जब होगा ज़हरमुक्त अनाज हमारा,
तब होगा ज़हरमुक्त समाज हमारा।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मार्च में मौसम ने अपना तांडव दिखाया और किसानों की फसल को तेज़ बारिश और ओले के कारण काफी नुकसान हुआ। मौसम विभाग की मानें तो पिछले 12 सालों से मार्च में बारिश का सिलसिला है, यानि कि जो मावट दिसंबर में गिरती थी अब वह मार्च में गिरने लगी है और मौसम फायदा पहुँचाने की जगह नुकसान करने लगा है। फिर भी हम साल दर साल सबक नहीं सीख रहे हैं। हम समझने को तैयार नहीं हैं कि जलवायु परिवर्तन एक वास्तविक स्थिती है जिसे रोकना या नियंत्रित करना अब हमारे हाथ में नहीं है। हमारे हाथ में बस इतना है कि हम अब ऐसी खेती करें जो मौसम की हर तरह की प्रतिकूलता को झेलने में समर्थ हो। वर्तमान में हो रही रासायनिक व एकल फसल वाली खेती इसमें असमर्थ है, परंतु हमारे पूर्वजों द्वारा देशी बीज व देशी खाद से की जाने वाली बहुफसलीय जैविक या प्राकृतिक खेती जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के सामने डटकर खड़े होने में पूरी तरह सक्षम है।
हमारे भोजन के लिए सभी ज़रूरी चीजें किसानों के खेतों से आती हैं, और भारत में यह कोई छुपी बात नहीं है कि यहाँ रासायनिक खादों और कीटनाशकों का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। इन्हीं रसायनों के असंतुलित इस्तेमाल ने बीमारियों को आमंत्रित किया है और इंसानों की रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आई है और वर्तमान स्थिति में घर-घर बीमारी पहुंच चुकी है और बीमारियों पर मासिक खर्च स्थायी हो गया है। इस रसायन आधारित खेती के दुष्परिणाम जानते और समझते हुए भी हमारे देश के अधिकांश किसान रसायन आधारित एकल फसल प्रणाली में उलझे हुए हैं, जिसके कारण हमारे कृषि प्रधान देश को दलहन भी आयात करनी पड़ रही है। दलहन, जो कि नाइट्रोजन का भरपूर स्त्रोत है, उसका उत्पादन नहीं होने से यूरिया का भी आयात करना पड़ रहा है। दलहन का रकबा घटने से भूमि में नाइट्रोजन की कमी हो गई है और इसीलिए देश में यूरिया लेने के लिए लंबी-लंबी लाईनें लगने लगी हैं। अधिकांश किसान आवश्यकता से अधिक यूरिया अपनी ज़मीन को दे रहे हैं और उन्हें यह भी ज्ञात नहीं है कि जो यूरिया वो दे रहे हैं वो पौधों तक पहुँच भी रहा है या नहीं। दूसरी ओर एकल फसल प्रणाली के कारण खुद किसान को खाने योग्य अनाज, दाल, तिलहन इत्यादि की कमी झेलनी पड़ रही है और किसान पूरी तरह से बाज़ार पर निर्भर हो गया है। अब उसके पास अपने खुद के खाने के लिए गेंहूँ और चावल भी नहीं है जबकि वह इन दोनों अनाजों का भरपूर उत्पादन ले रहा है।
कोरोना जैसी महामारी के दौर से गुजर चुके हम सब लोगों के लिए आने वाला समय बीमारियों के मामले में कठिन होने वाला है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की समय-समय पर स्वास्थ्य संबंधित चेतावनियाँ इसकी ओर इशारा कर रही हैं। फिर भी अधिकांश जनसंख्या अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह बनी हुई है और फिर से अटरम सटरम खाने में लग गई है। कोरोना का दौर जैसे-तैसे गुज़र गया तो हम भी पुराने तौर-तरीकों पर फिर से लौट लाए। क्या हम एक और नई महामारी का इंतज़ार कर रहे हैं? या कोरोना से सबक लेकर हम अपनी जीवन-शैली और भोजन में परिवर्तन करने की दिशा में आगे कदम बढ़ा रहे हैं?
