अभी भी पूरी दुनिया कोरोना महामारी से गुज़र रही है, और इसी बीच केन्द्र सरकार ने विपक्ष की अनुपस्थिति में वे तीन कृषि सुधार बिल संसद से पास करा लिए जिन्हें वापस कराने के लिए आज पूरे देश के किसान आंदोलन कर रहे हैं। सरकार कह रही है कि ये बिल किसानों के हित में हैं, जबकि किसान कह रहे हैं कि ये बिल कॉर्पोरेट को फायदा पहुँचाने के लिए लाए गए हैं। अब देखना यह होगा कि आंदोलन का कितना असर सरकार पर होगा। परंतु यदि ये तीनों बिल वापस हो भी जाएँ तो क्या किसानों की वर्तमान स्थिति में सुधार हो जाएगा? क्या किसानी की बढ़ी हुई लागत कम हो जाएगी? क्या किसान बाज़ारवाद के चंगुल से निकल पाएगा? क्या किसानों को अपनी उपज का सही दाम मिल जाएगा? क्या किसानों को कर्ज से मुक्ति मिल जाएगी? ऐसे और भी न जाने कितने प्रश्र फिर भी किसानों के सामने खड़े ही रहेंगे। बल्कि इन बिलों के बाद तो शायद स्थिति और भी बिगड़ जाएगी। इसीलिए किसान इन बिलों का विरोध कर रहे हैं और इन्हें रद्द कराने के लिए आंदोलनरत हैं।
अभी तक जितने भी आंदोलन हुए हैं उनको सरकार ने निष्ठुरतापूर्वक कुचला है और उनका कुछ भी नतीजा नहीं निकला है। ठीक उसी प्रकार सरकार इस आंदोलन को भी कुचलने और विफल करने की पूरी कोशिश करेगी और अपने मत पर अडिग रहेगी, जैसे पिछले 6 सालों के दौरान अपने बाकी फैसलों पर रही है ताकि आपके अच्छे दिन आ सके।
आज किसान जितनी भी समस्याओं से घिरे हैं, चाहे वह कर्ज की समस्या हो या उपज का सही दाम न मिलने का संकट हो या फिर बाज़ारवाद का दबाव हो, इन सारी समस्याओं का हल किसान के पास ही है, बस उसको ठंडे दिमाग से सोचने और एकजुट होकर योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने की आवश्यकता है।
आज के किसान को बस अपने पूर्वजों के तौर-तरीकों में आधुनिक यंत्रों का समावेश करना है। हमारे पूर्वजों ने कभी भी कर्ज के कारण आत्महत्या नहीं की थी, परंतु आज किसानों की आत्महत्याओं की तो मानो बाढ़-सी आ गई है। पहले के किसान अपनी ज़रूरत की सभी फसलें अपने खेतों में लगाते थे। यानि बहुफसली प्रणाली अपनाते थे, जिससे उनकी बुनियादी ज़रूरतें घर में ही पूरी हो जाती थीं और बाज़ार पर निर्भरता न के बराबर रहती थी। साथ ही घर के सभी सदस्यों को पौष्टिक भोजन प्राप्त होता था, जिस कारण कोई बीमारी भी नहीं होती थी। इसके अलावा पहले के किसान रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का भी इस्तेमाल नहीं करते थे, जिससे उनकी खेती की लागत बहुत ही कम थी। बहुफसली प्रणाली से उत्पादन नियंत्रण में होता था इसलिए फसलों का उचित मूल्य प्राप्त होता था।
किसानों को थोड़ा सा पीछे जाना पड़ेगा और अपने पूर्वजों के तौर-तरीकों एवं जीवन-शैली के बारे में बड़े ही गौर से अध्ययन करना पड़ेगा। उन्हें ध्यान करना होगा कि उनके पूर्वज किस प्रकार की खेती करते थे, उनके तौर-तरीके कैसे थे, तथा वे कितने प्रकार की फसलें लगाते थे। बस यहीं पर किसानों को अपनी समस्याओं का हल मिल जाएगा।
जहाँ जैसे साधन उपलब्ध होते थे वहाँ वैसी ही फसलें लगाई जाती थीं। जैसे यदि किसी खेत में पानी की व्यवस्था नहीं होती थी तो वहाँ पर कम पानी वाली फसलें बोई जाती थीं। कुल मिलाकर, संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर खेती की जाती थी। परंतु हरितक्रांति के बाद हमारे देश में बहुफसली प्रणाली की जगह एकल फसल प्रणाली चल पड़ी है और हर किसान सिर्फ एक या दो प्रकार की फसलें ही अपने खेत में लगा रहा है जिसके कारण कुछेक फसलों का उत्पादन आवश्यकता से अधिक हो रहा है और इसी कारण इन फसलों का उचित मूल्य किसान को नहीं मिल रहा है। और साथ ही बाकी की ज़रूरत का अनाज (दलहन एवं तिलहन) किसान को बाज़ार से खरीदना पड़ता