औषधीय और सुगंध पौधों का महत्व एवं खेती
भारतवर्ष में औषधीय एवं सुगंध पौधों का इतिहास काफी पुराना रहा है, क्योंकि चिकित्सा एवं सुगंध हेतु इन पौधों का उपयोग होता रहा है। इनके व्यापक एवं व्यावसायिक कृषिकरण की तरफ जन सामान्य में जितनी रुचि वर्तमान में जाग्रत हुई है, उतनी संभवत: पहले कभी नहीं हुई थी। वर्तमान में जहाँ कृषक परंपरागत फसलों को छोड़कर औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती की ओर आकर्षित होने लगे हैं, वहीं उच्च शिक्षा प्राप्त ऐसे युवक भी जो अभी तक खेती-किसानी के कार्य को केवल ‘कम पढ़े-लिखे लोगों का व्यवसाय’ मानते थे, औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती अपनाकर गौरवान्वित महसूस करने लगे हैं।
औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती कर किसान आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो सकते हैं क्योंकि भारत में औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती करने के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं। औषधीय पौधों का उपयोग आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 80 प्रतिशत जनसंख्या परंपरागत औषधियों से जुड़ी हुई है। वर्तमान समय में औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती करने की संभावनाएँ अधिक हैं क्योंकि भारत की जलवायु में इन पौधों का उत्पादन आसानी से लिया जा सकता है। किसानों को औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती के बारे में संपूर्ण जानकारी का अभाव होता है, जिसके चलते किसान परंपरागत खेती करने को मजबूर हैं। परंपरागत खेती की अपेक्षा औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती अधिक लाभकारी एवं टिकाऊ है, क्योंकि इन फसलों को परंपरागत फसलों की अपेक्षा कम खाद-पानी और कम देखरेख की आवश्यकता पड़ती है। औषधीय एवं सुगंध फसलों में कीटों व बीमारियों का प्रकोप अन्य फसलों की अपेक्षा कम होता है। औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती उपजाऊ मृदाओं के अलावा बंजर भूमि में भी की जा सकती है। चूँकि इनकी खेती के लिए अधिक संसाधनों की आवश्यकता नहीं पड़ती है, इसलिए खेती में लगने वाली लागत कम हो जाती है और मुनाफा ज़्यादा होता है। सुगंध पौधों से प्राप्त होने वाले इसेंशियल ऑइल की देशी बाज़ार के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी माँग बढ़ रही है। वहीं भारतीय औषधीय पौधों की भी विश्व बाज़ार में बहुत माँग है। औषधीय एवं सुगंध पौधों पर देश में सबसे प्रभावी शोध भारत सरकार की वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के अंतर्गत केन्द्रीय औषधीय एवं सुगंध पौधा संस्थान (सीमैप), लखनऊ और इससे सबंधित अनुसंधान केन्द्र सीएसआईआर-सीमैप, अनुसंधान केन्द्र, पंतनगर; सीएसआईआर-सीमैप, अनुसंधान केन्द्र, पुरारा; सीएसआईआर-सीमैप, अनुसंधान केन्द्र, बैंगलोर; और सीएसआईआर-सीमैप, अनुसंधान केन्द्र, हैदराबाद के अनुसंधान और विकास के द्वारा एवं घरेलू और ग्रामीण विकास कार्यक्रम के तहत जारी प्रयासों के कारण औषधीय एवं सुगंध फसलों की खेती पर ध्यान आकर्षित किया जा रहा है।
औषधीय पौधों का महत्व:
दुनिया भर में चिकित्सा प्रणाली मुख्य रूप से दो अलग-अलग धाराओं के माध्यम से काम करती है:- (१) स्थानीय या आदिवासी धारा और (२) कोडित और संगठित चिकित्सा प्रणाली [जैसे- आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी और अम्ची (तिब्बती औषधि)]। औषधीय पौधों को भोजन, औषधि, खुशबू, स्वाद, रंजक और भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में अन्य मदों के रूप में उपयोग किया जाता है। औषधीय पौधों का महत्व उसमें पाए जाने वाले रसायन के कारण होता है। औषधीय पौधों का उपयोग मानसिक रोगों, मिर्गी, पागलपन तथा मन्द-बुद्घि के उपचार में किया जाता है। औषधीय पौधे कफ एवं वात का शमन करने, पीलिया, आँव, हैजा, फेफड़ा, अण्डकोष, तंत्रिका विकार, दीपन, पाचन, उन्माद, रक्त शोधक, ज्वर नाशक, स्मृति एवं बुद्घि का विकास करने, मधुमेह, मलेरिया एवं बलवर्धक, त्वचा रोगों एवं ज्वर आदि में लाभकारी हैं।
