तिवारी
(पानी, ग्रामोत्थान एवम लोकतांत्रिक विकास के अंत:संबधों के अध्येता एवम लेखक)
146, सुंदर ब्लॉक, शकरपुर, दिल्ली-92
संपर्क: 09868793799
ई-मेल: [email protected]

Related Articles

One Comment

  1. योगेन्द्र कौशिक अजडावदा उज्जैन मध्यप्रदेश says:

    भाई साहब तिवारी जी, बहुत ही सही व्याख्या की है और यह बात हर माननीय मुख्यमंत्री जी तक पहूचाने की आवश्यकता है । हम यह बात ऊपर तक पहूचाने मे सार्थक प्रयास करेंगे ।
    पुनः बहुत-बहुत साधुवाद

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Close