संपादकीय

हमारी नादानी और बेईमानी से ख़त्म हो रहा है पानी

आज की तारीख में आधा भारत पानी की कमी से परेशानी झेल रहा है। खबरों के मुताबिक चेन्नई शहर में 40 प्रतिशत लोग पानी के इंतज़ार में सड़क पर नज़र गाड़े रहते हैं कि कब पानी आए। दिलचस्प बात यह कि चेन्नई शहर में जितनी भी झीलें और तालाब थे, सब पर अब बड़ी-बड़ी इमारतों का निर्माण हो चुका है। कमोबेश ऐसे ही हालात महाराष्ट्र राज्य के 24 तालुका के लगभग 24 हज़ार गाँव के लोगों के भी हैं, जो पानी की कमी से परेशान हैं। यही नहीं, राजस्थान के चुरू में तापमान 50 डिग्री तक पहुँच चुका है और कहीं-कहीं से तो खबरें आ रही हैं कि पारा 50 के ऊपर पहुँच चुका है। अभी हर दूसरा आदमी पानी की समस्या की बात कर रहा है या तेज़ गर्मी से परेशानी की बात कर रहा है, और मानसून कब आएगा इसी की चर्चा चारों ओर हो रही है। देश का महापर्व, यानी कि चुनाव, गुज़र चुका है और उस महापर्व के लड्डू भी बँट चुके हैं और खत्म भी हो गए हैं। अब राष्ट्रवाद को अगले चुनाव तक भूल जाइए और वास्तविक मुद्दों से दो-दो हाथ करने को तैयार हो जाइए। अब महँगी बिजली, सड़क, रोज़गार, स्कूल की बढ़ती हुई फीस, महँगाई, सरकारी अस्पताल की अव्यवस्था, इलाज के लिए इधर-उधर भटकने जैसी मूल समस्याओं के अलावा भी कई सारी समस्याओं से जनता को दो-चार होना पड़ेगा। लेकिन इन समस्याओं से कहीं भीषण होगा पानी की उपलब्धता, शुद्ध हवा की उपलब्धता, जल-थल-वायु प्रदूषण की मार से बचना, भीषण गर्मी एवं कड़ाके की ठण्ड झेलना और अतिवृष्टि एवं अल्पवृष्टि का सामना करना। कुल मिलाकर कहा जाए तो जनता को पर्यावरण विनाश एवं जलवायु परिवर्तन की ‘वास्तविक’  समस्या से जूझना पड़ेगा, और मज़े की बात यह है कि इन समस्याओं के लिए न तो हमारी राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्र में जगह है, न ही हमारे जनप्रतिनिधियों के दिल में जगह है, और न ही आम जनता को इसकी भयावहता का कोई अहसास है। हम सब अभी इसे कोई खतरा मान ही नहीं रहे हैं। या शायद जानकर भी अंजान बने हुए हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि हमने तो वोट देकर एक मज़बूत सरकार बनवा दी है, अब हमें सभी तरह के खतरों से बचाने का काम सरकार कर लेगी। कितने नादान हैं हम भारत के लोग!

