संपादकीय

आज़ादी में चल रही अंधे विकास की “कड़वी हवा”

पवन नागर, संपादक

इतिहास गवाह है और इतिहास अपने-आप को दोहराता भी रहता है यह कहीं पढ़ा था मैंने। वर्तमान समय में ऐसा लग रहा है कि देश में कहीं 150 साल पुराना फ्लैश बैक तो नहीं चल रहा है! खैर कोई बात नहीं, यहाँ आपकी याद्दाश्त को थोड़ा ताज़ा करते हुए आपको याद दिला दूँ कि आज़ादी के लिए 1857 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध पहले विद्रोह की प्रमुख वजह थी अंग्रेज़ों द्वारा ज़मींदारी प्रणाली को लागू करना, जिसमें ज़मींदारों द्वारा अत्यधिक शुल्क वसूल कर किसानों को बर्बाद किया गया। ब्रिटेन निर्मित माल के भारत में आने से कारीगरों का रोज़गार नष्ट हो गया। भारतीय सैनिक तथा प्रशासन में काम करने वाले भारतीय लोग पदानुक्रम में वृद्धि नहीं कर सकते थे क्योंकि वरिष्ठ नौकरियों को अंग्रेज़ों के लिए आरक्षित रखा गया था। मतलब, तब भी आरक्षण की आग में भारतीय होनहार नागरिक जल रहे थे। इसी वजह से भारतीयों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष और घृणा पनपी और यहीं से आज़ादी के पहले आंदोलन की शुरुआत हुई। भारत में स्वदेशी का पहला नारा बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने दिया था। उन्होंने कहा था- ”जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है और हम लोग दिन-ब-दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में आजीवन रहने वाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं; यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट अतिथिशाला बन गई है।” अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, वीर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय स्वदेशी आन्दोलन के मुख्य पैरोकार थे। आगे चलकर यही स्वदेशी आन्दोलन महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी केन्द्र-बिन्दु बन गया।
सन् 1874 में भोलानाथ चन्द्र ने भी स्वदेशी का नारा दिया था। उन्होंने लिखा था- ”किसी प्रकार का शारीरिक बलप्रयोग न करके राजानुगत्य अस्वीकार करते हुए तथा किसी नए कानून के लिए प्रार्थना न करते हुए भी हम अपनी पूर्व संपदा लौटा सकते हैं। जहाँ स्थिति चरम में पहुँच जाए, वहाँ एकमात्र नहीं तो सबसे अधिक कारगर अस्त्र नैतिक शत्रुता होगी। इस अस्त्र को अपनाना कोई अपराध नहीं है। आइए, हम सब यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तुएँ नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों के द्वारा ही संभव है।”
जैसे-जैसे गुलामी का समय बढ़ता गया, वैसे-वैसे स्वतंत्रता आंदोलन भी बढ़ता गया और इसके बाद महात्मा गाँधी जी ने अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ असहयोग आंदोलन की माँग कर दी। जो भारतीय उपनिवेशवाद को खत्म करना चाहते थे उन्होंने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे स्कूलों, कॉलेजों और न्यायालयों में न जाएँ तथा कर न चुकाएँ। सभी को अंग्रेज़ी सरकार के साथ सभी ऐच्छिक संबंधों के परित्याग का पालन करने को कहा गया। गाँधी जी ने कहा कि यदि असहयोग आंदोलन का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा। गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन की शुरुआत 1 अगस्त 1920 से की गयी थी। इसके बाद ‘साइमन कमीशन वापस लौटो’ तथा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ जैसे विभिन्न आंदोलनों ने क्रूर रूप ले लिया था। दूसरी ओर भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद आदि ‘अनगिनत क्रांतिकारी’ (जिनका नाम भी हमने नहीं सुना होगां) भी अपने तरीके से ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन जारी रखे हुए थे। सुभाषचंद्र बोस ने तो ब्रिटिश शासन को विदा करने के लिए आज़ाद हिन्द फौज के नाम से अपनी सेना ही बना ली थी। अंत में 15 अगस्त 1947 को अंग्रेज़ों द्वारा हिन्दुस्तान के दो टुकड़े -भारत और पाकिस्तान- करके आज़ाद कर दिया गया। इस तरह हमें आज़ादी मिली। इस संघर्ष भरे दौर में कई क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों, लाखों नागरिकों और हर मज़हब के लोगों ने पूरे जोश के साथ सहयोग किया और सभी का उद्देश्य था- आज़ादी।
