संपादकीय

‘आसानी’ से हो रही 

बड़ी ‘परेशानी’

अभी भी कोरोना अमेरिका, चीन और अन्य यूरोपीय देशों में तबाही मचा रहा है, जबकि ये सभी देश स्वास्थ्य सेवा एवं तकनीकी के मामले में भारत से बहुत आगे हैं और वहाँ जनसंख्या के हिसाब से कोरोना की जाँच तथा टीकाकरण भी पूरा हो चुका है, फिर भी कोरोना के लाखों मामले रोज इन देशों में आ रहे हैं। तो क्या इससे टीकाकरण की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठता है?

परन्तु भारत में अब कोरोना का कोई डर नहीं रहा है और सबकुछ पहले जैसा ‘सामान्य’ हो चुका है, उदाहरण के लिए – प्रदूषण अपने शबाब पर है, भ्रष्टाचार के नित नए मामले उजागर हो रहे हैं, जलवायु परिवर्तन के कारण बेमौसम बाढ़ और तबाही की खबरें आपके स्मार्ट फोन और टीवी के माध्यम से देर-सबेर आप तक पहुँच ही रही हैं।

फिर भी हम गहरी नींद में सो रहे हैं और जागने की कोशिश भी नहीं कर रहे हैं। क्या हमने कोरोना दौर से कुछ सीख ली? क्या हमने जलवायु परिवर्तन के कारण आ रहीं आपदाओं से कुछ सबक सीखा? क्या हमने अपनी दिनचर्या में प्रकृति के समर्थन में कोई बदलाव किया? क्या हमने रासायनिक खादों और कीटनाशकों के कारण हो रहीं बीमारियों के चलते होने वाली मौतों से कुछ सबक सीखा?

इन सारे सवालों का एक ही जवाब है- नहीं। और इस ”नहीं” का कारण यह है कि हम सबको रोज़मर्रा में काम आने वाली चीज़ें आसानी से मिल रही हैं, बल्कि कह सकते हैं कि आपके द्वार तक पहुँच रही हैं। फिर भला कोई क्यों प्रकृति की चिंता करेगा? फिर भला कोई क्यों जलवायु परिवर्तन की बात करेगा? फिर भला कोई क्यों बात करेगा कि इतने महँगे कीटनाशकों और रासायनिक खादों के इस्तेमाल के बावजूद खेतों में उत्पादन कम हो रहा है?

जब इतनी आसानी से सबके घर जल पहुँच रहा है, जब इतनी आसानी से सबको गैस मिल रही है, जब सबको आसानी से बिजली मिल रही है तो फिर भला कोई क्यों परवाह करे जलवायु परिवर्तन की और उसके कारण आ रहीं आपदाओं की?

हम सबको तकनीक और आधुनिकता के कारण जो आसानी हो रही है असल में उसके कारण प्रकृति को बहुत परेशानी हो रही है। क्या आपने कभी सोचा है कि जो चीज़ें हमें आसानी से मिल रही हैं उनको हम तक पहुँचाने वालों को कितनी परेशानी होती है? क्या आपने कभी इस बारे में विचार किया है कि जो बिजली हमको मिल रही है उसके लिए जिन किसानों की उपजाऊ ज़मीन छिन गई उनको कितनी परेशानी हो रही है? इन बड़े-बड़े बांधों को बनाने में कितने जंगल नष्ट हो गए हैं क्या इस पर विचार किया है? या फिर जो जंगल नष्ट हो गए उनको कहीं और बनाने के प्रयास किए हैं?

जिन लोगों की जेब में पैसा भरा पड़ा है उन्हें क्या लेना-देना इन सब परेशानियों से, उनके लिए तो पैसा है तो सब आसान है। उन्हें इस बात से भी गुरेज नहीं है कि वे जो भोजन खा रहे हैं उसमें कितना ज़हर मिला हुआ है। उन्हें इस बात से भी गुरेज नहीं है कि उनके घर पर जो जल आ रहा है वो कितना प्रदूषित है और तो और, उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं है कि जिस वातावरण में वे रह रहे हैं उसकी हवा भी प्रदूषित है। आपको बताते चलें कि सिर्फ वायु प्रदूषण से ही विश्व भर में हर साल 70 लाख लोग मर जाते हैं। फिर भी इन 70 लाख मौतों का किसी पर असर नहीं हो रहा है। कोरोना के कारण तो इतनी मौतें नहीं हुईं पर फिर भी हर ओर हल्ला कोरोना का ही था, क्या कभी वायु प्रदूषण का भी हल्ला होगा कोरोना की तरह? क्या वायु प्रदूषण को कम करने के लिए भी कभी  लॉकडाउन लगेगा? 

ये ऐसे कुछ सवाल हैं जिनके जवाब न तो नीति निर्धारकों के पास हैं और न उस जनता के पास जिसे इतनी आसानी की आदत हो गई है। जब इतनी आसानी से सबकुछ मिल रहा है तो भला कोई क्यों वायु प्रदूषण के लिए आन्दोलन करेगा? कोई क्यों प्रदूषित जल के लिए आन्दोलन करेगा? क्यों भला कोई ज़हर मुक्त भोजन की माँग करेगा?

