फिलहाल ताज़ा खबर यह है कि इंटरनेट के इस ज़माने में अब ताज़ा खबर का ज़माना जा चुका है। अब तो हर मिनट में कोई न कोई नई खबर आ जाती है और इतनी तेजी से फैल जाती है कि उसे लोग ‘वायरल’ कहने लगे हैं। तो अब ताज़ा खबर का ज़माना गुज़र चुका है और वायरल का ज़माना आ चुका है। और इस वायरल के चक्कर में इंसान को कुछ होश ही नहीं है कि किस प्रकार उसके आस-पास की चीज़ें बदल रही हैं। दुनिया बहुत ही तेजी से बदल रही है और नई-नई तकनीकें दुनिया के लिए विज्ञान ला रहा है। इस प्रकार के परिवर्तन समय के साथ होते रहते हैं और परिवर्तन तो प्रकृति का नियम ही है। यह एक ऐसा नियम है जो हमेशा अटूट रहेगा। इस नियम को कभी भी कोई तोड़ नहीं सकता क्योंकि प्रकृति अपना नियंत्रण खुद करती है और इस काम को करने के लिए उसे किसी की ज़रूरत नहीं है। उसके पास अपनी एक व्यवस्था है, अपने साधन हैं।
परंतु आज के समय में मनुष्य जिस प्रकार प्रकृति की अनदेखी करके तेजी से पैसे और आधुनिकता की ओर भागा जा रहा है, उसके परिणाम उसको भविष्य में भुगतना होंगे। और वर्तमान में भी जो प्राकृतिक आपदाएँ आ रही हैं वह सब इसी अनदेखी का परिणाम है। इस बात को मनुष्य को समझना होगा। अभी कुछ दिनों पहले ही केरल में भयानक बाढ़ आई है और काफी नुकसान की खबरें आ रहीं हैं और इस बाढ़ को सदी की सबसे भयानक बाढ़ के तौर पर देखा जा रहा है।
पूरे देश से आर्थिक सहायता केरल को दी जा रही है, हर कोई अपनी कमाई में से केरल को मदद के लिए पैसे दे रहा है, जो कि एक सराहनीय पहल है। मदद तो पैसों से हो जाएगी परंतु प्रश्र उठता है कि क्या मरे हुए लोगों को वापस लाया जा सकता है? क्या खराब हुई फसलों को वापस लाया जा सकता है? क्या गिरे हुए पेड़ों को दोबारा खड़ा किया जा सकता है? तो फिर ऐसे पैसे और ऐसे विकास का क्या लाभ? हम विकास के लिए बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं परंतु बाढ़ से कैसे बचा जाए इसकी व्यवस्था अब तक हमने नहीं की है।
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लगभग हर साल देश में चाहे असम हो या फिर बिहार या उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु या कर्नाटक, मध्यप्रदेश या फिर केरल; हर साल बाढ़ आ रही है और काफी नुकसान हो रहा है। परंतु अभी तक हम यह जान ही नहीं पा रहे हैं कि बाढ़ क्यों आ रही है और भविष्य में बाढ़ न आ आए इसके क्या उपाय हैं। वास्तव में ये त्रासदियाँ प्रकृति प्रदत्त नहीं अपितु मानव-निर्मित हैं। हम विकास के नाम पर बाँध पर बाँध बनाए जा रहे हैं, जिसके लिए जंगलों को मिटा रहे हैं, उपजाऊ ज़मीन को बर्बाद कर रहे हैं। गाँव के गाँव इन बाँधों को बनाने में बर्बाद हो जाते हैं, लोग अपने घरों से बेघर हो जाते हैं, साथ ही उनकी हज़ारों एकड़ उपजाऊ ज़मीन भी चली जाती है।
इसी तरह हाइड्रो प्रोजेक्ट भी बड़ी संख्या में लग रहे हैं। खनन, पर्यटन, एवं अधोसंरचना विकास के नाम पर भी जंगलों, पहाड़ों, व नदियों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है। हम पेड़ काट रहे हैं, पहाड़ काट रहे हैं, नदियों का रास्ता रोक रहे हैं, उनको प्रदूषित कर रहे हैं। अधिक से अधिक प्लास्टिक और पॉलीथिन का प्रयोग कर रहे हैं, फैक्ट्रियाँ लगा रहे हैं, पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। इन सब से प्रकृति को कितना नुकसान हो रहा है इस बात की किसी को परवाह ही नहीं। सिर्फ अपने फायदे के लिए प्रकृति को नुकसान पहुँचाने में किसी को तनिक भी अफसोस नहीं होता और हम निरंतर इस काम में तेजी बनाए हुए हैं। यह कैसा विकास है जिसमें इंसान को सहूलियत तो नहीं मिल रही उल्टा वह अपनी जान जोखिम में डाल रहा है?