अब आप सोच रहे होंगे कि यहाँ इतिहास क्यों बताया जा रहा है, ये सब बातें तो सब जानते हैं। तो दोस्तो, ये बातें बताना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि अभी पिछले 15 अगस्त को ही देश का 70वां स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। मतलब, हमें आज़ाद हुये 70 वर्ष हो गये हैं। 70 वर्ष की अवधि कम नहीं होती है। इन 70 वर्षों में हमने काफी तरक्की की है। आज हम हर क्षेत्र में तरक्की की नई इबारत लिख रहे हैं। विश्व में भारत का नाम रोशन हो रहा है। आज भी तमाम भारतीय, चाहे वे किसी भी धर्म या जाति के हों, एक टीम के रूप में कार्य कर रहे हैं। मतलब, अभी भी हमारे यहाँ अनेकता में एकता है। यही हमारी सबसे बड़ी ताकत भी है और ऊर्जा भी।
परंतु वर्तमान परिवेश में लगता है कि हम कहीं 150 साल पीछे तो नहीं जा रहे हैं। वर्तमान राजनीतिक पार्टियों का स्वभाव अंग्रेज़ों जैसा लगने लगा है। चुनाव में वादे कुछ करती हैं और सरकार बनने पर नीतियाँ कुछ और बनाती हैं। मतलब, कथनी और करनी में अंतर है। जब कथनी और करनी में अंतर आता है तो विद्रोह का जन्म होता है। और विद्रोह जब आंदोलन का रूप ले लेता है तो सल्तनतें हिल जाती हैं।
ज़मींदारी प्रथा को लागू करना, किसानों का शोषण करना, ऊँचे पदों को अंग्रेज़ों के लिए आरक्षित करना और जनता को मनमाने करों से हरदम परेशान करना जैसी बातें गुलामी के दौर की पहचान थीं। लेकिन वर्तमान दौर में भी परिदृश्य कुछ इसी तरह का दिखने लगा है। जनता की कहीं सुनवाई नहीं होती, शांतिपूर्ण आंदोलनों पर भी लाठीचार्ज कर दिया जाता है। अपनी मांगों को लेकर अगर कोई धरना या आंदोलन करता है तो उस पर गोलियाँ चलवा दी जाती हैं। क्या लोकतंत्र में अपनी मांगों को लेकर कोई विरोध नहीं कर सकता? क्या कोई अपनी जायज़ मांगों को लेकर शांतिपूर्ण धरना भी नहीं दे सकता? यदि नहीं, तो फिर यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के खिलाफ जनता ही विरोध नहीं जता सकती है? आज यह प्रश्न हर आज़ाद भारतीय को सता रहा है कि क्यों हम अपनी ही सरकार के खिलाफ अपनी बेहतरी के लिए आवाज़ बुलंद नहीं कर सकते?
कुछ महीनों पहले मंदसौर में किसान अपनी मांगों को लेकर आंदोलनरत थे। वे अपनी उपज का सही दाम देने और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए कह रहे थे। परंतु सरकार द्वारा पुलिस फायरिंग करा दी गई जिसमें 6 किसानों की मौत हो गई। अगर समय रहते किसानों की समस्याओं को सुना जाता और उनको हल करने की कोशिश की जाती तो शायद उन किसानों की जान बच जाती और सरकार की भी किरकिरी नहीं होती। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि किसान भाई अपने द्वारा चुनी हुई सरकार से ही मांग कर रहे थे, न कि ईस्ट इंडिया कंपनी से। जैसे ही 6 किसानों की मौत हुई, आंदोलन शांत हो गया और किसानों में डर पैदा हो गया।
