कहानी

‘बुआजी’

कथाकार: कविता नागर

‘बुआजी’

बालकनी में बैठी शुचि सांझ ढलने का इंतज़ार कर रही थी। एफ एम पर रोज़ की तरह गाने चल रहे थे। शुचि के लिए यह एक आदत की तरह था, उसका गानों पर कभी ध्यान होता था, कभी नहीं होता था, पर आवाज़ या शोर होते रहने से घर में सूनेपन का अहसास नहीं होता था। अनिमेष को अक्सर देर हो ही जाती थी। अधिकतर यही होता था, और शुचि घर में बैठे-बैठे ऊब जाती थी। बच्चे अभी थे नहीं, तो घर और भी सूना लगता था।

अभी सोच ही रही थी कि कुकर में दाल चढ़ा दूँ, इतने में फोन बजने लगा। कमला बुआजी का था। शुचि ने फोन उठाया तो उधर से आवाज़ आई, “अरे बहू! हम बोल रही हैं बुआजी, तेरी कमला बुआजी। कैसी है बिटिया? हम शहर आए हैं, हो सके तो मिलने आ जा। यहीं है राघव के घर पर। बहुत दिन हुए तुझे देखा नहीं!”

शुचि के कानों में जैसे मिश्री-सी घुली हो। बहुत खुश हुई और बोली, “हाँ बुआजी, मैं कल ही आती हूँ। अनिमेष अभी आए नहीं हैं, कल आती हूँ।”

“ठीक है बिटिया, ज़रूर आना, हम अभी यहीं है राघव के घर।”

यह बुआजी शुचि के दिल में विशेष स्थान रखती थीं। सगी बुआजी नहीं थीं, पर कभी-कभी वो जो एक रिश्ता होता है जो सगा नहीं होता पर सगे से ऊपर होता है, वही रिश्ता था शुचि का बुआजी से।

बुआजी गाँव के रिश्ते से उसकी बुआ सास लगती थीं। विधवा थीं, शादी के एक साल बाद ही पति का स्वर्गवास हो गया था। नि:संतान भी थीं। गाँव के कच्चे मकान में अकेली ही रहती थीं और खेती का काम संभालती थीं। उसी से उनका खर्च चलता था। शुचि के सास-ससुर उनका विशेष ध्यान रखते थे।

शहर में बुआजी के जेठ, देवर के बच्चे और परिवार था तो दुनियादारी के चलते वे लोग उन्हें यहाँ भी ले आते थे, वरना लोग कहते कि बेचारी अकेली विधवा का कोई ध्यान ही नहीं रखता। और फिर गाँव में उनकी जो ज़मीन-जायदाद थी उसका भी कोई वारिस नहीं था, तो उसके लालच में भी सभी आस लगाए बैठे थे।

बुआजी गाँव की स्थानीय वेशभूषा में ही रहती थीं- साधारण सफेद सा लुगड़ा (चुनरी) और बड़ा सा घेरदार लहँगा। बुआजी की कदकाठी ऊँची और डील-डौल अच्छा था, तो वे दूर से ही पहचान में आती थीं कि कमला बुआजी आ रही हैं। कुल मिलाकर शानदार व्यक्तित्व था उनका। गाँव की थीं, पर गाँव जैसे विचार न थे उनके। व्यावहारिक होकर ही निर्णय लेती थीं।

बुआजी जब भी इंदौर आतीं, शुचि को फोन लगातीं और वहीं मिलने बुलातीं। शुचि हमेशा ही उनसे मिलने जाती और अपने घर लाने का आग्रह करती, पर वो हमेशा टाल जातीं। कारण था उनकी झिझक। वे अपनी वेशभूषा से शर्मिन्दा होती थीं, कहती थीं, ‘बिटिया, तेरे उधर सब शहरी लोग रहते हैं। यहाँ तो चल जाता है, इधर थोड़ा गाँव का माहौल भी है। पर तेरे उधर सब मुझे ही घूरेंगे।’

लेकिन इस बार तो शुचि ने मन बना रखा था कि उन्हें लेकर ही आएगी। रात में काम निपटाकर शुचि बुआजी के साथ बिताए पुराने पलों को याद करने लगी, क्योंकि बुआजी के साथ हमेशा ही यादों की माला में नया फूल पिरो दिया जाता, जिसकी भीनी खुश्बू शुचि के मन को महका जाती। वो पुरानी यादों में खो गयी।