सुगंध पौधों का महत्व:
सुगंध पौधों से प्राप्त होने वाले इसेंशियल ऑइल का उपयोग आधुनिक सुगंध एवं सौंदर्य प्रसाधन उद्योग में व्यापक रूप में हो रहा है। सुगंध पौधों का तेल मुख्यत: इत्र, साबुन, धुलाई का साबुन, घरेलू शोधित्र, तकनीकी उत्पादों तथा कीटनाशक के रूप में होता है। साथ ही सुगंध तेल का उपयोग चबाने वाले तंबाकू, मादक द्रवों, पेय पदार्थों, सिगरेट तथा अन्य विभिन्न खाद्य उत्पादों के बनाने में भी किया जाता है। सुगंध पौधे, जैसे कि पुदीना के तेल का उपयोग च्यूइंगम, दंतमंजन, कन्फेक्शनरी और भोजन पदार्थों में होता है। खस जैसी सुगंध फसल से सुगन्धित द्रव तथा सुगन्ध स्थिरक व फिक्सेटीव के रूप में प्रयोग होता है।
औषधीय एवं सुगंध पौधों की व्यावसायिक खेती के अवसर एवं लाभ
भारत में इन पौधों की खेती के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं। आज इन पौधों को खेती के बड़े पैमाने पर वैकल्पिक औषधि एवं सुगंध के रूप में उपयोग किया जाता है। औषधीय एवं सुगंध पौधों के लिए वैश्विक/राष्ट्रीय बाज़ार की उपलब्धता का होना भी इन पौधों की खेती के लिए उत्तम है। भारत में इन पौधों की खेती के लिए कृषि-प्रौद्योगिकियों, प्रसंस्करण प्रौद्योगिकियों की उपलब्धता का होना भी खेती करने के लिए कृषकों को आसान बनाता है। औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती से टिकाऊ आधार पर लाभप्रद रिटर्न प्राप्त किया जा सकता है। भारत में उत्पादन होने वाला सुगंध पौधों का तेल फ्रांस, इटली, जर्मनी व संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात किया जाता है। आज देश के हज़ारों किसान औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती करके अधिक मुनाफा कमा सकते हैं, जिससे उनकी आय में वृद्धि होगी। आज देश के कई राज्यों में औषधीय एवं सुगंध फसलों की खेती के लिए किसान की रुचि बढ़ी है एवं किसान पारंपरिक खेती के साथ फल, सब्जी और पशुपालन के साथ ही औषधीय एवं सुगंधित पौधों की खेती की तरफ रुझान तेजी से कर रहे हैं, और इसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती निम्नलिखित लाभ प्रदान करती है:
औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती की लागत को कम करने के लिए एवं मुनाफे को बढ़ाने के लिए बाय-प्रॉडक्ट्स को प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है। औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती से कार्य-बल का कुशल उपयोग किया जा सकता है। इन पौधों की खेती से निर्यात के माध्यम से विदेशी मुद्रा को अर्जित किया जा सकता है। एकीकृत कृषि प्रणालियों को अपनाकर पारंपरिक कृषि/बागवानी फसलों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध लाभ कमाया जा सकता है। अन्य पारंपरिक फसलों की तुलना में औषधीय एवं सुगंध फसलों में कीटों और रोगों का प्रकोप कम देखने को मिलता है। इन फसलों की खेती कम उपजाऊ और समस्याग्रस्त मृदाओं में भी की जा सकती है। ये फसलें और प्रौद्योगिकियाँ किसान-अनुकूल और पर्यावरण-अनुकूल हैं। औषधीय एवं सुगंध फसलों पर घरेलू जानवरों और पक्षियों द्वारा कम से कम नुकसान पहुँचता है। औषधीय एवं सुगंध पौधों से प्राप्त होने वाले उत्पादों को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
औषधीय एवं सुगंध पौधों की व्यावसायिक खेती
सेन्ना, अश्वगंधा, तुलसी, कालमेघ, पिप्पली, आंवला, सफेद मूसली, घृतकुमारी, आर्टीमीसिया, स्टीविया, जावा घास या सिट्रोनेला, लेमन ग्रास, रोशा घास या पामारोजा, खस या वेटीवर, नींबू-सुगंधित गम, जेरेनियम, मेन्थॉल मिंट, पुदीना, जंगली गेंदा, रोजमेरी, पचौली और पत्थरचूर आदि आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण औषधीय एवं सुगंध फसलें हैं जिनकी व्यावसायिक खेती भारत के आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, आसाम, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश आदि विभिन्न राज्यों में मुख्य रूप से की जा रही है। भारत में कुछ महत्वपूर्ण औषधीय एवं सुगंध पौधों की व्यावसायिक खेती निम्न प्रकार से की जा सकती है-
