संपादकीय

पौष्टिक अनाज, ज़रूरी है आज

पवन नागर

यदि धार्मिक मान्यताओं की मानें तो अभी कलयुग चल रहा है, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखने पर तो लग रहा है कि यह युग तो जलवायु परिवर्तन का युग है। जहाँ इस वर्ष जनवरी से लेकर मई तक लगभग हर माह बारिश ने पूरे भारत में दस्तक दी, वहीं वर्तमान में कहीं लू का प्रकोप है तो कहीं तूफान आ रहे हैं तो कहीं मूसलाधार बारिश हो रही है। हम पहले भी कई बार जलवायु परिवर्तन की इस विकट होती समस्या पर प्रकाश डाल चुके हैं। परंतु प्रश्र यह है कि इस समस्या का समाधान क्या है? इस समस्या से हर वर्ग ही परेशान है और इसका सबसे ज़्यादा प्रभाव किसान पर पड़ेगा। सीधे तौर पर किसान की फसलें प्रभावित होंगी, जिससे खाद्यान्न संकट की समस्या हो सकती है। और ऐसा भी हो सकता है कि कई इलाकों में सूखा पड़ जाए, तो कई इलाकों में इतनी बारिश हो कि फसलें बर्बाद हो जाएँ। और कहीं इतनी गर्मी पड़ सकती है कि गर्मी के कारण लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़े।

खबरों के अनुसार अभी पटना में 34 लोगों की लू से जान जा चुकी है, वहीं दूसरी ओर बिपरजॉय तूफान गुजरात और राजस्थान में कहर बरपा रहा है। वर्तमान में हो रहे इस मौसम परिवर्तन के कारण आने वाले समय में अमीर-गरीब सबको समान रूप से कई समस्याओं का सामना कर पड़ सकता है। सभी राष्ट्रों के मुखियाओं को जलवायु परिवर्तन की समस्या पर ठोस योजना बनानी ही पड़ेगी और उस पर अमल भी करना पड़ेगा, नहीं तो भविष्य में इस समस्या से निपटना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन होगा।

खैर, यह अच्छी बात है कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा साल 2023 को भारत के प्रस्ताव पर अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है और इस कारण पूरे विश्व में मिलेट्स की धूम मची हुई है। लगभग हर महीने ही मिलेट्स पर एक ईवेंट हो रहा है। इस वर्ष मिलेट्स, यानी मोटे अनाजों की माँग बाजार में बहुत ज़्यादा बढ़ गई है और जिनको इनके नाम भी नहीं पता थे वे भी अब मिलेट्स की खोज कर रहे हैं। आपको बताते चलें कि मिलेट्स बाजरा, ज्वार, रागी, कंगनी, कोदो, कुटकी, सावां एवं चेना को कहा जाता है। इनको पौष्टिक अनाज भी कहा जाता है।

इनकी खासियत यह है कि ये सभी प्राकृतिक वर्षा पर आधारित अनाज हैं और कम वर्षा होने पर भी इनके उत्पादन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये स्वास्थ्य के लिए तो लाभकारी हैं ही, साथ में इनसे मिट्टी भी उपजाऊ बनी रहती है। और सबसे अच्छी बात यह है कि इनके उत्पादन में किसी भी प्रकार के रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाईयों के इस्तेमाल की जरूरत नहीं पड़ती है। इसलिए ये अनाज पर्यावरण के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। इनकी खेती करने से पर्यावरण पर कोई भी दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। गेंहू, धान, सोयाबीन जैसी रसायन आधारित एकल फसलों के मुकाबले इनमें मेहनत ज़्यादा है और इसी कारण इन अनाजों का भारत में रकबा बहुत ही कम है।

मिलेट्स में विटामिन, खनिज, आयरन एवं अन्य पोषक तत्वों की भरपूर मात्रा होती है जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभकारी हैं। मिलेट्स गेंहू और चावल की तुलना में 5 गुना अच्छे अनाज हैं। मिलेट्स हमको कई बीमारियों से लडऩे में सहायता करते हैं और इनका नियमित सेवन हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। यदि इन अनाजों को हम अपनी थाली में स्थान दें तो कई बीमारियों से बच सकते हैं।

मिलेट्स वर्ष घोषित होने के बाद इन अनाजों की डिमांड तो बढ़ी है, परंतु यह देखना होगा कि कितने किसान इन अनाजों की खेती करने को तैयार होंगे। इन अनाजों की खेती अधिकतर आदिवासी इलाकों में होती है जहाँ पर अभी आधुनिक मशीनें नहीं पहुँची हैं, और यही कारण है कि इन इलाकों में अभी भी मिलेट्स मुख्य भोजन का हिस्सा हैं। गेंहू और चावल भारत के अधिकतर राज्यों में मुख्य भोजन के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं, इसीलिए भी इन अनाजों का रकबा बहुत कम है। दूसरा इन अनाजों का समर्थन मूल्य तो घोषित है, परंतु गेंहू और चावल की तरह इनकी खरीदी की व्यवस्था पुख्ता नहीं है। इस कारण भी अधिकतर किसान इन अनाजों से दूरी बना लेते हैं।

ऐसे में सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि इन अनाजों का रकबा कैसे बढ़ेगा? किसानों को इन अनाजों की खेती करने के लिए कैसे प्रोत्साहित किया जाएगा? मिलेट्स आम आदमी की थाली से दूर हो चुके हैं, कैसे इन्हें फिर उसमें शामिल किया जा सकेगा? कैसे किसान रसायन आधारित आसान खेती से दूरी बनाएँगे?

इन प्रश्रों के उत्तर तो हम सबको ढूँढने ही पड़ेंगे, नहीं तो 2023 बीत जाएगा और अगले साल फिर कोई नया वर्ष मनाने में हम लग जाएँगे। यदि हम ईमानदारी और दृढ़ निश्चय से काम करें तो मिलेट्स का रकबा भी बढ़ा सकते हैं और इन अनाजों को दोबारा मुख्य भोजन में शामिल भी करा सकते हैं। यदि मिलेट्स की खेती का रकबा बढ़ेगा तो हमारे देश में रसायन आधारित खेती का रकबा घट जाएगा, जिससे रासायनिक खाद और कीटनाशकों की माँग भी कम होगी। इसलिए सरकार को भरपूर सहयोग करते हुए किसानों को इन अनाजों की ओर फिर से लौटना होगा।

पवन नागर,
संपादक

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