संपादकीय

बाढ़ और सूखे से आज़ादी कब?

पवन नागर

ताज़ा खबर यह है कि यूरोप 500 सालों के सबसे भयंकर सूखे की चपेट में है और अमेरिका के टेक्सास में पैलक्सी नदी सूखने पर नदी में डायनासोर के पैरों के निशान मिले हैं, जो कि बताया जा रहा है कि 11 करोड़ साल पुराने हैं। वहीं दूसरी ओर हमारे देश के अधिकतर राज्य बाढ़ की समस्या से दो-दो हाथ कर रहे हैं। बाढ़ से होने वाले नुकसान को ज्ञात करने वाली कोई भी मशीन अभी तक नहीं बनी है और न ही हमारे देश में ऐसी कोई संस्था है जो बाढ़ से होने वाले नुकसान के सही आंकड़े बता सके। अभी हम देश की आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, परंतु अभी तक हमें बाढ़ से आज़ादी नहीं मिली है बल्कि हम जैसे-जैसे अधिक सुविधाजनक हो रहे हैं और विकास-विकास कहकर जो प्रकृति की दुर्दशा कर रहे हैं उससे हम और अधिक बाढ़ के गुलाम बनते जा रहे हैं।

अब तो हालात ये हैं कि राजस्थान जैसे राज्य में भी बाढ़ आने लगी है। और बाढ़ भी ऐसी जो लोगों ने अब तक नहीं देखी। बाढ़ में हर साल लोग मरते हैं, बेघर होते हैं, परंतु मजाल है कि नीति निर्माताओं और जनता के कान पर जूं भी रेंग जाए। हर साल ही बाढ़ से मानवीय नुकसान के साथ ही किसानों की फसल का नुकसान, जानवरों को नुकसान, सड़क, मकान, पुल-पुलिया आदि का नुकसान होता है और साल दर साल यह नुकसान बढ़ता ही जा रहा है जिसकी वास्तविक गणना करना नामुमकिन जैसा ही है। बाढ़ हर बार भारी नुकसान करके चली जाती है और साथ में चेतावनी भी दे जाती है कि फिर आऊँगी। पर हम इससे कोई सबक नहीं लेते। फिर भी अब तक हम बाढ़ से बचने का पुख्ता इन्तेज़ाम नहीं कर पाए। यह हमारी व्यवस्था और समझदारी पर एक बहुत ही बड़ा प्रश्न-चिन्ह तो है ही, साथ में आधुनिकता को ठेंगा दिखाने की प्रकृति की अपनी कला है जिसे हम समझकर भी अनजान बने हुए हैं।

बात सिर्फ बाढ़ तक सीमित होती तो ठीक था परन्तु हाल यह है कि देश के आधे हिस्से बाढ़ से तो बाकी के आधे सूखे से परेशान रहने लगे हैं। मौसम की यह विषमता जलवायु परिवर्तन के कारण है। यह जलवायु परिवर्तन का ही असर है कि जहाँ वर्षा कम होती थी वहाँ पर अब बाढ़ आने लगी है और जहाँ अधिक वर्षा होती थी वहाँ सूखे जैसे हालात हैं। परंतु हमारे देश में जलवायु परिवर्तन को अभी भी इतनी बड़ी समस्या नहीं माना जा रहा है कि वह राष्ट्रीय मीडिया की प्राइम टाईम बहस में जगह बना सके। जलवायु परिवर्तन के प्रति यह उदासीनता भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व को प्रभावित करने लगी है और इसी का असर है कि जहाँ यूरोप में सूखे के हालात बन रहे हैं वहीं दूसरी ओर कई देश बाढ़ की समस्या से जूझ रहे हैं और कई देशों में भयंकर बर्फवारी हो रही है।

तो अब प्रश्न यह आता है कि जलवायु परिवर्तन और बाढ़ व सूखे का समाधान क्या है?

तो इसका बहुत ही सरल उत्तर यह है कि जलवायु परिवर्तन के समाधान के लिए हमें प्रकृति के नियमानुसार चलना पड़ेगा। और रही बात बाढ़ व सूखे की तो इनसे निपटने के लिए के लिए हमें पानी की फिज़ूलखर्ची को रोकना होगा और जो अमूल्य, असीमित पानी हमें बरसात के मौसम में मिलता है उसका सही तरह से प्रबंधन करना होगा। तभी हम बाढ़ व सूखे की समस्या से निजात पा सकेंगे और इनसे होने वाले नुकसान से भी बच पाएँगे।

बारिश के पानी का सही प्रबंधन कैसे?

भारत में बाढ़ और पानी की कमी; दोनों समस्याओं को हल करने में तालाब और कुँए महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इन समस्याओं से शहर के लोगों के साथ-साथ गाँव के लोग भी प्रभावित होते हैं परन्तु इसकी सबसे बड़ी कीमत तो किसानों को ही चुकानी पड़ती है, क्योंकि उनकी आजीविका पानी पर ही तो टिकी है।