सोनामुखी:
सनाय, सोनामुखी, सेन्ना का पत्ता या सेन्ना बहुवर्षीय एवं झाड़ीनुमा औषधीय पौधा है। इसकी पत्तियाँ एवं फलियाँ रेचक गुण की अच्छी स्त्रोत हैं, जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में सनाय की माँग बढ़ती जा रही है। सनाय 70-100 सेंटीमीटर तक बढ़ता है तथा 2-3 वर्ष तक उपज देता है। सोनामुखी के मुख्य सक्रिय घटक सेनोसाइड-ए, सेनोसाइड-बी, सेनोसाइड-सी एवं सेनोसाइड-डी हैं। वर्तमान में भारत में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात और राजस्थान मिलकर सालाना लगभग 7500 टन सनाय का उत्पादन करते हैं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में अभी इसकी खेती छोटे स्तर पर की जा रही है। प्राय: सभी प्रकार की लाल दोमट एवं जलोढ़ मृदाएँ इसकी खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं, फिर भी रेतीली दोमट मिट्टी जिसका पी.एच. मान 7.0-8.5 के मध्य हो, सर्वोत्तम रहती है। इसकी खेती के लिए ऐसे स्थानों से बचना चाहिए जहाँ जल भराव होता हो। इसकी खेती के लिए सिम-सोना नाम की एक उन्नतशील किस्म है। जुते हुए खेत को पाटा लगाकर समतल कर लेना चाहिए। खेत की तैयारी के पश्चात सनाय की बुवाई साल में दो बार की जा सकती है। इसकी बुवाई का समय जुलाई से सितंबर तक उपयुक्त रहता है तथा फरवरी-मार्च में सीमित सिंचाई में भी बुवाई की जा सकती है। एक हैक्टेयर में बुवाई हेतु लगभग 15-25 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है। इसकी बुवाई हल या ट्रेक्टर द्वारा सीड ड्रील से 1.5-2 सेंमी. की गहराई पर करें। हालाँकि छिड़काव पद्धति से भी बुवाई सफलता-पूर्वक की जा सकती है।
सामान्यत: सूखे या पानी में भिगोकर सुखाए गए बीजों को छिटक कर बुवाई की जाती है। बुवाई करते समय कतार से कतार की दूरी 30 सेंमी. से अधिक नहीं होनी चाहिए तथा पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंमी. रखनी चाहिए। बुवाई के पश्चात खेत में हल्की सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। गोबर की खाद 10-12 टन, नाइट्रोजन 40 किग्रा., फॉस्फोरस 40 किग्रा. एवं पोटाश 40 किग्रा. प्रत्येक कटाई के बाद डाल देना चाहिए। सिंचित फसल के रूप में 3-4 हल्की सिंचाई कर इससे अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है। शुष्क वातावरण के दौरान सोनामुखी में किसी प्रकार के कीट एवं बीमारी का प्रकोप नहीं होता है परन्तु कभी-कभी पत्ती खाने वाली सूंडी, सफेद मक्खी, फली बेधक आदि कीट तथा डैंपिंग ऑफ नामक रोग का प्रकोप हो जाता है, अत: इनके नियन्त्रण के लिए किसी उपयुक्त कीटनाशी एवं फफूंदनाशी रसायन का प्रयोग करना चाहिए। सोनामुखी की बिजाई के लगभग 90-110 दिनों के उपरान्त इसकी पत्तियाँ काटने लायक हो जाती हैं। पौधों की कटाई तेज़ धार वाले हँसिए द्वारा ज़मीन से तीन इंच ऊपर से करनी चाहिए, ताकि उसमें आसानी से दोबारा पत्ते आ जाएँ। प्रथम कटाई से 50 से 75 दिन के अन्तराल पर इस फसल की अगली कटाई करनी चाहिए। सिंचाई एवं खेती-बाड़ी के उचित प्रबंधन से सिंचित क्षेत्र के एक हेक्टेयर की फसल से 10 क्विंटल सनाय की सूखी पत्तियाँ तथा 5 क्विंटल फलियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।
अश्वगंधा:
इसका वैज्ञानिक नाम ‘विथानिया सोमानिफेरा’ है। अश्वगंधा एक मध्यम लंबाई (40 सेमी. से 150 सेमी.) वाला बहुवर्षीय पौधा है। इसका फल बेरी मटर के समान दूध युक्त होता है, जो कि पकने पर लाल रंग का होता है। जड़ें 30-45 सेमी. लंबी तथा 2.5-3.5 सेमी. मोटी मूली की तरह होती हैं। भारत के राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं हिमाचल प्रदेश आदि प्रदेशों में अश्वगंधा की व्यावसायिक खेती की जा रही है। इनमें से आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान और मध्य प्रदेश में अश्वगंधा की खेती बड़े स्तर पर की जा रही है। इसके पौधों के अच्छे विकास के लिए 20-35 डिग्री तापमान तथा 500-750 मिमी. वार्षिक वर्षा होना आवश्यक है। अश्वगंधा फसल की बुवाई अगस्त और सितंबर माह में की जाती है। 10-12 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता है। अश्वगंधा के बीजों को खेत में छिटकवाकर या पंक्तियों में पौध लगानी चाहिए। अच्छी पैदावार के लिए पौधे से पौधे की दूरी 5 सेमी. तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सेमी. रखी जानी चाहिए।
