गल्या का सपना
गल्या पावणा अमर्या बाबा के यहाँ वरसूद था। वरसूद यानी कि एक निश्चित रकम के बदले किसान के यहाँ साल भर काम करने वाला मज़दूर, जिसे खेती के साथ घर के काम भी करने होते हैं। ये वफादार वरसूद किसान के हाथ-पाँव होते हैं, जिनकी बदौलत उनकी खेती-बाड़ी चलती है। सही मायने में गल्या अमर्या बाबा के घर की रीढ़ था ।
वह मैली पट्टे की चड्डी पर मैला धोंगड़े [लट्ठे] का कमीज़ और सिर पर चौखाने वाला टॉवेल बाँधे रहता। सालभर उसका लगभग यही पहनावा होता। सुबह छह बजे हाजि़र हो जाता। फिर रात के नौ-साढ़े नौ को ही उसे छुट्टी मिलती थी। घर, खेत और खलिहान में काम की कमी नहीं थी। सत्रह काम थे। कभी-कभी काम जबरन पैदा कर लिए जाते ताकि गल्या को फुर्सत न मिले। अमर्या बाबा और उनकी पत्नी, जिसे वह ‘माय’ कहता था, उसे दम नहीं लेने देते। एक-न-एक काम में जोते रखते। गल्या यंत्रवत कठपुतली की तरह काम करता रहता। दिनभर पुकार लगी रहती- ”गल्या! ढोर छोड़… गल्या! ढोर चरय लाव… गल्या! ढोर होण ख पाणी पेवाड़ी लाव… गल्या! जा, खेत मँ वक्खर गेरी आव… गल्या! जा खेत मँ सी भारो उठय ला… गल्या! जा खळा मँ सी चारो ली आव।” (गल्या! ढोरों को छोड़…गल्या! ढोरों को चरा ला…गल्या! ढोरों को पानी पिला ला…जा खेत में बक्खर चला आ…जा खेत में से ग_र उठा ला…जा खलिहान में से चारा ले आ।) वह दिन भर घर, खेत और खलिहान एक किए रहता। जितना उसे दिया नहीं जाता था, उससे कई गुना अधिक वसूल किया जाता था। उन्हें उस पर ज़रा भी दया नहीं आती। जैसे गल्या मनुष्य न होकर जानवर या कोई निर्जीव चीज़ हो, जिसके साथ मनचाहा बर्ताव किया जा सकता हो।
गल्या पावणा का हुलिया कुछ ऐसा था कि उसे देखने वाले के सौन्दर्य-बोध को गहरा धक्का लगता था। रंग बबूल के खूटड़े-सा कालास्याह। गाल पिचके हुए। जबड़े की हड्डियाँ साफ-साफ उभरी थीं। दायीं आँख में फूला था। लगता था मानो उस आँख में एक कौड़ी फिट कर दी गई हो। चेहरे पर लाचारी सदा के लिए सवार हो गई लगती थी। वह अपनी उम्र से काफी बड़ा लगता था। निहायत कमज़ोर-सा, शायद बचपन से ही कुपोषित रहा था। उसके हाथ-पाँव पेड़ की टहनियों जैसे पतले-पतले थे। शरीर हड्डियों का एक चलता-फिरता ढाँचा लगता था। पतली झिल्ली-सी त्वचा जैसे ढाँचे पर चढ़ा दी गई हो। मानो शरीर का माँस गल गया हो। सीने की एक-एक पसली गिनी जा सकती थी। हाथ और पाँवों की नसें उभरी हुई थीं। दाँतों की जड़ें सड़ चुकी थीं। शायद कमज़ोर शरीर के कारण ही अमर्या बाबा को वह सस्ते में सपड़ (मिल) गया था।
गल्या पावणा को सौ रुपए महीने दिया जाता था- केवल सौ रुपए महीना। रोज के तीन रुपए तैंतीस-चौंतीस पैसे। तब मज़दूरी पाँच-छह रुपए रोज थी। ये रुपए भी उसे नगद कहाँ मिल पाते थे। इस या उस मद में कटते जाते थे। उस पर अमर्या बाबा का कुछ न कुछ लेना बना ही रहता। और यह अंतहीन सिलसिला था। वह कम से कम में काम चला लेता। वह अनाज-दाल-मिर्च वहीं से खरीद लेता था। अमर्या बाबा उसे मनमाफिक भाव से दाल-अनाज आदि देते। भाव अधिक और माप कम। उनके पास लेने के लिए अलग कांगण-चौकी (अनाज मापने के पुराने मापक)थी और देने के लिए अलग। देने वाली कांगण में तीन पाव अनाज जाता जबकि लेने वाली कांगण से सवा किलो अनाज आता। मतलब यह कि गल्या पावणा को मान लो एक किलो मक्का लेनी होती तो अमया बाबा उसे तीन पाव मक्का देते। इस तरह वे एक तरफ उसे भाव से मारते थे और दूसरी तरफ माप से।