यह तो सबको पता है कि बरसात में पानी बहुत गिरता है परंतु इसका संग्रहण बड़े-बड़े बाँधों के माध्यम से किया जा रहा है, जिनमें संचित पानी का उपयोग बिजली बनाने, उद्योगों को चलाने, शहरों में पेयजल की व्यवस्था करने और किसानों द्वारा सिंचाई हेतु होता है। परंतु इन बड़े-बड़े बाँधों के कारण भी बाढ़ बहुत आ रही है और कई बाँध तो बहुत पुराने हो गए हैं, जिनके फूटने का खतरा हर साल बना रहता है। हाल ही में मध्यप्रदेश के धार जिले में कारम नदी पर बने एक निर्माणधीन बाँध में पहली बरसात में ही रिसाव होने लगा जिससे बाँध के फूटने का खतरा बढ़ गया। आनन-फानन में प्रशासन को बाँध का पूरा पानी निकालना पड़ा। इस कार्य को करने से पहले 40 से ज़्यादा गाँवों को खाली कराना पड़ा। इस घटना से मानवीय नुकसान तो नहीं हुआ परंतु पशुधन और किसानों की फसलों को भारी नुकसान हुआ। जो पानी इसमें इकठ्ठा किया गया था वो तो बर्बाद हुआ ही, साथ ही इसे बनाने में लगा ढेर सारा पैसा भी बर्बाद हो गया। इस घटना से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि एक नए नवेले बाँध का यह हाल है तो पुराने बाँधों की क्या दशा होगी? सरकार को चाहिए कि बड़े-बड़े बाँधों की जगह पर तालाब और कुएँ बनवाने पर ज़्यादा जोर दे। जहाँ एक तरफ  बड़े बाँधों से बाढ़ का खतरा बना रहता है, वहीं इन छोटे-छोटे तालाबों से बाढ़ की समस्या से भी निजात मिलेगी और किसान सिंचाई के मामले में आत्मनिर्भर भी हो जाएँगे। साथ ही सरकार को बड़ी-बड़ी जल परियोजनाओं पर भारी-भरकम खर्च भी नहीं करना पड़ेगा।

पानी की समस्या को हल करने और उसका प्रबंधन करने का सबसे आसान तरीका यही है कि हमें हमारे पुराने परंपरागत तरीकों को अपनाना होगा। यानी कि फिर से खेतों में कुँए और तालाब बनाने होंगे। जब भी बाढ़ आती है तो मैदानी इलाकों और खेतों में पानी एकत्रित होता है और फिर उसके बाद बाढ़ का पानी रुख करता है गाँव की ओर। यदि हर खेत में तालाब होंगे तो बाढ़ का पानी या ज़्यादा बारिश का पानी पहले इन तालाबों में संग्रहीत होगा। हम तालाबों को 50 फीट गहरा भी बना सकते हैं। जितना गहरा तालाब होगा उतना ही ज़्यादा पानी संचित होगा और यह पानी रवि की फसल में भी काम आएगा और भूजल स्तर भी बढ़ाएगा। इसी प्रकार हम कुँए भी हर खेत में बना सकते हैं। तालाब ऐसी जगह बनाना है जिस तरफ  खेत का ढाल हो या जहाँ पानी एकत्रित हो सकता हो। इस प्रकार तालाब में बारिश और बाढ़ के पानी को संग्रहीत करके बाढ़ और पानी की कमी के कारण हो रहीं बहुत सारी समस्याओं से निजात पा सकते हैं। यदि किसान के खेत में तालाब या कुआँ होगा तो वह ट्यूबवेल का इस्तेमाल कम करेगा और भूजल स्तर भी बना रहेगा।

दूसरा तरीका है वॉटर हारवेस्टिंग करके बारिश के पानी को ज़मीन के भीतर उतारना। हर साल बहुत बारिश होती है, परन्तु इस पानी का कोई संग्रहण नहीं कर रहा है और इसी कारण अधिकतर इलाकों में गर्मी में पानी की समस्या से दो-दो हाथ करना पड़ता है। वॉटर हारवेस्टिंग की मदद से घरों से निकलने वाले अनुपयोगी जल को और छत पर एकत्रित होने वाले वर्षा जल को भूमि में उतारकर हम उसके व्यर्थ भराव को भी रोक सकते हैं और भूजल स्तर को भी बढ़ा सकते हैं।

तेजी से विनाश की ओर बढ़ते हुए अब हमारे सामने दो ही रास्ते हैं। पहला यह कि हम इसी प्रकार बेतरतीब विकास करते रहें, या फिर दूसरा रास्ता यह है कि प्रकृति के नियमों के हिसाब से विकास के मापदंड तय करें और उन मापदण्डों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए कड़े नियम बनाएँ, यह सुनिश्चित करें कि इन नियमों में किसी भी व्यक्ति को छूट नहीं दी जाएगी, फिर चाहे वह कितने ही बड़े पद पर बैठा हो। इसी तारतम्य में यूरोपीय संघ की कार्यकारी शाखा ‘यूरोपीय आयोग’ (ईसी) ने यूरोप महाद्वीप पर प्रकृति को बहाल करने और जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए विगत 22 जून को एक ऐतिहासिक कानून का विस्तृत ड्रॉफ्ट जारी किया है। विकास की अंधाधुंध दौड़ में यूरोपीय देशों का यह कदम दुनिया के लिए मिसाल है। देखना यह होगा कि इस पर अमल कितना हो पाता है। प्रकृति के साथ चलने में सारे विश्व की भलाई है। यही जि़ंदा रहने की एक मात्र उम्मीद है।

अब हम सबको ही तय करना है कि साल दर साल ऐसे ही नाम के महोत्सव मनाते रहें या फिर जलवायु परिवर्तन और बाढ़ व सूखे की समस्या से आज़ादी पाने के लिए कोई ठोस कार्य-योजना बनाएँ और उस पर अमल करें। इस कार्य-योजना में सरकार, प्रशासन एवं जनता की सम्मिलित भागीदारी हो तभी ज़मीनी स्तर पर परिवर्तन हो पाएगा। यदि ये तीनों जलवायु परिवर्तन और प्रकृति के प्रति अपना रवैया नहीं बदलेंगे तो आने वाले समय में और भी भीषण आपदाओं के लिए तैयार रहें।

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