बाकी के अनाज, जैसे कि ज्वार, बाजरा, उड़द, तुअर, चना, मसूर, अलसी, मक्का, मूंग, सरसों, मुंगफली, तिल्ली इत्यादि तो अधिकांश किसानों के पास हैं ही नहीं क्योंकि इन फसलों में इतनी मेहनत है कि कोई इनको लगाना ही नहीं चाहता है। जब किसान के खेत में फसल लगी ही नहीं होगी तो वह उसकी थाली से भी दूर हो ही जाएगी। और यही कारण है कि आज बीमारियों ने गाँव-गाँव में अपने पैर पसार लिए हैं। अधिकांश गाँवों में रसायन आधारित एक फसल प्रणाली ने विविधता वाली खेती को पूरी तरह से निगल लिया है, जिसके कारण न केवल बीमारियों का आक्रमण बढ़ा है बल्कि किसानों की ज़मीन की सेहत भी खराब हुई है और भूमिगत जल-स्तर भी नीचे जा रहा है। खुद किसान परिवार भी रसायनयुक्त भोजन करने पर मजबूर है। अब हालात इतने विकट हो गए हैं कि छोटे-छोटे कस्बों में सर्वसुविधायुक्त अस्पतालों की बाढ़ आ चुकी है और फ्री चेक-अप कैम्प जगह-जगह लगाए जा रहे हैं।
पहला प्रश्र यह आता है कि इस रसायन आधारित एकल फसल प्रणाली का विकल्प क्या है? दूसरा प्रश्र यह है किसान खुद भोजन के मामले में आत्मनिर्भर कैसे होगा? और तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि समाज को रसायनयुक्त भोजन से निजात कैसे मिलेगी?
इन तीनों प्रश्नों का एक ही उत्तर है – देशी बीज व देशी खाद पर आधारित ‘ज़हरमुक्त खेती’ या ‘प्राकृतिक खेती’। यह वही खेती है जिसको हमारे पूर्वज किया करते थे और आजकल केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें किसानों को करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित कर रही हैं, इसलिए कर रहीं हैं क्योंकि अब रसायन आधारित एकल फसल प्रणाली के दुष्परिणाम सरकारों और देशवासियों के सामने आने लगे हैं।
प्राकृतिक खेती में सबसे पहले रसायन का इस्तेमाल बंद करना पड़ता है क्योंकि इन्हीं रसायनों के इस्तेमाल से ज़मीन में ज़रूरी जीवाणुओं का अस्तित्व खत्म हो गया है, जो कि भूमि के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। इसी कारण ज़मीन की उपजाऊ क्षमता भी कमज़ोर हो गई है और इन्हीं रसायनों के अधिक उपयोग से भोजन भी रसायनयुक्त हो गया है, जिसको खाने के बाद अनेकानेक बीमारियाँ होने लगी हैं। विभिन्न प्रकार की फसलें खेत में होने से विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की संख्या बनी रहती है। ये जीवाणु हमारी फसल और ज़मीन दोनों के लिए बहुत उपयोगी हैं। जीवाणु हमारी ज़मीन को स्वस्थ रखने का कार्य करते हैं, और यदि आपकी ज़मीन स्वस्थ रहेगी तो फसल भी स्वस्थ रहेगी।