सीएसआईआर-केंद्रीय औषधीय तथा सुगंधित पौधा संस्थान (सीमैप), लखनऊ द्वारा विकसित किया गया है, जिनमें मुख्य प्रजातियाँ चेतक, प्रताप, पोषिता, रक्षिता और निमितली हैं। जड़ की अच्छी बढ़त के लिए 10 से 12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। अश्वगंधा की खेती सिंचित एवं असिंचित दोनों ही दशाओं में की जाती है। असिंचित अवस्था में जड़ों की बढ़वार अधिक होती है। अश्वगंधा की फसल अप्रैल-मई में 240-250 दिन के पश्चात खुदाई के योग्य हो जाती है। खेत में कुछ स्थानों से पौधों को उखाड़कर उनकी जड़ों को तोड़कर देखना चाहिए। यदि जड़ आसानी से टूट जाए और जड़ों में रेशे न हों तो समझ लेना चाहिए कि फसल खुदाई हेतु तैयार है। जड़ों के रेशेदार हो जाने पर जड़ की गुणवत्ता में कमी आ जाती है। संपूर्ण पौधे को उखाड़ा जाता है और जड़ों को शीर्ष से 1-2 सेमी. छोड़कर काटकर अलग कर लिया जाता है। व्यावसायिक खेती के तहत एक हेक्टेयर फसल से औसतन लगभग 400 से 500 किग्रा सूखी जड़ें और 50 से 60 किग्रा बीज प्राप्त किया जा सकता है।
कालमेघ:
इसका वैज्ञानिक नाम ‘एंड्रोग्राफिस पैनिकुलाटा’ है। कालमेघ की पत्तियों में कालमेघीन नामक एल्कलॉइड पाया जाता है, जिसका औषधीय महत्व होता है। भारत में यह मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल राज्य में पाया जाता है। मध्यप्रदेश में यह बहुतायत से पाया जाता है। कालमेघ को विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। इसकी खेती करने के लिए दोमट से लेकर लेटेराईट प्रकार की मृदाएँ उत्तम मानी जाती हैं। यह फसल जल भराव सहन नहीं कर सकती है। नम छायादार स्थानों और शुष्क जंगलों में भी यह पौधा अच्छी तरह से बढ़ सकता है। एक हेक्टेयर में कालमेघ लगाने के लिए 250 ग्राम बीज 10 मीटर लंबी तथा 2 मीटर चौड़ी तीन क्यारियों में बोते हैं। इसके बीजों का अंकुरण 5-7 दिनों बाद प्रारंभ हो जाता है। कालमेघ की नर्सरी करने के लिए किसी छायादार स्थान का चुनाव करना अच्छा रहता है ताकि मई और जून की तेज़ धूप से पौध को बचाया जा सके। पौध 32-35 दिनों के बाद रोपाई के लिए तैयार हो जाती है। समतल खेत में क्यारियों को बनाकर पौध की रोपाई 20 जून से 10 जुलाई के मध्य करना सर्वोत्तम रहता है।
पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी. तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 15 सेमी. अथवा पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी. तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेमी. रखनी चाहिए। रोपाई के तुरंत बाद वर्षा न होने की स्थिति में सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। आवश्यकतानुसार 2-3 निराई-गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए। सिम-मेघा कालमेघ की अधिक उत्पादन देने वाली सीएसआईआर-केन्द्रीय औषधीय तथा सुगंध पौधा संस्थान (सीमैप), लखनऊ द्वारा विकसित एक उन्नतशील प्रजाति है। कालमेघ फसल की बुवाई/रोपाई के लगभग 90-110 दिनों के उपरान्त फसल काटने लायक हो जाती है। यदि यह वार्षिक फसल के रूप में (मई/जून) उगाया गया है, तो सितंबर के अंत में फसल की कटाई करना उपयुक्त रहता है। और यदि फसल बहुवर्षीय उगाई गयी है, तो फसल की वर्ष में 2 बार (अगस्त एवं दिसंबर में) कटाई की जाती है। अच्छी प्रकार से उगाई गयी फसल से 3.5 से 4.0 टन प्रति हेक्टेयर तक सूखी शाक प्राप्त की जा सकती है।
तुलसी:
तुलसी का वैज्ञानिक नाम ‘ओसिमम सैंक्टम’ है। तुलसी एक सुगंधित एवं औषधीय वार्षिक पौधा है, जिसके पौधे की ऊँचाई 30-60 सेमी. तक होती है। भारत के विभिन्न राज्यों, जैसे मध्यप्रदेश, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और तमिलनाडु में भी इसके महत्वों को देखते हुए इसकी खेती की जा रही है। इसकी खेती करने के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी जाती है। इसकी खेती करने के लिए गर्म एवं नम जलवायु उपयुक्त रहती है। खेत की तैयारी के ही समय सड़ी हुई गोबर की खाद 10-15 टन/हेक्टेयर खेत में डालकर अच्छी तरह मिला देना चाहिए। तुलसी की व्यावसायिक खेती बीज प्रवर्धन द्वारा की जाती है। नर्सरी करने से पहले 15&4&9 फुट आकार में बीज को डालना चाहिए, और 10-15 किलोग्राम गोबर की खाद प्रति क्यारी डाल देनी चाहिए। 20 अप्रैल से 15 मई के मध्य नर्सरी करना सर्वोत्तम रहता है। एक हेक्टेयर तुलसी लगाने के लिए 300 ग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। इसके बीजों का अंकुरण 7-10 दिनों बाद प्रारंभ हो जाता है। पौध 30-35 दिनों के बाद रोपाई के लिए तैयार हो जाती है। समतल खेत में क्यारियों को बनाकर पौध की रोपाई करने के लिए जुलाई माह सर्वोत्तम रहता है। पौधे से पौधे की दूरी 40 सेमी. तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 40 सेमी. रखनी चाहिए। रोपाई के तुरंत बाद वर्षा न होने की स्थिति में सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। इस फसल के अंतर्गत दो प्रकार की किस्में उगाई जाती हैं- (१) ग्रीन टाइप (श्री तुलसी)- सिम-आयु एवं सिम-कंचन (२) बैंगनी प्रकार (कृष्णा तुलसी)- सिम-अंगना तुलसी की अधिक उत्पादन देने वाली सीएसआईआर-केन्द्रीय औषधीय तथा सुगंध पौधा संस्थान (सीमैप), लखनऊ द्वारा विकसित उन्नतशील प्रजातियाँ हैं।
फसल से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए खेत की तैयारी के समय रोपाई के पहले नत्रजन 20 किग्रा., फॉस्फोरस 40 किग्रा. एवं पोटाश 40 किग्रा. की खुराक प्रति हेक्टेयर दी जाती है, और नाइट्रोजन की 40 किग्रा. शेष खुराक (टॉप ड्रेसिंग) रोपाई के बाद दो बराबर भागों में देना चाहिए। अधिक उपज प्राप्त करने के लिए कम से कम सप्ताह में एक बार सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। आवश्यकतानुसार 2-3 निराई-गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए। तुलसी की कटाई रोपाई के 10-12 सप्ताह में करने से अच्छी उपज प्राप्त होती है। फसल की कटाई दराती के द्वारा ज़मीन से 15-20 सेमी. का ऊपरी भाग छोड़कर करनी चाहिए, जिससे अगली कटाई के लिए नए पत्ते एवं शाखाएँ आ सकंे। आम तौर पर इसकी फसल की 2-3 कटाई की जा सकती हैं। पहली फसल की कटाई तब की जाती है जब पौधों में फूल पूरे खिले दिखाई देने लगें, और बाद की फसलों की कटाई 60-70 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए। अच्छी प्रकार से उगाई गयी फसल से 15 से 25 टन/हे. तक शाक एक वर्ष में दो या तीन फसलों की कटाई से प्राप्त किया जा सकता है, जिससे 90 से 120 किग्रा./हेक्टेयर तेल प्राप्त होता है।
लेमन ग्रास:
व्यापारिक महत्व के सुगन्धित तेल उत्पादन करने वाली प्रमुख घासों में नींबू घास (लेमनग्रास) का प्रमुख स्थान है, जिसका वानस्पतिक नाम ‘सिंबोपोगोन फ्लक्सुओसस’ है। लेमनग्रास की पत्तियाँ रेखीय, लगभग 150 सेंमी. लंबी और 1.7 सेमी. चौड़ी होती हैं। लेमनग्रास पौधे की ऊँचाई 1-3 मी. तक होती है। लेमनग्रास तेल के मुख्य सक्रिय घटक सिट्राल-ए एवं सिट्राल-बी हैं। लेमनग्रास की खेती के लिए उष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है। लेमनग्रास एक बहुवर्षीय पौधा है तथा एक बार लगा देने के बाद 4-6 वर्ष तक अधिक पैदावार देता है। अत: रोपाई से पूर्व खेत को भली-भाँति तैयार करना अति आवश्यक है। आखिरी जुताई के समय सड़ी हुई गोबर की खाद 10-15 टन/हेक्टेयर की दर से भली-भाँति मिट्टी में मिला देना चाहिए। लेमनग्रास का प्रवर्धन बीज तथा स्लिप्स के द्वारा किया जाता है। स्लिप्स तैयार करने के लिए एक वर्ष पुराने पौधे अथवा पुरानी फसल के झुण्ड निकालकर उसमें से एक-एक कलम अलग कर ली जाती है। इन कलमों को स्लिप्स कहते हैं। स्लिप्स को तैयार करते समय हरी पत्तियों को काटकर अलग कर देना चाहिए, साथ ही नीचे की सूखी पत्तियों को एवं लंबी जड़ों को काटकर अलग कर देना चाहिए।