अब जबकि देश में मानसून का मौसम है तो कहीं ज़्यादा बारिश हो रही है तो कहीं कम हो रही है, तो कहीं हो ही नहीं रही है। यह भी प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने का ही परिणाम है कि हमको आज बारिश के मौसम में भी बारिश का इंतज़ार करना पड़ रहा है और बारिश के मौसम में ही फसलों को ट्यूबवेलों से पानी देना पड़ रहा है। किसान भाइयों को यह बात समझना चाहिए कि अभी तो आपके पास ट्यूबवेल में पानी है, पर जब नहीं रहेगा तब फसलों को पानी कैसे दे पाओगे? हमारे नीति निर्माताओं को समझना चाहिए कि हम जो भी विकास कार्य या टेक्नॉलॉजी अपनाएँ उसे अपने देश के प्राकृतिक वातावरण के अनुसार ही अपनाएँ, जिससे हमारे प्राकृतिक वातावरण को कोई नुकसान न हो। हमारा देश विविधताओं से भरा हुआ है और यही हमारी संस्कृति है, इसी संस्कृति को हमें हमेशा अपनाए रखना है और इसे कभी भूलना नहीं है। यही विविधता की संस्कृति हमें हमेशा पूरी दुनिया से आगे रखेगी। इसी तरह हमारे किसान भाइयों को यह बात समझना बहुत ज़रूरी है कि हम जो भी खेती करें, इसी विविधता को देखते हुए करें। किसान भाइयों को चाहिए कि विभिन्न फसलों का उत्पादन करें, प्रकृति के अनुसार एवं अपने पास उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से खेती करें। एक या दो फसलों पर निर्भर न रहें वरन सभी फसलों की खेती करें।
एक बात हमेशा याद रखना कि जल, जंगल और ज़मीन को नुकसान पहुँचाकर हम जो खेती कर रहे हैं वह हमारे लिए तो खतरनाक है ही, पर हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए और ज़्य़ादा खतरनाक होने वाली है। हम चाहे खेती की कोई भी प्रणाली अपनाएँ परंतु हमेशा इस बात का ख्याल रखें कि जल, जंगल, ज़मीन और हमारे पयार्वरण को उस प्रणाली से नुकसान तो नहीं हो रहा है। यदि हो रहा है तो उसे तुरंत ही त्याग देना चाहिए। ‘जल, जंगल और ज़मीन इसके बिना जीवन है आधारहीन’ इस बात को भूलना नहीं है।
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विशेष: कृषि परिवर्तन के पाठकों के लिए इस अंक से एक नया आकर्षण होगा। अब हर अंक में किसी सुप्रसिद्ध लेखक की किसानों या गाँवों पर आधारित एक कहानी हुआ करेगी। इस बार प्रस्तुत है मध्यप्रदेश के महत्वपूर्ण कथाकार मनीष वैद्य जी की कहानी ‘हारे हुए पिता’। इस कहानी में किसानों की स्थिति को बड़ी ही शिद्दत से उभारा गया है। पढि़ए और इसके बारे में अपनी राय हमें बताइए। हमें आपकी चिट्ठियों का इंतज़ार रहेगा।