इसके अलावा हिसाब में भी गड़बड़ कर देते थे। गल्या पावणा तो अंगूठा टेक था, वह हिसाब क्या रखता। हिसाब रमेश के पिता अमया बाबा ही रखते। वे एक कॉपी में उसका हिसाब लिखकर रखते थे और गल्या को मनचाहा हिसाब बता देते थे। निरीह गल्या पावणा स्वीकृति में ‘हव’ (हाँ) कह देता था। ‘ना’ शब्द उसके शब्दकोश में नहीं था। वह अमर्या बाबा के बताए हिसाब में कभी भी मीन-मेख नहीं निकालता था। बहुत भला और भोला था और पूरी दुनिया को अपने जैसा ही समझता था, अमर्या बाबा को भी।
अमर्या बाबा उसे ठग रहे थे। पर वह उन पर आँख मूँदकर विश्वास करता जा रहा था। उसकी अंध भक्ति अमर्या बाबा के अनुकूल थी। वे उसे बराबर भरोसा दिलाते रहते थे कि वे उसके हितैषी हैं, उसे सामान सही भाव और सही माप में देते हैं । कहते- ”तू तो घर का ही आदमी है। तुझसे बेईमानी करके कहाँ जाऊँगा।” उसकी ईमानदारी की तारीफ भी कर दिया करते थे ।
अमर्या बाबा का लड़का रमेश स्कूल जाता था। गल्या से उसकी खूब पटती थी। छुट्टी में वह पिता की अनुपस्थिति में गल्या को काम में थोड़ी-बहुत मदद भी कर दिया करता था। गल्या के साथ छलपूर्ण व्यवहार के कारण वह भीतर ही भीतर पिता से बहुत खफा था। वह जानता था कि बेचारे गल्या पावणा को उसके पिता बुरी तरह निचोड़ रहे हैं, लूट रहे हैं, उसके भोलेपन का नाजायज़ फायदा उठा रहे हैं। किन्तु वह पिता को अपने इन विद्रोही भावों-विचारों की भनक नहीं लगने देता था। वह जानता था कि यदि पिता को यह पता लगा तो इसका क्या परिणाम होगा। पिता कई बार ऐसी ही बातों के लिए उसे पीट चुके थे। कहते- ”पुरो घर लुटई द, फिरि माँगी न खाजे।” (पूरा घर लुटा दे, फिर माँग कर खाना।)
वह चाहता था कि गल्या पावणा को इस तरह ठगाना नहीं चाहिए। उसे महीने के कम से कम डेढ़-दो सौ रुपए माँगना चाहिए। उसकी प्रबल इच्छा थी कि वह गल्या पावणा को किसी तरह कोई ख़ुशी दे, उसे कष्टों से निजात दिलवाए। पर कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था।
उसकी की घरवाली कला भी अमर्या बाबा के यहाँ गोबर हेड़ती थी। बदले में उसे चार रुपए महीना और सुबह बासी रोटी और मही (छाछ) मिलता था। घर जँवाई होने कारण ही लोग उसे गल्या पावणा कहने लगे थे। वह पड़ोस के गाँव से आया था। कला इसी गाँव की लड़की है। गल्या उसका तीसरा पति था। पहला पति मर गया था। उससे उसको एक लड़की थी। दूसरा पति उसके साथ एक-आध साल रहा और भाग गया। इस तरह गल्या उसका तीसरा पति बना। कला उससे पाँच-छह साल बड़ी थी। गल्या को कला से बेहतर भला कौन मिल सकती थी। गनीमत थी कि उसकी शादी हो गई थी, अन्यथा उस जैसे गरीब, सीधे और कमज़ोर शरीर वाले शख्स की किस्मत में तो कुँवारा रहना ही बदा होता है। जैसे-तैसे ही सही, उनकी जोड़ी चल रही थी।
एक दोपहर रमेश खेत में नीम की छाँव में गल्या के पास बैठा था। रमेश ने संजीदा होकर गल्या को कुरेदना चाहा- ”काऽ रऽ गल्या पावणा! तुख काय मिल जाय तऽ तू खुश हुई जाय। तारी जिंगी वारूँ हय जाय। तारो जिंगी नो सबसी बड़ो सपनो काय छे? ” ( का रे गल्या पावणा, तुझे क्या मिल जाए तो तू खुश हो जाए । तेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना क्या है।)