है। दूसरी समस्या यह है कि आज का किसान पूरी तरह मोल लिए जाने वाले बीजों तथा रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों पर निर्भर हो गया है जिनकी कीमतें दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। जबकि हमारे पूर्वजों ने इतनी बढिय़ा व्यवस्था की थी कि खेती में जेब से एक नया पैसा नहीं लगता था। गाय-बैलों के गोबर एवं मूत्र से ही पूरी खेती हो जाती थी और खेतों में ऊगने वाली चीज़ों से ही इन गाय-बैलों का भरण-पोषण हो जाता था। मतलब, हींग लगे न फिटकरी। इसीलिए वे बड़े-बड़े अकाल तक झेल जाते थे। जबकि आज का किसान तो एक फसल का खराब होना भी बर्दाश्त नहीं कर पाता। उसकी वजह यही है कि हमने अपने पूर्वजों की आत्मनिर्भर खेती छोड़कर पराधीन खेती अपना ली है। आज का किसान बाज़ार पर निर्भर किसान है, इसी कारण वह बहुत सारी समस्याओं से घिरा हुआ है। हमारे पूर्वज आत्मनिर्भर किसान थे, इसीलिए वे ज़्यादा सुखी थे।
तो प्रश्र उठता है कि आज के किसान को क्या करना चाहिए जिससे उसकी सारी समस्याएँ खत्म हो जाएँ? तो सबसे पहले तो किसान को एक या दो फसलों के अति उत्पादन की प्रवृत्ति को नियंत्रित करना होगा और अधिक से अधिक फसलें अपने खेत में लगानी होंगी। उसे पहले अपने परिवार की ज़रूरत के सभी अनाज, सब्जी, दाल, फल इत्यादि अपने खेत में लगाने होंगे, अर्थात एकल फसल प्रणाली को छोडऩा होगा। अभी किसान सिर्फ गेहूँ, धान, सोयाबीन, कपास इत्यादि एकल फसलों के चक्कर में फँसा हुआ है जिनको उपजाने की लागत भी अधिक है। जैसे ही किसान इनका रकबा कम करके दूसरी फसलें भी लगाना शुरू करेगा, वैसे ही इन नगदी फसलों का उत्पादन कम हो जाएगा और इनके उचित दाम किसान को मिलने लगेंगे।
दूसरी बात यह कि किसान को रासायनिक खादों और कीटनाशकों का पूरी तरह से बहिष्कार करना होगा, फिर चाहे शुरू में पैदावार कम ही क्यों न हो। आज आप रासायनिक खादों और कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल करके खूब उत्पादन तो प्राप्त कर रहे हैं परंतु आपको उचित मूल्य तो प्राप्त हो नहीं रहा है, तो फिर इतना उत्पादन करने का लाभ क्या है? उल्टा आपकी लागत बढ़ गई सो अलग। इतने रसायनों का प्रयोग करने से हमारा अनाज भी ज़हरीला हो गया। इससे हमारे परिवार और देश के लोगों के स्वास्थ्य की ज़बरदस्त हानि तो हो ही रही है, साथ ही ज़मीन भी बंजर होती जा रही है। आप सोने के अंडे देने वाली मुर्गी का पेट फाड़कर सारे अंडे एक बार में ही निकालने की बेवकूफी कर रहे हैं। लेकिन अब उपभोक्ताओं में इस सबके प्रति जागरूकता बहुत तेज़ी से बढ़ रही है, जिसका प्रमाण है जैविक उत्पादों का बेहद तेज़ी से बढ़ता बाज़ार। यदि आपने रासायनिक खेती छोड़कर जैविक खेती नहीं अपनाई तो बहुत जल्द आपके उगाए अनाज का खरीदार मिलना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए समय रहते चेत जाइए और अपने पूर्वजों की हींग लगे न फिटकरी वाली पद्धति को पुन: अपना लीजिए। बीज भी बाज़ार से न लेकर खुद ही तैयार कीजिए। इस प्रकार खेती की लागत भी कम हो जाएगी, घर की खाने-पीने की सभी ज़रूरतें भी घर में ही पूरी होने लगेंगी, और आप जो भी कुछ उगाएँगे उसका वाजिब दाम भी आपको मिलेगा। इस तरह आप हर तरफ से फायदे में ही रहेंगे।
तो किसान भाईयो! देखा आपने, सारी समस्याओं का हल आपके पास उपलब्ध है, ज़रूरत है तो बस सही क्रियान्वयन और दृढ़ निश्चय की। यदि आप यह कर सके तो सरकार तो आपकी पूजा करेगी। अभी आप सरकार और बाज़ारवाद के चंगुल में फँसे हुए हैं। उपरोक्त उपाय करके ही आप सरकार और बाज़ारवाद से मुक्ति पा सकते हैं। अभी देर नहीं हुई है, हम अभी भी अपनी गलतियों को सुधार सकते हैं और अपनी सारी समस्याओं का हल खुद निकाल सकते हैं।
पवन नागर, संपादक