यह तो केवल एक उदाहरण था, पिछले कुछ माह में देश भर के करीब 180 से भी ज़्यादा किसान संगठनों ने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद, की ओर जाने वाले मार्ग पर अपनी मांगों को लेकर आंदोलन किया है। इससे थोड़े ही पहले हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश आदि राज्यों में क़र्ज़ माफी एवं समर्थन मूल्य में वृद्धि की मांग पर किसान संघर्षरत रहे। पंजाब और उत्तरप्रदेश में चुनावी मौसम होने की वजह से किसान क़र्ज़ माफी चुनावी घोषणा-पत्र में जगह बना पाई। इसी के सहारे पंजाब में कांग्रेस और उत्तरप्रदेश में भाजपा सत्ता में वापसी कर पाई। किसानों को इस क़र्ज़माफी से कितना फायदा हुआ यह तो वहाँ का किसान ही बता सकता है, परंतु दोनों राजनीतिक पार्टियों की तो 5 साल के लिए बल्ले-बल्ले हो गई।
देश भर में हर कोई विरोध प्रदर्शन कर रहा है, पर कोई सुनवाई नहीं है। कोई आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहा है तो कोई बलात्कार के दोषियों को सज़ा दिलाने के लिए। कोई बांध की ऊँचाई न बढ़ाने के लिए आंदोलनरत है तो कोई भ्रष्टाचारियों के खिलाफ। देशभर में आंदोलनों का दौर ठीक उसी प्रकार जारी है जिस प्रकार गुलामी के समय में स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन तथा साईमन कमीशन वापस जाओ जैसे आंदोलन चलाये गए थे, जिनकी वजह से आज हम आज़ाद भारत में निवास करते हैं।
हालात बहुत कुछ गुलामी के दिनों जैसे ही हो गए हैं। आज अगर कोई अपने अधिकारों और मांगों के लिए विरोध करता है तो उसे गोली या लाठी की मार मिलती है, परंतु यदि कोई जाति अथवा धर्म को आधार बनाकर किसी तरह का विरोध करता है तो उसे राजनीतिक संरक्षण मिल जाता है। कोई आरक्षण की मांग करता है तो भी आंदोलन को राजनीतिक समर्थन मिल जाता है। पद्मावती फिल्म का विरोध और हरियाणा व राजस्थान में जाट आंदोलन तथा गुजरात में पाटीदार आंदोलन इसके ताज़ातरीन उदाहरण हैं।
भले हम आज़ाद भारत के निवासी हैं और विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है, परंतु अब लोकतांत्रिक सरकारों को जनता की ही आवाज़ सुनाई देना बंद हो गई है। गुलामी के दौर में भी तो यही होता था कि आम जनता को गोली और लाठी का सामना करना पड़ता था। क्या हम जालियावाला बाग काण्ड भूल गए? क्या हम लाला लाजपत राय के नेतृत्व में हो रहे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में हुए लाठी चार्ज को भूल गए? कहीं ऐसा तो नहीं कि वर्तमान समय हमें, हमारे इतिहास की तस्वीर दिखा रहा है और कह रहा है कि ज़रा याद करो कुर्बानी, आज़ादी के लिए देश की जनता किस कदर दीवानी थी। यह सब हम भूल चुके हैं।
वर्तमान में मँहगाई तो विराट कोहली के शतकों की संख्या की तरह बढ़ रही है। जिस तरह कोहली मैच दर मैच शतक बना रहे हैं, उसी तरह मँहगाई भी अपने ही रिकॉर्ड तोड़ रही है। सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों की हालत क्या है? यह तो आप रोज़ अखबारों और न्यूज़ में देख ही लेते हैं। अभी हाल में मध्यप्रदेश में व्यापम घोटाले के इंजन और बोगी को सीबीआई द्वारा जोड़ा गया और अब व्यापम नामक रेलगाड़ी के चालक ज़मानत के लिए कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं। यह है हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था, जहाँ डॉक्टर भी भ्रष्टाचार से बनते हैं। जब डॉक्टर भ्रष्टाचार से बनेंगे तो क्या स्वास्थ्य व्यवस्था भी ठीक हो पाएगी? यह प्रश्न इन राजनीतिक पार्टियों को नहीं सता रहा होगा परंतु इसका असर हर भारतीय पर पड़ रहा है। अभी हाल ही में दिल्ली के एक अस्पताल में जीवित बच्चो को मृत घोषित कर दिया गया। इसकी जाँच लंबित है और दोषी पाये जाने पर अस्पताल का पंजीयन निरस्त किया जा सकता है। गनीमत है कि परिजनों ने घर ले जाते वक्त बच्चे की हलचल देख ली, नहीं तो बच्चे को मरा हुआ समझ लिया जाता। दूसरे अस्पताल में ले जाने के बाद इस बच्चे की मौत हो गई। दिल्ली भारत की राष्ट्रीय राजधानी है और यदि देश की राजधानी में ऐसी घटना होती है तो आप दूरदराज़ के अस्पतालों के हाल का अंदाज़ा लगा सकते हैं। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के अस्पतालों में हुई मौतों की घटनाओं को अभी कुछ ही महीने बीते हैं।