प्राकृतिक खेती में दूसरा काम यह करना पड़ता है कि इसमें हमको बहुत सारी फसलों को लगाना होता है। बहुफसल लगाने से हमको बहुत सारे फायदे हैं। सबसे पहला फायदा तो यह है कि हम भोजन के मामले में आत्मनिर्भर हो जाते हैं। हम अपने खेत में अपने परिवार की ज़रूरत की हर वो खाद्य सामग्री लगा सकते हैं जिसकी हमारे परिवार को ज़रूरत हो, मसलन सभी प्रकार के अनाज, दाल, तिलहन, फल, सब्जी, मसाले इत्यादि। रसायन आधारित एकल फसल प्रणाली में एक ही फसल का उत्पादन होता है जिससे किसान को अन्य चीज़ों के लिए बाज़ार पर आश्रित होना पड़ता है। बहुफसल का दूसरा फायदा यह कि बहुत सारी फसलों के कारण खेत में जैव विविधता बढ़ती है तो बहुत सारे सहायक जीव हमारे खेत में आते हैं जो दुश्मन कीटों से हमारी फसल को बचाने में सहायक होते हैं। इससे हमें रसायनिक दवाईयों की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं पड़ती है और हमारी फसल ज़हरमुक्त रहती है, जिससे हमारा परिवार भी स्वस्थ रहता है और हमारे ग्राहक भी।
बहुफसल लगाने का तीसरा फायदा यह है कि साल दर साल फसल चक्रण होने से हमारी ज़मीन की उपजाऊ शक्ति बनी रहती है।
प्राकृतिक खेती का एक फायदा यह भी है कि हम कम पानी में खेती कर सकते हैं और ज़मीन की ऊपरी परत नरम होने से बारिश का पानी भी ज़मीन में जाने लगता है, जिससे जल स्तर नीचे नहीं जाता है। इस प्रकार हम भविष्य में पानी की समस्या से बच सकते हैं।
कोरोना काल के बाद ग्राहकों में भी रसायनमुक्त भोजन के लिए जागरूकता बढ़ी है और अब केमिकल फ्री अनाज, दलहन, तिलहन की माँग बहुत तेजी से बढ़ रही है। बहुत से शहरों में अलग से बाज़ार भी लगने लगे हैं। उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश के इन्दौर में ‘जैविक सेतु’ तथा भोपाल में ‘अनंत मंडी’ में आप ज़हरमुक्त अनाज, दाल, तिलहन, फल एवं सब्जी बेच व खरीद सकते हैं।
अब लगभग देशभर के तमाम जिलों में प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों की संख्या में इज़ाफा हो रहा है। परंतु अभी भी अधिकांश किसान रसायन आधारित एकल फसल प्रणाली को पकड़े हुए हैं, और जब तक ये अधिकांश किसान प्राकृतिक खेती की ओर अग्रसर नहीं होंगे तब तक समाज को ज़हरमुक्त भोजन नहीं मिलेगा। इन किसानों को ही नहीं बल्कि ग्राहकों को भी अपनी मानसिकता में परिवर्तन करना पड़ेगा, तब जाकर ज़हरमुक्ति की दिशा में कार्य हो सकेगा।
कुल मिलाकर कहा जाए तो किसान और ग्राहक दोनों मिलकर ही हमारे समाज को ज़हरयुक्त भोजन से निजात दिला सकते हैं। यदि ग्राहक किसान से कहे कि आप हमारे लिए ज़हरमुक्त अनाज, दिलहन, दलहन, फल एवं सब्जी का उत्पादन कीजिए और हम आपको उसका सही दाम देंगे तो किसान क्यों नहीं उगाएगा यह सब। इससे ग्राहक भी खुश और किसान भी खुश। ग्राहक को ज़हरमुक्त भोजन मिलेगा और किसान को अपनी फसल का उचित दाम।
इसका सीधा मतलब यह है कि ग्राहक को अपना एक फैमिली फार्मर बनाना होगा, तभी जाकर किसानों को भी फसलों के सही दाम मिलेंगे और ग्राहकों को शुद्ध एवं ज़हरमुक्त भोजन मिलेगा। इस जुगलबंदी से दोनों का फायदा होगा। इस तरह हो पाएगा हमारा समाज ज़हरमुक्त और फिर हम कह पाएँगे कि ‘जब होगा ज़हरमुक्त अनाज हमारा, तब होगा ज़हरमुक्त समाज हमारा।’
पवन नागर, संपादक
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