इनकी लंबाई 15-20 सेमी. रखनी चाहिए। लेमनग्रास की सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्था होने पर फरवरी से मार्च तक रोपाई की जा सकती है। रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई अति आवश्यक है। असिंचित दशा में उपयुक्त समय जुलाई से अगस्त होता है। स्लिप्स को 5 सेमी. की गहराई पर 60 सेमी. पंक्ति से पंक्ति की दूरी एवं 45 सेमी. पौधे से पौधे की दूरी पर रोपित किया जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए 50,000-55,000 स्लिप्स पर्याप्त रहती है। कुछ उन्नतशील किस्मों, मसलन प्रगति, प्रमान, कृष्णा, चिरहरित, टी-1, नीमा, सुवर्ण, कॉवेरी एवं जी आर एल-1 को सीएसआईआर-केंद्रीय औषधीय और सुगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित किया गया है। अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए 100 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस एवं 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष डालना चाहिए। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में एक महीने में एक बार सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। लेमनग्रास की रोपाई के 35-40 दिनों में खरपतवार का नियंत्रण किया जाना अति आवश्यक कार्य है। सामान्यत: वर्ष में 2-3 बार निराई एवं गुड़ाई की आवश्यकता होती है। पहली कटाई लगभग 100-120 दिन बाद की जाती है। इसके बाद 90 दिन में कटाई की जाती है। मिट्टी के उपजाऊपन और उर्वरक की मात्रा के आधार पर कटाई की संख्या बढ़ जाती है। पहले वर्ष में लगभग 3 कटाई की जा सकती हैं। उसके बाद प्रत्येक वर्ष में चार कटाई की जाती हैं। लेमनग्रास फसल की कटाई ज़मीन से 10-15 सेमी. की ऊँचाई से करनी चाहिए। हरी घास का उपयोग तेल निकालने में होता है। लेमनग्रास के सभी हरे भागों में तेल पाया जाता है, परंतु पत्तियों में सबसे अधिक पाया जाता है। इसलिए पूरा ऊपरी भाग आसवन के लिए उपयोगी होता है, जिससे 200 से 250 कि.ग्रा. तेल प्रतिवर्ष/हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है।
रोशा घास या पामरोज़ा:
रोशा घास या पामरोज़ा एक बहुवर्षीय सुगंधित घास है, जिसका वानस्पतिक नाम ‘सिंबोपोगान मार्टिनाई’ तथा प्रजाति मोतिया है। रोशा घास 4 वर्ष तक अधिक उपज देता है, इसके पश्चात तेल का उत्पादन कम होने लगता है। इसका पौधा 10 डिग्री से 45 डिग्री सेल्सियस तक तापमान सहन करने की क्षमता रखता है। रोशा घास सूखा सहिष्णु तथा 150-200 सेमी. तक लंबी होती है और सूखा की निश्चित अवधि का सामना और अद्र्धशुष्क क्षेत्रों में एक वर्षा आधारित फसल के रूप में इसकी खेती की जा सकती है। रोशा घास तेल के मुख्य सक्रिय घटक जिरेनियाल एवं जिरेनाइल एसीटेट है। रोशा घास की कुछ उन्नतशील किस्मों को सीएसआईआर-सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित किया गया है, जिनमें मुख्य प्रजातियाँ पीआरसी-1, तृष्णा, तृप्ता, वैष्णवी और हर्ष हैं। उचित जल निकास वाली मृदाएँ, जिनका पीएच मान 7.5-9 तक हो, उनमें इसकी अच्छी पैदावार की जा सकती है। रोशा घास बीज के माध्यम से लगाई जा सकती है। बीज को रेत के साथ मिलाकर 15-20 सेमी. की दूरी पर नर्सरी की जाती है तथा नर्सरी को लगातार पानी छिड़काव के द्वारा नम रखा जाता है। बीज द्वारा रोपण विधि से एक हेक्टेयर के लिए 2.5 किलो बीज की आवश्यकता होती है और नर्सरी करने का सर्वोत्तम समय अप्रैल-मई होता है। पौध 30 -35 दिनों के बाद रोपाई के लिए तैयार हो जाती है, जिसको सामान्य दशाओं में 60&60 सेमी की दूरी पर लगाते हैं।