पहली बार जब शुचि ससुराल आई थी तो सबकुछ कितना अलग लगा था। उसका और अनिमेष का प्रेम विवाह था। प्रेम करना तो आसान है, पर विवाह के बाद ही असली परीक्षा होती है। अनिमेष और वो एक ही कॉलेज में साथ पढ़े थे और उनके प्रेम की परिणति विवाह के रूप में हुई थी। विवाह में तो कोई अड़चन न आई, थोड़े ना-नुकुर के बाद सब मान ही गए थे। पर उसके मायके के ऐश-ओ-आराम को देखकर यहाँ सबको को लगा था कि शुचि बहुत दान-दहेज लेकर ससुराल आएगी। परंतु उसके पिता इस सबके खिलाफ  थे, अत: उन्होंने दहेज नहीं दिया। वे उसकी उच्च शिक्षा को ही सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे और उनकी सोच थी कि इतनी पढ़ी-लिखी, सुघड़ लड़की मिलना किसी के भी लिए गौरव की बात होगी।

शायद यही बात उसके ससुराल वालों को खटक गई थी। उसके आते ही खुसर-पुसर चालू हो गई थी- “लो! ऐसा तो सभी कहते हैं, पर बेटी को खाली हाथ थोड़ी न भेजते हैं। पायल कितनी पतली है! कंगन और कान के कुंडल कितने हल्के हैं! कितने तोले का है? बहू तो असली है, या वह भी नकली है?” दरअसल शुचि को भारी गहने पसंद ही न थे और उसने यह न सोचा था कि उसकी पसंद को कोई इस तरीके से लेगा।

और इन सबके अलावा था ग्राम्य जीवन, जो कि औरतों के लिए बड़ा ही कठोर था। “यहाँ मत बैठो। बैठक में न जाओ। लंबा घूंघट लो।” यह सबकुछ देखकर उसे लगता कि वो किसी पुराने समय में पहुँच गयी है। वह इतना घबरा गई थी कि दिसंबर की सर्दी में भी उसके माथे पर पसीना उभर आता था, हथेली पसीने से भर जाती थी। ऐसे में बुआजी ही उसका सहारा होती थीं।

“पहली बार बहू आई है और ये सब कितना ओछा व्यवहार दिखा रही हैं! रहेंगी सब गाँव की अनपढ़ गँवार ही!” बुआजी गुस्से में बड़बड़ाती हुईं सबको घूरती जातीं।

एक दिन तो उन्होंने सबको सुना ही दिया। “बहुत हो गया तुम सबका! अब आगे बहुरिया को कोई कुछ न कहेगा। खी-खी करते लाज न आती? इससे कुछ सीखो ज़रा। शहरी है पर इसकी गहरी आँखों में कितनी मर्यादा है। कितना संभालकर मुँह खोलती है। इस मासूम चेहरे पर सबके लिए प्यार है, वो नहीं दिखता? यहाँ रह रही है यह क्या कम है, और कोई होती तो कबका नखरे दिखाकर फुर हो जाती। कितना अभाव है तुम लोगों में भावनाओं का! थोड़ा संभलकर रहो वरना आगे से गाँव में कोई पढ़ी-लिखी बहू न देगा, फिर ले आना भारी-भरकम गहनों से लदीं अनपढ़ बहुएँ और फिर बेटे बाहर जाकर दूसरी ले आएँगे,” वे कहतीं। सब चुप हो गए उसके बाद से। दरअसल गाँव में पहले दो-तीन शादियाँ ऐसे ही टूट चुकी थीं, क्योंकि बहुएँ कम पढ़ी-लिखी थीं और बेटे ज़्यादा। ये सब बातें बुआजी ने ही उसे बताई थीं। वे हमेशा माहौल हल्का कर उसे हँसाने की कोशिश में लगी रहती थीं।

जब भी बुआजी शहर आतीं, उससे ज़रूर मिलतीं। या वो गाँव जाती तो बुआजी से ज़रूर मिलती। बहरहाल, घर के पास होने के कारण उनका अधिकतर समय शुचि के ससुराल में ही बीतता था। इसका एक कारण शुचि के ससुर का बुआजी से अतिरिक्त स्नेह भी था। वे सगी से बढ़कर थीं उनके लिए। लगता ही न था कि वे गाँव के रिश्ते से बुआजी हैं।

दूसरे दिन अनिमेष को ऑफिस के लिए विदा कर वह बुआजी को लेने निकल पड़ी। वहाँ जाकर बुआजी से मिली और चाय वगैरह पीकर बुआजी को मनाकर अपने साथ ले आई। झिझकते हुए बुआजी उसकी बिल्डिंग में दाखिल हुईं। “बिटिया! तुझे शरम तो न आएगी हमारे गाँव के पहरावे से?”