राजनीतिक पार्टियों को सिर्फ चुनाव जीतने की पड़ी रहती है, चाहे वो नगर निकाय का चुनाव हो या संसद का या विधानसभा का। यहाँ तक कि छात्र संघ जैसे मामूली चुनाव में भी पूरी ताकत झोंक देती हैं ये पार्टियाँ। दूसरी ओर देश के नागरिकों की मौतें होती रहें, इन्हें कोई परवाह नहीं। आम जनता की सुविधा और देश की व्यवस्था को सुधारने के लिए ये कोई ठोस कदम नहीं उठाती हैं। आम जन की परेशानी को कैसे कम किया जाए? इसके लिए इनके पास कोई योजना नहीं, किंतु जनता को परेशान करने और अधिक से अधिक कर जनता से कैसे वसूला जाए इस काम में इनका गणित बहुत तेज़ है। इसलिए नये-नये कानून बनाती हैं पर उनका सख्ती से पालन नहीं करा पाती हैं। नोटबंदी और जीएसटी भी इसका ताज़ातरीन उदाहरण है। गुलामी के दौर में भी हमारे पूर्वज इन्हीं परेशानियों के कारण विरोध करने पर मजबूर हुये थे।
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि आजकल नेता चुनाव जीतने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपना रहे हैं। हाल के गुजरात चुनाव में एक नेता जी ने बोला कि सरदार बल्लभ भाई पटेल के साथ भेदभाव किया गया। शायद उन नेता जी का इतिहास का ज्ञान कमज़ोर है। कौन नहीं जानता कि सरदार बल्लभ भाई पटेल लौहपुरुष के नाम से जाने जाते थे और आज़ादी के बाद जाने कितनी रिसायतों को भारत में मिलाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उन्हें किसी पद की लालसा नहीं थी, वे सच्चे देश भक्त थे और उनके पास असली 56 इंच का सीना था। क्या कोई उनके साथ भेदभाव करने की सोच सकता था? अगर उन्हें पद का लालच होता तो इतनी रियासतों में से किसी भी रिसायत के राजा बनकर बैठकर जाते, और कोई कुछ नहीं कर पाता। ईमानदार तथा मज़बूत इरादों वाले सच्चे देशभक्त और सच्चे राष्ट्रवादी नेता थे हमारे सरदार बल्लभ भाई पटेल, उनके नाम को इस प्रकार चुनाव में इस्तेमाल करना बहुत ही शर्म की बात है और इससे हमारे देश की राजनीति कितने निचले स्तर पर पहुँच गई है इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं।
खैर, अभी अच्छी खबर यह है कि पिछली कुछ तिमाहियों से जारी गिरावट के बाद 6.3 फीसदी की आर्थिक वृद्धि के आंकड़े जारी किए गये हैं, जिससे सरकार काफी उत्साहित है और इसे अपने उठाए गए कदमों का नतीजा बता रही है। लेकिन कृषि, वानिकी और मत्स्य क्षेत्र में वृद्धि 2.3 से गिरकर 1.7 हो जाना किसानों के लिए परेशानी का कारण है। पर सरकारों को किसानों की परेशानी से कोई सरोकर नहीं होता, चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो। वो तो सिर्फ बड़े-बड़े उद्योगपतियों का ही हित साधती रहती है। गरीब और आम जनता की कभी कोई सुनवाई नहीं होती। यहाँ तो वही हाल है कि पैसा फेंक तमाशा देख।
कुछ मिलाकर कहा जाए तो देश में माहौल आज से 150 पहले जैसा हो चला है और अंतर सिर्फ इतना सा है कि तब हम अंग्रेज़ी सरकार के अधीन रहते थे और अब भारतीय सरकारों की गुलामी में रह रहे हैं। अंग्रेजी सरकार भी जैसी मर्जी वैसा कानून बनाती थी और अब भारतीयों द्वारा चुनी हुई सरकारें भी ऐसा ही कर रही हैं। अंग्रेज़ों को भी अपने नीति-नियमों का विरोध पसंद नहीं था और अब हमारी चुनी हुई सरकारों को भी नहीं है। विरोध करने वाला चाहे आम नागरिक हो या उन्हीं की पार्टी का कोई बड़ा नेता, वे किसी को भी वो तवज्जो नहीं देतीं। जाने क्या मजबूरी है ऐसे नेताओं की जो विरोध में बोलते तो हैं परंतु पार्टी के साथ बने भी रहते हैं!