बहरहाल, अभी चूँकि गर्मी का मौसम चल रहा है इसीलिए पानी की समस्या सबसे विकराल रूप धरे हुए है। पर सोचने की बात है कि पानी की इतनी परेशानी क्यों आ रही है? इसका जवाब यह है कि हम विकास की होड़ में पागलों-सा व्यवहार करने लगे हैं। परेशानी विकास में नहीं है, विकास के पश्चिमी मॉडल का अंधानुकरण करने में है। हम अपनी स्थानीय परिस्थितियों की अनदेखी करके जो विकास कर रहे हैं वह वास्तव में विनाश को बुलावा दे रहा है। पानी के मामले में भी यही है। पानी की समस्या के लिए जितनी जि़म्मेदार सरकारें और उनके नुमाइंदे हैं उतनी ही जनता भी है। भारत की भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप भरपूर जल-संचय एवं संयमित उपयोग की जो स्थानीय एवं आत्म-निर्भर संस्कृति हमारे पुरखों ने विकसित की थी, जिसके तहत जल-स्त्रोतों का संरक्षण-संवर्धन राजधर्म के साथ-साथ समाज-धर्म भी माना जाता था, उसे हमने आधुनिक होने की होड़ में भुला दिया। पहले के लोग अपने उपयोग के पानी की व्यवस्था स्वयं करने में विश्वास रखते थे जबकि आज का आदमी कहता है कि यह मेरा काम नहीं है, मैं तो सरकार को टैक्स देता हूँ इसलिए सरकार ही जाने कि कैसे व्यवस्था करनी है। पहले के लोग प्रकृति से सीधे जुड़े थे और जानते थे कि उसे प्रसन्न कैसे रखना है जबकि आज का आदमी तो यह भी नहीं जानता कि वह जो साँस ले रहा है उसके लिए हवा आ कहाँ से रही है। इतने आत्म-केन्द्रित हो गए हैं हम! इस समय और समाज की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि हम सब केवल और केवल उपभोक्ता हो गए हैं, उत्पादक होने का धर्म निभाना हमने छोड़ दिया है। हम सब आवश्यकता और वासना में अंतर करना भूल गए हैं। हम भूल गए हैं कि यह धरती हम सबकी आवश्यकताएँ तो पूरी कर सकती है परंतु लालच नहीं। यह पश्चिम की संस्कृति है, हमारी नहीं। वहाँ तो प्रत्यक्ष माता-पिता को भी आवश्यकता पूर्ति का माध्यम मात्र माना जाता है, फिर धरती माँ और प्रकृति माँ की बात तो बहुत दूर की है। हमारे यहाँ ऐसा नहीं था, पर अब हो चला है। हम जो कभी नदियों को माँ का दर्जा दिया करते थे, अब उन्हें बस एक दुधारू गाय की तरह देखने लगे हैं। असंख्य कुँओं, तालाबों, बावडिय़ों व अनेकानेक प्रकार की जल-संरचनाओं की समृद्ध विरासत वाले देश के लोग आज सरकारी नल-जल योजनाओं का मुँह ताक रहे हैं। क्या समय आ गया है!

पहले इतनी पानी की समस्या नहीं थी क्योंकि पहले हर खेत में कुँए बनाए जाते थे और गाँव-गाँव में तालाबों का निर्माण भी होता था, जिससे बारिश का पानी स्टोर हो जाता था और पीने के पानी के साथ-साथ फसल के लिए भी पानी पर्याप्त होता था। परंतु जब से ट्यूबवेल भारत में आए हैं, तब से ही हमने परंपरागत जल-स्त्रोतों को खत्म कर दिया है जिसके कारण भूजल स्तर दिन-ब दिन गिरता ही जा रहा है। दूसरी वजह यह है कि किसानों ने ज़्यादा उत्पादन के लालच में रासायनिक खादों का इस्तेमाल भी ज़रूरत से ज़्यादा करना शुरू कर दिया। इससे उन्हें ज़्यादा उत्पादन तो मिल गया परंतु फसलों के सही दाम भी नहीं मिल पा रहे हैं और उल्टा अपनी ज़मीन को बंजर बनाने में पूरा योगदान दे रहे हैं। इसी रासायनिक खाद की बदौलत किसान के खेत की ज़मीन सख्त हो गई है जिससे बारिश का पानी ऊपर से बहकर निकल जाता है और ज़मीन में नहीं पहुँच पाता है। इसके अलावा, पहले भारत में जलवायु के अनुकूल खेती होती थी। जहाँ पानी की जैसी उपलब्धता थी, वैसी ही फसलें लगाई जाती थीं। लेकिन अब तो आलम यह है कि जो इलाके परंपरागत रूप से सूखे रहे हैं और वर्तमान में और भी अधिक पानी की कमी का सामना कर रहे हैं वहाँ के किसान भी धान लगा रहे हैं! प्रकृति कहाँ क्या उगाती है इससे हमें अब कोई मतलब नहीं रहा, हमें केवल अधिक मुनाफे से मतलब है।