गल्या पावणा उससे एकाध-साल छोटा ही होगा, पर उसे विनम्रता और अदब से ‘मोटा भाई’ कहता था। गल्या उकड बैठा था। सिर नीचा किए वह किसी अतल गहराई में डूबा था। कुछ देर तक हाथ में एक तिनका उठा ज़मीन पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचता रहा। उसके भीतर कोई ऊहापोह चल रही थी। जैसे वह बोलने के लिए शब्द चुन रहा हो। पर्याप्त समय लेकर वह किसी अतल गहराई से बोला- ”काय नी रऽ मोटा भाई, कदी-न-कदी मी रेड़्यो तऽ लेस-न-लेस। मारो बी नाम हय जासऽ कि गल्यो बी कोइ मनुस हत्लो।” (कुछ नहीं रे बड़े भाई, कभी-न-कभी तो मैं रेडियो लूँगा ही लूँगा। मेरा भी नाम हो जाएगा कि गल्या भी कोई मनुष्य था।)
रमेश ने गल्या के एक-एक शब्द को जज़्ब कर लिया। उसे वह तरीका मिल गया जिसके ज़रिए वह गल्या को खुश कर सकता था। उसे नहीं लगता था कि गल्या जि़ंदगी में कभी रेडियो खरीदने का अपना सपना पूरा कर पाएगा। लेकिन वह उसका सपना साकार कर सकता है। रमेश ने मन ही मन ठान लिया था कि वह गल्या को रेडियो लाकर देगा। पर उसके पास भी पैसे कहाँ थे। उसे पैसे इकठ्ठा करने होंगे। यह काम गोपनीय ढंग से करना होगा। पिता को पता नहीं चलने देगा। गल्या को भी नहीं बताएगा। वह जब रेडियो ले आएगा, तभी बताएगा। फिर उसे ठीक से समझा देगा कि वह किसी को उसका नाम न बताए। वह यह बताए कि रेडियो उसी ने खऱीदा है।
रमेश के घर रेडियो था। पूरा घर उसे चाव से सुनता था। गल्या भी मौका पाकर गीत-संगीत और अनेक ज्ञानवर्धक बातें रेडियो से सुनता रहता था। गाने सुनते हुए वह उनमें डूब जाता। वह इस जादुई डिब्बे से बहुत प्रभावित था। धीरे-धीरे वह जादुई डिब्बा उसके दिल में बैठ गया था और उसका सपना बन गया था। जि़ंदगी का सबसे बड़ा सपना। लेकिन अमर्या बाबा को गल्या का रेडियो-प्रेम नहीं सुहाता था। उसे किसी न किसी काम के बहाने उठा देते थे। इस तरह रेडियो सुनने की हसरत उसके दिल में दबी ही रह जाती थी।
जब गाँव में ग्वाले अपने कंधे पर फुल वॉल्यूम में रेडियो बजाते हुए ढोर चराने निकलते तो वह ललचाई निगाहों से उन्हें देखता ही रह जाता था। उसे लगता था कि दुनिया का सबसे बड़ा सुख यही है, यह जादुई डिब्बा उसकी नीरस जि़ंदगी में रस घोल सकता है, एक अंजानी सुखद दुनिया में ले जा सकता है। आखिर रमेश से भी उसने अपने सपने का खुलासा कर ही दिया।
रमेश को अपना मकसद मिल गया था। वह छुट्टियों में बबूल के फाफड़े बीन-बीन कर थैले भर लेता और बोहरे की दुकान पर बेच आता। पैसे छिपा कर रख देता। खेत में जो चटनी (हरा धनिया) उगाई जाती थी, उसे बाज़ार में बेचने रमेश को भेजा जाता था। उसमें से भी वह कुछ पैसे बचा लेता था। वह चुपचाप पैसे इकट्ठे कर रहा था। एकदम गोपनीय तरीके से। इसका किसी को पता नहीं था, गल्या को भी नहीं। पर खास पैसा इकट्ठा नहीं हो पा रहा था। एक किलो फाफड़े के दस-पंद्रह पैसे मिलते। चटनी से भी कोई खास पैसे नहीं बच पाते। सालभर में केवल पैंसठ रुपए इकट्ठे कर पाया।