असिंचित अवस्था में 30&30 सेमी. की दूरी पर लगाते हैं। रोशा घास की रोपाई मानसून के आगमन (जून से अगस्त अंत) तक कर देनी चाहिए। पहली सिंचाई रोपण के तुरंत बाद करनी चाहिए। वर्षा ऋ तु में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। गर्मी के मौसम में 3-4 सिंचाई तथा शरद ऋतु में दो सिंचाई पर्याप्त रहती हैं, हालाँकि कटाई से पहले सिंचाई बंद कर देना चाहिए। प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। तेल रोशा घास के सभी भागों में पाया जाता है, जैसे- फूल, पत्ती, तना। पर इनमें से फुल वाला सिरा मुख्य भाग होता है, जिसमें आवश्यक तेल की मात्रा ज़्यादा पायी जाती है। फसल की कटाई ज़मीन से 15-20 सेमी. भाग छोड़कर 50 प्रतिशत पुष्प आने पर दराँती द्वारा की जाती है। औसतन रोशा घास के शाक में 0.5-0.7 प्रतिशत तेल पाया जाता है। उत्तम कृषि प्रबन्ध स्थिति में तेल की औसतन उपज 200-250 किग्रा./हे./वर्ष प्राप्त की जा सकती है।
जावा घास या सिट्रोनेला:
व्यापारिक महत्व के सुगन्धित तेलों का उत्पादन करने वाली प्रमुख घासों में जावा घास या सिट्रोनेला का प्रमुख स्थान है। इसका वानस्पतिक नाम सिंबोपोगॉनविन्टेरियेनस (कुल पोएसी) है। जावा घास की पत्तियाँ अरोमिल, अंदर की तरफ लाल रंग की, 60-80 सेमी. लंबी और 1.5 से 2.5 सेमी. चौड़ी होती हैं। जावा घास तेल के मुख्य सक्रिय घटक सिट्रोनेलाल एवं जिरैनियॉल है। जावा घास पर्याप्त नमी एवं सूर्य का प्रकाश चाहने वाली फसल है, अत: ऐसे क्षेत्र जहाँ वर्षा 100-150 सेमी. प्रतिवर्ष तक होती है, इसकी खेती के लिए उपयुक्त होते हैं। जावा घास की खेती ऐसी मृदाओं पर की जानी चाहिए जिनका आदर्श पीएच मान 5.0-7.5 हो। जावा घास का अधिकांशत: प्रवर्धन स्लिप्स माध्यम से किया जाता है। स्लिप्स तैयार करने के लिए एक वर्ष पुराने पौधे अथवा पुरानी फसल के झुण्ड निकालकर उसमें से एक-एक कलम अलग कर ली जाती है। इन कलमों को स्लिप्स कहते हैं। स्लिप्स को तैयार करते समय हरी पत्तियों को काटकर अलग कर देना चाहिए, साथ ही नीचे की सूखी पत्तियों एवं लंबी जड़ों को भी काटकर अलग कर देना चाहिए। इन कलमों की लंबाई 15-20 सेमी. रखनी चाहिए। इसके बाद स्लिप्स को किसी फफूंदीनाशक रसायन से उपचारित कर लेना चाहिए, इससे मृदा जनित रोगों से बचाव होता है। एक स्लिप लगाने से पौधा तैयार होता है। स्लिप्स को रोपित करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि इनमें जमाव 80 प्रतिशत तक ही होता है। जावा घास की सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्था होने पर मार्च से अप्रैल तक रोपाई की जा सकती है। रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई अतिआवश्यक है। असिंचित दशा में आदर्श रोपाई समय मानसून की शुरुआत (जून-जुलाई) होता है। स्लिप्स को लगाने से पहले फफूंदी नाशक रसायन से उपचारित कर लेना चाहिए। स्लिप्स को 8-10 सेमी. की गहराई पर 60 सेमी. पंक्ति से पंक्ति की दूरी एवं 45 सेमी. पौधे से पौधे की दूरी पर रोपित किया जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई के लिए 38,000-40,000 स्लिप्स पर्याप्त रहती हैं। जावा घास की जड़ें चूँकि कम गहराई तक जाती हैं, इसलिए पौधों की बढ़वार के साथ मिट्टी चढ़ाते रहना चाहिए। मिट्टी चढ़ाने का काम वर्ष में एक बार ज़रूर करना चाहिए, उसके पश्चात खेत में सिंचाई कर देनी चाहिए।
कुछ उन्नतशील किस्मों को सीएसआईआर-केंद्रीय औषधीय तथा सुगंधित पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित किया गया है, जिनमें मुख्य हैं- मंजूषा, मंदाकिनी, बायो-13, जलपल्लवी, मंजरी और मेदिनी। जावा घास में 120 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 60 कि.ग्रा. फॉस्फोरस एवं 60 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष डालना चाहिए। खेत की तैयारी के समय फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी खुराक दी जाती है और बेहतर परिणाम के लिए 3 महीने के अंतराल में नाइट्रोजन की खुराक 4 बराबर भागों में दी जाती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में एक महीने में एक बार सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। जावा घास की रोपाई के 35-40 दिनों में खरपतवार का नियंत्रण किया जाना अतिआवश्यक कार्य है। सामान्यत: वर्ष में 2-3 बार निराई एवं गुड़ाई की आवश्यकता होती है। फसल की कटाई ज़मीन से 15-20 सेमी. की ऊँचाई पर करनी चाहिए। फसल की पहली कटाई लगभग 120-130 दिन बाद की जाती है। इसके बाद दूसरी तथा आगे की कटाई 90 दिनों के बाद की जाती है। जावा घास से चार से पाँच वर्ष तक अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है, जिससे 220 से 250 किग्रा. तेल प्रतिवर्ष/हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है।