यह तो हुई कृषक एवं कृषि कार्य की बात, जिसमें निश्चित रूप से सबसे ज़्यादा पानी लगता है। परंतु देश की बाकी जनता भी पानी का दुरुपयोग करने और इसके संरक्षण के प्रति उदासीन रहने में किसी से पीछे नहीं है। उल्टा जब पानी की समस्या आती है तो वह हंगामा खड़ा करने में सबसे आगे रहती है। शहरों में मोटरसाइकिल, कार, लोडिंग ऑटो, बस एवं अन्य वाहन धोने के लिए काफी पानी बर्बाद कर दिया जाता है। शहरों में एक-एक घर में कम से कम चार-चार वाहन हैं। शहरों में सभी इमारतों में बारिश के पानी को ज़मीन में उतारने के लिए रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाना अनिवार्य है, परंतु शायद ही कोई लगवाता हो। अब आपने पहले तो सारी ज़मीन को क्रांक्रीट से ढँक दिया, उस पर से रेन वॉटर हार्वेस्टिंग भी नहीं करना चाहते, ऐसे में पानी की समस्या तो आएगी ही क्योंकि जितना पानी आप ज़मीन से ले रहे हो उतना तो उसे लौटाना ही पड़ेगा। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। जैसे आजकल लोन का चलन हद से ज़्यादा है और हर आदमी लोन पर जि़ंदा है, फिर चाहे वो लोन कार, मकान, मोटरसाइकिल, शिक्षा या फिर बिज़नेस चलाने के लिए लिया हो। लोन तो लोन होता है और उसे ब्याज के साथ चुकाना पड़ता है। यदि आप अपने जीवन में इतने लोन चुका ही रहे हो, वो भी ब्याज के साथ, तो फिर कुदरत का लोन चुकाने में कोताही क्यों? क्या इसलिए कि आपको लगता है कि बैंक वालों की तरह प्रकृति आपको नोटिस नहीं दे सकती या आप पर कानूनी कार्यवाही नहीं कर सकती? जबकि प्रकृति तो अपने दिए लोन पर ब्याज़ भी नहीं माँग रही, वह तो केवल इतना ही चाहती है आपने जितना लिया है उतना ही वापस कर दो। प्रकृति आपको बिना ब्याज के भरपूर पानी दे रही है, भरपूर शुद्ध हवा दे रही है, बिल्कुल शुद्ध वातावरण दे रही है। तो फिर आप उसके साथ कैसे बेईमानी कर सकते हो?

आपका परिवार जितना पानी उपयोग कर रहा है उतना ही पानी बारिश में संरक्षित करके कुदरत को लौटा दीजिए, फिर देखिए आपको पानी की कमी नहीं होगी। वैसे ही जितने पेड़ों को काटा जा रहा है या आपके उपयोग की चीज़ों को बनाने के लिए इन पेड़ों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उतने पेड़ तो लगाओ कम से कम। आप जितना इस्तेमाल कर रहे हो उतना ही लौटा दो। सिर्फ मूलधन ही तो माँग रही है प्रकृति आपसे। उसमें भी आप बेईमानी करोगे तो कैसे काम चलेगा!

यदि आप यह सोचते हैं कि प्रकृति का लोन न चुकाने पर प्रकृति आपके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सकती तो आप बिल्कुल गलत हैं। आप प्रकृति के साथ जितनी बेईमानी करोगे, उतनी ही अपनी कब्र खोदोगे क्योंकि यदि प्रकृति का बैंक खाली हो गया और वो आपको और लोन देने में असमर्थ हो गई तब आपका क्या हाल होगा आप समझ सकते हैं। कुदरत के साथ जितनी होगी बेईमानी, उतना ही कम मिलेगा पानी। जितनी करोगे बेईमानी, कुदरत उतना ही भूमि, गगन, वायु, अग्नि, जल जैसी मूलभूत ज़रूरतों के लिए आपको तरसाएगी।