भले ही इनके कारण कोई अपना मर जाए या समाज में बीमारियों की सुनामी आ जाए, इससे किसी को कुछ लेना-देना नहीं है। परन्तु यह उदासीनता आपको आगे चलकर बहुत महँगी पडऩे वाली है। अभी भले आप प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु संबंधी समस्याओं को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, पर आगे चलकर यह भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व के लिए एक गंभीर समस्या बनने वाली है। इसलिए समझदारी इसी में है कि अभी से सचेत हो जाएँ इन समस्याओं से निपटने के लिए।

जलवायु परिवर्तन के कारण इस बार फसलों का उत्पादन कम हुआ है जिस कारण महँगाई भी बढ़ रही है और आसानी से उपलब्ध होने वाली चीज़ें भी महँगी हो चुकी हैं। महँगाई ने सभी वर्गों को प्रभावित किया है, जिस प्रकार प्राकृतिक आपदाएँ अमीर-गरीब नहीं देखतीं, वैसे ही महँगाई भी अमीर-गरीब नहीं देखती है। सभी क्षेत्रों में महँगाई ने जनता की कमर तोड़ दी है।

खैर, अब आप बाज़ार के चंगुल में हैं और बाज़ार ने आपको इतनी आसानी की आदत डाल दी है कि इस आसानी की व्यवस्था से बाहर निकलने में आपको काफी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, पर आपको तो आदत आसानी की पड़ी हुई है तो आप इन परेशानियों का सामना कैसे करोगे?

अब जब आपको आसानी से उपलब्ध सस्ते पर ज़हरयुक्त अनाज, दाल, तेल, और मसालों की आदत हो गई हैं, तो अब यदि यही सस्ता ज़हरयुक्त सामान आपको महँगा मिलेगा तो भी आपको लेना ही पड़ेगा क्योंकि आपके पास कोई विकल्प ही नहीं है.। उसी प्रकार से किसानों को भी अपने खेत में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के इस्तेमाल की आदत हो गई है। इनके इस्तेमाल के बावजूद उत्पादन गिर रहा है, फिर भी रासायनिक खादों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल करने वाले किसानों की आँखें नहीं खुल रही हैं। उन्हें इतना समझ नहीं आ रहा है कि उत्पादन का सीधा सम्बन्ध वातावरण से है, न कि रासायनिक खादों से। उत्पादन प्रकृति की एक व्यवस्था है जो कि आसपास के वातावरण पर निर्भर है। यदि आपके यहाँ का वातावरण प्रदूषणरहित रहेगा और विविधता रहेगी तो उत्पादन भी अच्छा रहेगा।

अंत में इतना ही कहना है कि चाहे जनता हो, चाहे नीति-निर्धारक हों, या चाहे किसान हों, सभी से अनुरोध है कि जो चीज़ें आपको आसानी से मिल रही हैं उन चीज़ों को आप तक पहुँचाने वाले लोगों को कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है इस बात को समझें और प्रकृति को हो रहे नुकसान से बचाने के लिए, जलवायु परिवर्तन के कारण आ रहीं अनिमंत्रित आपदाओं से निजात पाने के लिए, और किसानों को ज़हरीले कीटनाशकों से निजात दिलाने के लिए अपनी इस आरामतलब दिनचर्या में कुछ तो परिवर्तन करें ताकि ज़मीनी परिवर्तन हो सकें। अब समय आ गया है कि हम सिर्फ कोरी बातें न करके उन बातों पर अमल भी करें। हमें जो आसानी हो रही है उसके कारण जो लोग परेशानी झेल रहे हैं उनके बारे में सोचें।

प्रकृति हमको जीवन-यापन के लिए कितना कुछ दे रही है, उसे भी कुछ उतनी ही आसानी से लौटाएँ जितनी आसानी से आप प्रकृति से ले रहे हैं।

उन किसानों के बारे में सोचें जो आपको ज़हरमुक्त अनाज उपलब्ध कराने की कोशिश में लगे हुए हैं और उन किसानों के बारे में भी सोचें जो आपको सस्ता परन्तु ज़हरयुक्त अनाज उपलब्ध कराने के लिए कितना रसायन अपने खेत में डाल रहे हैं, अंधाधुंध कीटनाशक इस्तेमाल कर रहे हैं, और ढेरों बीमारियों को आमंत्रित कर रहे हैं- खुद के लिए भी और आपके लिए भी। इन किसानों के बारे में सोचें ताकि ये किसान भी इस रासायनिक खाद और कीटनाशक वाली व्यवस्था से बाहर निकल सकें। इन किसानों से जनता ज़हरमुक्त अनाज, फल व सब्जियों की मांग कर सकती है, क्योंकि बिना मांग के भला कोई क्यों उत्पादन करेगा। जब ज़हरयुक्त अनाज ही आसानी से बिक रहा है और काफी मांग है बाज़ार में, तो भला क्यों किसान ज़हरमुक्त अनाज उत्पादन करने की परेशानी झेलेगा?

अगर जनता खुद चाहेगी कि उसको ज़हरयुक्त अनाज इत्यादि नहीं खाना तभी किसान भी ज़हरमुक्त अनाज के उत्पादन की ओर जाएगा। नहीं तो यह ज़हरयुक्त खेती यूँ ही चलती रहेगी, बल्कि और तेज़ी से बढ़ेगी, और उसी गति से बढ़ेंगी बीमारियाँ भी।

एक बात और ध्यान रखें कि खाना बहुत महत्वपूर्ण है सभी जीवों के लिए। यदि आपका खाना ज़हरयुक्त है तो यह मानकर चलिए कि आपको बीमारियाँ तो होंगी ही और यह भी ध्यान रखिये कि आप सोना, चांदी, पैसा या सुविधा को खा नहीं सकते, खाने का काम तो खाना ही करेगा।

इसलिए अभी भी वक्त है इन आसानी से प्राप्त हो रहीं चीजों से मुक्ति पाने और इससे हो रहीं परेशानियों को खत्म करने का। कोरी बातें करने का समय अब निकल चुका है, अब समय है आसानी से हो रही परेशानियों से बचने के लिए ज़मीनी काम करने का।

पवन नागर, संपादक

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