खस या वेटीवर:
खस या वेटीवर एक भारतीय मूल की बहुवर्षीय घास है, जिसका वानस्पतिक नाम ‘वेटीवेरिया ज़ाईज़ेनियोडीज़’ (कुल पोएसी) है। पौधे के ज़मीन के अंदर रहने वाले भाग में हल्के पीले रंग या भूरे से लाल रंग वाली उत्कृष्ट जड़ें होती हैं, जिनके आसवन पर व्यावसायिक स्तर का खस का तेल प्राप्त होता है। खस की रेशेदार जड़ें नीचे की ओर बढ़ती हुई 2-3 मीटर तक भूमि की गहराई में फैलती हैं। तेल के मुख्य रासायनिक घटक बेन्जोइक एसिड, वेटीविरोल, फुरफुरोल और वीटीवोन हैं। खस की खेती के लिए शीतोष्ण एवं समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है। रेतीली दोमट मिट्टी जिसका पीएच मान 8.0-9.0 के मध्य हो, उस पर इसकी खेती की जा सकती है। उस भूमि पर जहाँ वर्षा के दिनों में काफी पानी भर जाता है और अन्य कोई फसलें लेना संभव नहीं होता, खस की खेती की जा सकती है। इसके लिए खेत को 2-3 बार जोता जाता है एवं सभी खूंटी और घास की जड़ों को हटा देना चाहिए। आखिरी जुताई के समय सड़ी हुई गोबर की खाद 10-15 टन/हे. की दर से भली-भाँति मिट्टी में मिला देना चाहिए। खस का प्रवर्धन स्लिप्स माध्यम से किया जाता है। स्लिप्स तैयार करने के लिए एक वर्ष पुराने पौधे अथवा पुरानी फसल के झुण्ड निकालकर उसमें से एक-एक कलम अलग कर ली जाती है। इन कलमों को स्लिप कहते हैं। स्लिप को तैयार करते समय हरी पत्तियों को काटकर अलग कर देना चाहिए, साथ ही नीचे की सूखी पत्तियों एवं लंबी जड़ों को भी काटकर अलग कर देना चाहिए। कलमों की लंबाई 15-20 सेमी. रखनी चाहिए। अधिक तेल का उत्पादन प्राप्त करने के लिए दक्षिण भारतीय परिस्थितियों में सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्था होने पर जनवरी से अप्रैल तक रोपाई की जा सकती है। रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई अति आवश्यक है।
असिंचित दशा में रोपण के लिए सबसे उपयुक्त समय मानसून की शुरुआत (जून से अगस्त) होता है। स्लिप्स को 8-10 सेमी. की गहराई पर 60 सेमी. पंक्ति से पंक्ति की दूरी एवं 45 सेमी. पौधे से पौधे की दूरी पर रोपित किया जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई के लिए 38,000-40,000 स्लिप्स पर्याप्त रहती हैं। कुछ उन्नतशील किस्मों को सीएसआईआर-सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित किया गया है, जिनमें मुख्य हैं- के. एस.-1, धारिणी, केशरी, गुलाबी, सिम-वृद्धि, सीमैप खस-15, सीमैप खस-22 और सिम-समृद्धि। शुष्क क्षेत्रों में अधिक उपज प्राप्त करने के लिए 6-8 सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। ऐसे क्षेत्रों में जहाँ वर्षा अच्छी होती है एवं साल भर नमी बनी रहती है, सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। जड़ों की खुदाई रोपाई के 12-14 माह में करते हैं। जड़ों की खुदाई प्रारंभ करने से पहले पौधे का ज़मीन से 35-40 सेमी. ऊपरी भाग काट दिया जाता है। जड़ों की खुदाई का सर्वोत्तम समय दिसंबर होता है क्योंकि इस समय तेल की मात्रा जड़ों में अधिक पायी जाती है। जिन स्थानों पर ठंड अधिक होती है वहाँ पर जड़ों की खुदाई फरवरी माह में करना उचित रहता है। जड़ों की खुदाई करते समय खेत में हल्की नमी रहने से खुदाई में आसानी होती है। जड़ों की खुदाई ट्रैक्टर द्वारा मिट्टी पलटने वाले हल से 40-45 सेमी. गहराई तक सुविधापूर्वक की जा सकती है। अन्त में जड़ों की धुलाई अच्छी प्रकार करके छाया वाले स्थानों पर तेल निकालना चाहिए। फसल को उचित समय पर काटा जाता है तो तेल की पैदावार एवं गुणवत्ता अच्छी रहती है। इससे जड़ की उपज 15-20 क्विंटल/हे. एवं तेल 20-25 किग्रा./हे. प्राप्त हो जाता है, जिसमें तेल का उत्पादन 0.2 से 0.5 प्रतिशत तक मिलता है, जो कि प्रजाति, जड़ की आयु एवं आसवन विधि एवं आसवन की अवधि पर निर्भर करता है।