अत: हर एक व्यक्ति से मेरा निवेदन है कि अपने बच्चों से कुदरत के बारे में बातचीत करें और उन्हें कुदरत के सभी तत्वों के बारे में बताएँ। उन्हें बताएँ कि हम जो जीवित हैं उसमें प्रकृति की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है। उन्हें जंगल, नदी, खेत इत्यादि जगहों पर लेकर जाएँ ताकि वे कुदरत के मूल तत्वों से रू-ब-रू हो सकें। उन्हें प्रकृति की विभिन्न व्यवस्थाओं के बारे में बताएँ, बताएँ कि वे जो जीवन जी रहे हैं वह किसकी देन है। उन्हें बताएँ कि शुद्ध हवा का स्त्रोत घरों में लगे एयर प्यूरीफायर नहीं बल्कि बाहर खड़े पेड़-पौधे हैं। उन्हें बताएँ कि पानी का स्त्रोत नल और आरो मशीन नहीं बल्कि नदी-तालाब-झरने-कुँए हैं। उन्हें बताएँ कि जो खाना वे खा रहे हैं उसका स्त्रोत जगमग करते फूड प्वॉइंट्स नहीं बल्कि यह धरती है। उन्हें बताएँ कि सर्दी-गर्मी का जो चक्र है वह उनके कमरे में लगे एसी से नियंत्रित नहीं होता। उन्हें बताएँ कि जो जीवन उन्होंने पाया है वह पैसों से नहीं खरीदा जा सकता, वह प्रकृति के पंचमहाभूतों की देन है। इससे होगा यह कि आपका बच्चाा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव लेकर बड़ा होगा और उसके संरक्षण को अपने ही जीवन का संरक्षण मानेगा। तब वह वह गलती नहीं करेगा जो हमने और आपने की है।

अंत में किसान भाइयों से पुन: निवेदन है कि भारत की पानी की समस्या हल करने में अपने हिस्से का योगदान देने में पीछे न रहें क्योंकि इस समस्या की सबसे बड़ी कीमत भी उन्हीं को चुकानी पड़ेगी, आखिर को उनकी आजीविका पानी पर ही तो टिकी है। पानी की समस्या को हल करने का सबसे आसान तरीका यही है कि हमें हमारे पुराने परंपरागत तरीकों को अपनाना होगा। यानी कि फिर से खेतों में कुँए और तालाब बनाने होंगे। यदि हर एक किसान यह प्रण कर ले कि मेरे पास जितनी ज़मीन है उसके 1/10 भाग में तालाब बनाऊँगा तो पानी की समस्या इस प्रकार से विकराल रूप नहीं लेगी। यदि किसी के पास 5 एकड़ ज़मीन है तो उसे सिर्फ 0.5 एकड़ में तालाब ऐसी जगह बनाना है जिधर खेत का ढाल हो। इससे पूरे खेत का पानी तालाब में एकत्रित होगा और आपकी फसल को पानी की कमी भी महसूस नहीं होगी। तालाब बनाने का सबसे पहला फायदा तो यह है कि ज़मीन का भूजल स्तर कम नहीं होता है। दूसरा, जहाँ तालाब बना हुआ है वहाँ आस-पास की जगह में नमी बनी रहती है जिससे आपको पानी की आवश्यकता भी कम रहती है। तीसरा, ज़मीन में नमी होने से सूक्ष्य जीव जीवित रहते हैं जो आपकी ज़मीन को उपजाऊ बनाते हैं। इसी तरह गाँव में जगह-जगह सोखते गड्ढे बनाएँ ताकि पानी बिल्कुल भी बरबाद न हो। दूसरा उपाय यह कि जलवायु अनुकूल प्राकृतिक खेती करें। यदि आप कम वर्षा वाले इलाके से हैं तो ऐसी ही फसलें लें जो कम पानी में होती हों। इससे आप लंबे समय तक खेती से लाभ कमाते रह पाएँगे। सोने के अंडे देने वाली मुर्गी का एक बार में पेट फाड़कर सारे अंडे निकाल लेने की गलती मत कीजिए।

पानी की विकराल समस्याओं को समझने एवं उनके प्रति सजग रहने में आपकी सहायता हेतु हमने इस बार के अंक को ‘पानी विशेषांक’ की तरह प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है। इस अंक में आपको इस विषय से संबंधित बहुत सारी उपयोगी बातें पढऩे को मिलेंगी। आशा है आप उन बातों पर अमल करेंगे और हमें अपने अमूल्य सुझाव भेजते रहेंगे।

पवन नागर
संपादक

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