कहानी

मानुस हो तो वही…!

कथाकार: श्रद्धा श्रीवास्तव

मानुस हो तो वही…!

आकाश सँवलाया-सा लग रहा था। पेड़ चुपचाप खड़े थे। सूरज अपना पूरा ताप बिखेर कर इस समय तक छुप गया था। पसीने की चिप-चिप बादलों से कह रही थी-“बरस जाओ तो चैन मिले!” काम से घर की ओर जल्दी-जल्दी बढ़ते कदम अचानक थम से गए। मैदान की हरी-हरी घास बड़ी सुखदायी लग रही थी, और उससे भी भली लग रही थी बकरियों की खिलंदड़ी, उनका खेल। बीस-पच्चीस बकरियाँ। दस-बारह भैंसें। भैंसों पर सवार बगुले। भैंसें घास चर रही थीं और उनकी पीठ पर सवार बगुले कान के आसपास के कीड़े चुग रहे थे। ठस बुद्धि के लिए बदनाम भैंस और बुद्धिमान बगुले की दोस्ती पर बलिहारी जाने को दिल कर रहा था। गायों की लहराती पूँछ और उनके गले में बँधी घंटी से गूँजती टन-टन की आवाज़; सब मिलकर मनोरम दृश्य बना रहे थे। सुबह से भागते-दौड़ते हुए इस समय थोड़ा ठहर कर इन सबको निहारना बहुत अच्छा लग रहा था। पूरा मैदान आँखों में समा गया था। मैं वाकई मगन थी गाय, भैंस और बकरियों की भाव-भंगिमाओं में कि तभी किसी आशंका को भाँपकर उनके रखवाले अचानक से मेरे सामने प्रकट हो गए। “जी, नमस्ते…” मैंने झट हाथ जोड़ लिए और पूछा- “सब आपकी हैं?” करीब साठ साल की उमर वाले एक चौकीदार नीला गमछा, झक सफेद चौड़ी मोहरी वाला पायजामा और प्लास्टिक की काली चप्पल पहने तथा भिंची-भिंची-सी आँखों में सुरमा डाले हुए मेरे ठीक सामने खड़े थे। सुरमे भरी उनकी पनीली आँखों के पार कुछ पढ़ पाती इससे पहले ही उन्होंने बड़ी रोबदार आवाज़ में ठसक के साथ कहा- “हाँ साहिब, सब मेरी हैं। छब्बीस बकरियाँ, सत्रह भैंसें और ग्यारह गाएँ।”

“वाह! कुल चौवन… बहुत बड़ा परिवार है,” मैंने कहा।

उनके होंठों पर मंद-मंद मुस्कान फैल गयी। मेरे पूछने पर उन्होंने अपना नाम बताया ‘रशीद मियां’। यह भी बताया कि वे यहीं के बाशिंदे हैं, रायसेन के किले की ढलान की ओर मोतिहर तालाब के रास्ते पर पीढिय़ों से बसे हुए हैं।

“इतने सारे मवेशियों को आप पहचानते कैसे होंगे?” यह मेरा अनगढ़ सवाल था।

बदले में वे मुस्कुरा पड़े। फिर खुशी से चहकते हुए कहने लगे- “आप पहचानने की बात करती हैं, मैं तो इनकी रग-रग से वाकिफ  हूँ। आपके और हमारी तरह इन सबके अपने नाम भी हैं।”

मस्ता रही बकरियों को देखते हुए मैंने पूछा- “अच्छा! आपने इनके नाम भी रखे हैं?”

“हाँ, मेरी बकरियों के नाम हैं भूरी, कल्ली, पुतली, झबरी, सुल्ताना, रानी, दुलारी। गायों के नाम रामदुलारी, लछमी, रेशमी। भैसों के चमकी, भूरी…” उनकी आवाज़ में बच्चों का-सा उत्साह था।

मैंने टोका- “भूरी तो बकरी का भी नाम था!”

उन्होंने नामकरण का आधार बताया- “भूरे रंग की, इसलिए भूरी। चित्तेदार, तो झबरी। काली, तो कल्ली। ठसक वाली, मान करवाने वाली, तो रानी।”

“रशीद मियाँ! पुतली कौन-सी है?”

अनायास वे बकरियों के झुण्ड की तरफ  देखते हुए ज़ोर से आवाज़ देते हैं- “पुतली! झबरी! सुल्ताना!” और तीनों झट कुलाँचें भरते हुए दौड़ी आती हैं! एक रशीद मियाँ के तलवे पागुरने लगती है, एक पिछले पैरों पर खड़ी होकर छाती से लिपटने लगती है, तो एक हाथ चाटने लगती है।

“बस-बस, अब भागो।” उनका लडिय़ाना-दुलारना देख मेरे मन में अजब-सी हिलोरें उठने लगीं। वे बकरियाँ लौटकर फिर अपने दल में मिल गयीं।

मैंने कहा- “अब मैं पुकार कर देखती हूँ।”

अपनी आवाज़ को महीन और मुलायम बनाकर मैंने आवाज़ लगाई, “झबरी!” पर झबरी काहे को सुनती। मेरे इस प्रयास पर रशीद मियाँ हँसने लगे।

उन्होंने मुझे बताया कि छोटी नन्हीं बकरियों का $खास ख्याल रखना पड़ता है। नीम की गोलियाँ जन्म के बाद से उनके एक महीने की हो जाने तक देनी पड़ती हैं।

“क्या ये बाज़ार में मिलती हैं?”

“नहीं साहिब! मैं खुद बनाता हूँ। नीम की ताज़ा पत्ती कूटपीस कर। इससे पेट में पडेरे नहीं पड़ते।”

“पडेरे! यह क्या…?”