“नहीं बुआजी!” शुचि तुरंत बोली और उनका हाथ पकड़कर अपने फ्लैट में ले आई।

“आराम से बैठिए बुआजी,” ताला खोलकर उसने कहा।

बुआजी बहुत खुश थीं, जैसे कोई माँ अपने बेटे के घर बसाने के बाद पहली बार उसके घर आती है।

“अब आप यहीं रहेंगी, जब तक आपका दिल करे तब तक। चाचाजी के बेटों के पास तो हमेशा ही रहती हैं। वरना मैं बुरा मान जाऊँगी,” शुचि बोली।

“मैं तो रह जाऊँ बेटा, पर वो लोग बुरा मान जाएँगे, कहेंगे कि लो! हम सेवा नहीं करते क्या जो वहाँ चली गईं,” बुआजी बोलीं।

“चलिए, वो लेने आएँगे तब देखी जाएगी, अभी आप घर देख लीजिए।” कहकर शुचि उन्हें घर दिखाने लगी। फिर बालकनी में बैठकर दोनों बातों में मगन हो गए। ऐसे ही शाम बीत गयी।

रात को अनिमेष भी बुआजी से मिलकर बहुत खुश हुआ और देर रात तक बातों का दौर चला। सुबह उठकर शुचि ने सोचा कि बुआजी की पसंद का कुछ बना देती हूँ। चूँकि गाँव पर सबको गट्टे का साग, मक्के के बाफले, भुट्टे का किस या कढ़ी या मक्के की रबड़ी जैसी चीज़ें ही पसंद थीं, उसने भी यही बनाने को बुआजी से पूछा। पर बुआजी ने न में सिर हिलाते हुए कहा- “मैं धाँप गयी बेटा इन सबसे (मन भर गया)।” यह कहते हुए उनकी दृष्टि नूडल्स और पास्ता के पैकेट्स पर जाकर टिक गयी। शुचि उस समय उनकी आँखों में बाल सुलभ कौतूहल और चंचलता देखकर तपाक से बोली, “चलिए आज पास्ता बनाते हैं।” उसने थोड़ा पास्ता और नूडल्स बनाए। पर वह सोच रही थी कि पता नहीं, बुआजी खा भी पाएँगी या नहीं!

हुआ भी यही। वे बस नयी चीज़ों को चखना चाहती थीं। हुआ यह था कि पिछले दिनों उनके भतीजे के घर पर ये सब बना था, पर उन्हें किसी ने चखाया भी नहीं था। पर उसकी खुश्बू उनकी नाक में समा गयी थी। देखते ही बोलीं, “अरे! यही तो राघव की बहू बनाई थी, पर शायद कम बना था।”

लेकिन दो-तीन चम्मच स्वाद लेने के बाद बुआजी ने सादी दाल-रोटी ही खाई। बहुत सजग थीं वो इस मामले में, जानती थीं कि यह उमर ऐसे खानपान की नहीं है। यह बुढ़ापा ऐसा ही होता है, सबकुछ अनुभूत कर लेना चाहता है; कोई इच्छा अधूरी न रहे आखिरी सफर से पहले। ये चख लूँ, वो देख लूँ। इसके बच्चे खिला लूँ। यहाँ घूम आऊँ। बच्चों की तरह कौतूहल भी रहता है कि सब इच्छा पूरी हो जाए। बुआजी तो वैसे ही एकाकी जीवन जी रही थीं, हालाँकि वे नीरस नहीं हुई थीं।

शाम को उसकी आलमारी में साडिय़ाँ रखते हुए एक नीली साड़ी पर, जो कि नयी थी, बुआजी की निगाह रुक गयी। कहने लगीं, “तुम्हारे फूफा भी हमारे लिए पहली बार नीली साड़ी ही लाए थे। पर देखो! एक साल के भीतर ही हमको छोड़ गए। हम वो साड़ी पहन के भी न दिखा सकीं क्योंकि वहाँ तो लहँगा ही चलता है।

वो सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे थे बिटिया और उनका आर्डर भी आ गया था। कहते थे, शहर जाकर तुमको अच्छी साड़ी दिलाएँगे, ये घाघरा नहीं पहनने देंगे। मोटी लगती हो इसमें, ऊपर से हमसे लंबी ही दिखती हो। ऐसा कहकर मुझे छेड़ते थे बिटिया।

हम भी पाँचवीं पढ़े थे। वो हमको पढ़ाना चाहते थे, और हम भी पढऩा चाहते थे। हमारी एक सहेली शहर में रहती थी, हम भी उसकी तरह शहर जाना चाहती थीं। पर सब इच्छाएँ उनके साथ ही चली गईं।”