विडंबना तो यह है कि देश की आम जनता भी जागरूक नहीं है और कुंभकरणी नींद में सोयी हुई हैं। हमारे यहाँ मँहगाई, किसानों की आत्महत्या, पेट्रोल-डीजल के दामों में वृद्धि, रसोई गैस के दामों में वृद्धि, तथा देश में व्याप्त भ्रष्टाचार व बढ़ते अपराधों जैसे मुद्दों के विरोध के लिए चाहे किसी के पास वक्त हो न हो परंतु क्रिकेट, बॉलीवुड और राजनीति करने के लिए हर किसी के पास पर्याप्त समय है। पाटीदार आंदोलन, जाट आंदोलन, नोटबंदी और अस्पतालों में हुई ढेर सारी मौतों और बाबा राम रहीम के केस के संबंध में आने वाले फैसले के वक्त इतनी जन-धन हानि हुई पर इसके खिलाफ आंदोलन करने कोई आगे नहीं आया, लेकिन आज एक ‘अप्रदर्शित’ फिल्म के खिलाफ उग्र विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, कलाकारों को जान से मारने की धमकियाँ दी जा रही हैं। निश्चित रूप से यह सारा खेल राजनीति प्रेरित है और इसलिए देश के नागरिकों को चाहिए कि 150 साल पुराने जज़्बे को पुन: अपने स्वभाव में लाएँ और जात-पात व भाषा-धर्म आदि के भेदभावों से मुक्त होकर पुन: एकजुट हों। हमें फिर से स्वदेशी आंदोलन चलाना होगा, यदि अपनी मांगों और अधिकारों का निराकरण नहीं हो रहा है तो फिर से असहयोग आंदोलन करना होगा। हमें अपनी ही चुनी हुई सरकारों को यह अहसास दिलाना होगा कि यह आज़ादी हमें यूँ ही नहीं मिली है, इसके लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत बलिदान दिया है, बहुत रक्त बहाया है। यह आज़ादी हमें आपस में लडऩे-भिडऩे के लिए नहीं मिली है, न ही देश के नागरिकों को आरक्षण व जात-पात में उलझाने के लिए मिली है। हमें अनेकता में एकता वाले भाव को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि यह देश एक मज़बूत इरादों वाला देश बने, न कि फिर से विभाजन की पीड़ा सहने वाला। यहाँ हमें एक बात और याद रखनी होगी कि ‘फूट डालो और राज करो’ जैसी सोच रखने वाले राजनीतिक दलों को सत्ता से दूर रखने में ही हर नागरिक की भलाई है।
अंत में सभी नागरिकों तथा सभी किसान भाइयों से निवेदन है कि देश में अंधे विकास की जो हवा बह रही है, उसकी बदौलत हमारे पर्यावरण को अकल्पनीय नुकसान हो रहा है, इस बारे में जागरूक होने की आवश्यकता है। अभी हाल ही में ‘कड़वी हवा’ नाम से जलवायु परिवर्तन पर एक फिल्म सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई है, आप देखना ज़रूर। आपको पता चलेगा कि किस तरह विकास के नाम पर हम अपने बच्चों का विनाश तय करने में जुटे हुए हैं। इसी फिल्म के अंत में गुलज़ार साहब की आवाज़ में एक कविता भी सुनाई गई है, जिसे आपके लिए नीचे उद्धृत कर रहा हूँ-
बंजारे लगते हैं मौसम
मौसम बेघर होने लगे हैं
जंगल, पेड़, पहाड़, समंदर
इंसां सब कुछ काट रहा है
छील-छील के खाल ज़मीं की
टुकड़ा-टुकड़ा बाँट रहा है
आसमान से उतरे मौसम
सारे बंजर होने लगे हैं
मौसम बेघर होने लगे हैं।
दरयाओं पे बाँध लगे हैं
फोड़ते हैं सर चट्टानों से
‘बांदी’ लगती है ये ज़मीन
डरती है अब इंसानों से
बहती हवा पे चलने वाले
पाँव पत्थर होने लगे हैं
मौसम बेघर होने लगे हैं।

इसे पढि़ए, सोचिए और इस पर अमल भी कीजिए क्योंकि जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए ज्ञान को व्यवहार में उतारना आवश्यक होता है। सभी से निवेदन है कि प्रकृति की व्यवस्था के साथ कदम से कदम मिलाकर चलेंगे तो कभी कोई परेशानी नहीं आएगी। एक नई उमंग के साथ आगामी 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाइए और यदि पैसे की भागमभाग से समय निकाल सकें तो पर्यावरण को बचाने के लिए कुछ पेड़ लगा कर गणतंत्र दिवस को सार्थक बना सकते हैं। ताकि हमारे साथ-साथ, प्रकृति का भी विकास हो सकें! कृषि परिवर्तन टीम की तरफ से आपको ढेर सारी शुभकामनाएँ। जय हिन्द, वन्देमातरम।
पवन नागर, संपादक

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