“अरे…! जैसे बच्चों को चुन्ना काटते हैं। एक-एक हाथ लंबे होते हैं पडेरे। कितनों की बकरियाँ तो इसी वजह से मर जाती हैं।”

“आपकी सभी प्यारियाँ तो मज़े से चर रही हैं। जब ये चरती हैं तब आप क्या सोचते हैं? मेरा कहने का मतलब है कि अपना समय कैसे काटते होंगे रशीद मियाँ?”

अनायास मेरे इस सवाल पर तो वह भड़क ही पड़े और आँखें तरेरते हुए बोले- “अरे! कितना चौकन्ना रहना पड़ता है आपको मालूम है? इनको हाँक लगाओ, पुचकारो… समय ही नहीं है दिन भर। अरे साहिब, सोचने की फुरसत है किसे! सुस्ताने लगे न तो बस खल्लास।”

थोड़ा रुककर वे फिर कहने लगे- “आजकल गाड़ी में लादकर जानवर चुराने वाले दिन-दहाड़े घूमते रहते हैं, जालिम कहीं के! बूचडख़ाने में जानवर को बेच देते हैं। रामप्रसाद की पाँच में से एक गाय का आज तक पता ही नहीं चला! इनके साथ बड़ा चुस्त-दुरुस्त और चौकन्ना रहना पड़ता है।”

रशीद मियाँ की चुस्ती-फुर्ती वाकई बेमिसाल थी। धीरे-धीरे रशीद मियाँ से बतियाते-बतियाते मैंने पूछ ही लिया, “आप क्या खाते हैं और कब?”

मेरे इस सवाल पर वे अपनी दिनचर्या बताते हैं- “नीम अंधेरे ही उठ जाते हैं। दातुन-कुल्ला कर चाय-माय पी, टट्टी-मट्टी गए, नहाए-धोए। दूध जितना ज़रूरी होता है, खुद ही दोहते हैं। दुहाने से पहले गुनगुने पानी से थन धोते हैं। तब तक दुल्हनें खाना तैयार कर दे देती हैं तो निकल पड़ते हैं नौ बजे घर से खा-पीकर। पहला फेरा तो तालाब का ही लेते हैं, जानवरों को भरपूर पानी पिलवाने के लिए। मोतीहार तालाब में ही इन्हें नहलाते हैं। नहाने का नंबर लगा है सबका, किसी का गुरुवार तो किसी का रविवार। इनको खूब पानी पिलवाकर ही मैदान की ओर ले जाते हैं। फिर शाम को लौट कर सात बजे खाना खाते हैं, हौदी में पानी भरते हैं, चारा बनाते हैं। चारा बदल-बदल कर देते हैं। मोटे अनाज, खलियाँ, चोकर-चूनी का अलग-अलग अनुपात। आखिर हम भी अपना स्वाद बदलते हैं न, उसी तरह इनको भी स्वाद लेने का हक है।”

एक गहरी साँस भरने के बाद वे फिर कहने लगते हैं- “घर लौटने पर इनको कंजी का तेल लगाते हैं। कंजी का तेल कड़वा होता है जिससे मच्छर नहीं काटते, वरना खा डालें रातों-रात।” एक गाय को सहलाते हुए बताते हैं, “यह रेशमी है; गाझिन है। परिवार में कुल पाँच गाझिन हैं। सब कार्तिक को जनेंगी।” रेशमी अपनी पूंछ रशीद मियाँ के शरीर को छुआ रही है।

”रशीद मियाँ! आपके कितने बच्चे हैं? वे भी आपकी कुछ मदद करते हैं?” मेरे सवाल में बच्चों का नाम आते ही उनके चेहरे के भाव बदल जाते हैं। उनकी उदास आँखों में उजाड़ पसरने लगता है। मैंने शायद उनकी दुखती रग को छू लिया था।

“’…अरे कहाँ! उन्हें तो बदबू आती है इनमें से। हाथ तक नहीं लगाते। हर वक्त ‘बेच दो-बेच दो; इस उम्र में आराम करो’ यही रटते रहते हैं। उन लोगों को अब यही चिंता रहती है कि लोग क्या कहेंगे। लेकिन मैंने भी लड़कों को खबरदार कर दिया है साहिब।” रशीद मियाँ कहते जा रहे हैं- “हमारा सारा जीवन जिनके सहारे बीता, अब वे ही उन्हें गैरज़रूरी लग रहे हैं! मुझे तो तरस आता है इन लोगों पर। मशीन का काम करते मशीन हुए जा रहे हैं सब। हाँ, उनकी अम्मी मेरे साथ हर पल खड़ी रहती है। छह बेटे हैं। अपने-अपने काम में लगे हैं। दो बड़े ऑटो चलाते हैं, दो मोटर मैकनिक हैं जबकि दो छोटे बिजली का काम करते हैं। अच्छा कमा लेते हैं। घर में सुविधा का हर सामान है। टीवी, फ्रिज, कूलर। लेकिन हर वक्त कहते रहते हैं- ‘अपने ढोर-डंगर बेचो। सारा दिन क्यों भटकते रहते हो अब्बू, आराम से खटिया में पड़े रहो।’ ”

“आप क्या कहते हो…?”

“यही कहता हूँ कि अपने जि़ंदा-जि़ंदी तो कभी नहीं बेचूँगा। उसके बाद की राम जाने…।”

तभी आसमान से बूँदा-बाँदी शुरू हो जाती है। मैं उदास मन और भारी कदमों से घर की ओर लौट पड़ती हूँ।

कथाकार: श्रद्धा श्रीवास्तव
प्रियदर्शनी हाईट्स
गुलमोहर कॉलोनी, भोपाल
मोबाइल 94254 24802
ईमेल: [email protected]

Tags

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Close