शुचि ने उनकी भावनाओं को देखते हुए वो साड़ी उन्हें पहना दी। पहनकर बुआजी कहीं खो-सी गईं, ऐसा लगा मानो वे अनुभव कर रही हों कि उस नीली साड़ी में पचास वर्ष पहले की कमला को गिरधर देख रहा हो। बहुत ही भावुक और चुपचाप हो गईं। बहुत देर चुप रहीं। उधर शुचि सोच रही थी, ‘कितना निष्ठुर है हमारा समाज! बेचारी मन का पहन भी नहीं सकतीं। कहती हैं, साड़ी पहनेंगी तो लोग चिढ़ाएँगे कि बुढ़ापे में फैशन में आ गयी।’ वे ही नहीं, गाँव की अधिकतर स्त्रियाँ ऐसी ही मान्यताओं में कैद थीं।

दूसरे दिन वो जि़द करके उन्हें बाज़ार ले गयी, कुछ साडिय़ाँ दिलवाईं और कहा, “जब तक यहाँ रहेंगी तब तक यही पहनेंगी, समझीं आप?” शुचि का आग्रह वे टाल न सकीं।

पाँचवे दिन गाँव से बुलावा आ गया। वे जाना नहीं चाहती थीं पर गाँव पर जो खेत थे उनकी देखरेख भी करनी थी, किसी के भरोसे छोड़ भी नहीं सकती थीं। उनका खुद का खर्च उसी से निकलता था और वे किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं।

जाते हुए असीमित आशीष आँखों से बरसा गईं। ऐसा लगा कि वो जाना नहीं चाहतीं, यहीं रहना चाहती हैं, मानो शुचि और अनिमेष उनके बहू-बेटे हैं और वो उनकी माँ हैं। उनका लगाव शुचि से ज़्यादा ही था।

शुचि की तो जैसे घनिष्ठ मित्र चली गयी; फिर से उदास हो गयी वो। कुछ देखने के लिए कैलेंडर उठाया ही था कि एक विचार उसके मन में कौंधा। अगले महीने उसका जन्मदिन था। वह जो भी अनिमेष को बोलती थी, वह हाजि़र होता था। तो उसने सोचा कि क्यों न इस बार वो उससे कुछ अलग ही माँग रखे!

उसने सोच लिया था, इस बार अनिमेष से बुआजी को ही माँगेगी। बुआजी अपनापन चाहती हैं, तभी तो बार-बार भतीजे के घर आती हैं। पर वो लोग सिर्फ उनकी संपत्ति से लगाव रखते हैं। वो कह देगी बुआजी से कि सारी ज़मीन वगैरह उनके नाम कर दो बुआजी और आप मेरे साथ रहने आ जाओ। इस पर तो शायद ही किसी को आपत्ति हो।

अपनी इस इच्छा को उसने अनिमेष के सामने रखा कि उसे हमेशा के लिए बुआजी को अपने साथ रखना है और वह अपना यह जन्मदिन उन्हीं के साथ मनाएगी। इस पर अनिमेष ने कहा, “सोच-समझ लो, बहुत बड़ी जि़म्मेदारी है।” शुचि बोली, ”मैंने खूब सोच-समझकर ही फैसला किया है। मैं हमेशा ऐसे किसी बुजुर्ग के स्नेह से वंचित रही हूँ, अब जब मुझे बुआजी मिली हैं तो मैं उनके साथ रहना चाहती हूँ। मैं उन्हें हमेशा खुश रखूँगी।”

अब अनिमेष की बारी थी। उसने सबकुछ अपने घरवालों को बताते हुए उनकी सहायता ली। इस तरह सबके बीच बातों का दौर चला। बुआजी को पता चला तो वे फूली न समाईं कि शुचि उन्हें हमेशा के लिए ले जाएगी। आखिरकार सब लोगों की रजामंदी से अनिमेष बुआजी को घर ले ही आया।

आज शुचि का जन्मदिन है। बुआजी पीली साड़ी में हैं। वे किचन में उसके लिए आटे का हलवा बना रही हैं जो बनाना शुचि को नहीं आता, पर उसे बहुत पसंद है। बुआजी को एक प्यारा परिवार मिल गया है। इसकी चमक उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है।

इस तरह शुचि को उसके जन्मदिन का उपहार आखिर मिल ही गया।

कथाकार: कविता नागर
पता:102, लैंडमार्क अपार्टमेंट
सिविल लाईन, मेंढकी रोड।
देवास (म.प्र.) 455001

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