मन बनाया कि नया न सही, एक पुराना रेडियो ही खरीद लिया जाए। सेकंडहेंड रेडियो करीब आधी कीमत में मिल जाता है। उसके पास पैंसठ रुपए थे। शहर में मलिक की रेडियो की दुकान प्रसिद्ध थी। वहाँ नए ही नहीं, पुराने रेडियो भी मिल जाते थे। उसने उससे इस शर्त पर एक सेकण्ड हेंड रेडियो लिया कि पहले एक-दो दिन वह रेडियो चलाकर देखेगा, जमा तो लेगा, नहीं तो वापस कर देगा। दुकानदार मान गया। उसने रेडियो लिया, पर वह ठीक से चल ही नहीं रहा था। उसने रेडियो वापस कर दिया। सोचा कि अब लेगा तो नया ही रेडियो लेगा। पुराने का तो कोई भरोसा नहीं होता ।
साल भर बाद हायर सेकेंडरी की परीक्षा देकर रमेश पीएटी की तैयारी के लिए इंदौर चला गया। उसे गल्या का रेडियो बराबर याद था। पीएटी की परीक्षा देकर लगभग तीन महीने बाद वह घर लौटा। उसके साथ रेडियो था। अपनी बचत से उसने सवा सौ रुपए का तीन सेल का रेडियो खऱीद लिया था। रेडियो किसी नामी कंपनी का तो नहीं था, लोकल कंपनी का ही था, पर अच्छा चलता था। अब वह गल्या को नया रेडियो देने में समर्थ था। गल्या पावणा का सपना पूरा हो जाएगा। वह बहुत खुश था। पर उसे अपनी ख़ुशी गुप्त रखनी थी।
वह रेडियो को मेड़े (ऊपरी) पर चुपचाप छिपाकर रख आया। खासकर पिता अमर्या बाबा से यह छिपाना बहुत ज़रूरी था। यदि उन्हें पता चल जाता कि रमेश गल्या के लिए रेडियो लाया है तो वे आग-बबूला हो जाते। रेडियो के पैसे गल्या के खाते में डाल देते। बेचारे गल्या को डेढ़-दो महीने और काम करना पड़ता और रेडियो के पैसे चुकता करने पड़ते। निर्दोष गल्या को फटकारा जाता। रमेश की धुलाई होती वह अलग से।
सोचा कि मौका देखकर वह इसे गल्या को दे देगा। वह कितना खुश होगा। रेडियो को अपने कंधे पर टाँगकर गीत-संगीत सुनेगा और इस बेरहम दुनिया को कुछ देर के लिए ही सही, भुला सकेगा। सपनों की सुन्दर दुनिया में विचरण कर पाएगा। मनुष्य होने के नाते यह गल्या का हक़ भी था। रमेश को कल्पना में गल्या का ख़ुशी से भरा चेहरा नज़र आ रहा था। वह सहसा एक अनिर्वचनीय सुख से भर गया।
लेकिन गल्या पावणा कहीं नज़र क्यों नहीं आ रहा है? माँ या पिता से पूछने की उसकी हिम्मत नहीं थी। आखिर दूसरे दिन उसने अपने चचेरे भाई नराण से पूछा- ”काऽरऽ नराण! गल्यो पावणो नजर नी आवतो… काँ छे ? ” (का रे नराण, गल्या पावणा नजर नहीं आ रहा…कहाँ है ?) रमेश की जिज्ञासा चरम पर थी। ”काँको गल्यो पावणो। वो तो कवँ को मरी गयो।” (कहाँ का गल्या पावणा। वह तो कब का मर गया ।) नराण ने गल्या के गुज़र जाने की मनहूस खबर दी। उसने बताया कि गल्या पावणा एक दिन बीमार रहा और दूसरे दिन तो सोता ही रह गया।
सुनकर रमेश अवाक रह गया। उसका दिल बैठ गया। न उसकी इच्छा पूरी हुई और न गल्या पावणा की। गल्या का रेडियो मेड़े (ऊपरी) पर चुपचाप पड़ा सिसक रहा था। बेआवाज़ रो रहा था। तो… गल्या पूरा मनुष्य नहीं था? रेडियो के बिना वह मनुष्य कहाँ था। गाय, बकरी या भेड़ जैसा ही कोई निरीह मूक पशु था, जिसकी कोई इच्छा ही नहीं होती। इच्छा हो भी तो वह पूरी नहीं कर पाता।
वह पस्त होकर बैठ गया। उसका हाथ अपने-आप अपने कपाल पर चला गया। जैसे गलती उसके कपाल की हो। उसे सूझ नहीं रहा था कि वह अब गल्या के रेडिय़ों का क्या करें।
लेखक: गोविन्द सेन
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