कहानी

कोहरे का कफन

कथाकार: शिव अवतार पाल

कोहरे का कफन

गनेशी लाल ने जर्जर किबाड़ों में जहाँ-तहाँ बने सुराखों में से किसी एक में आँख टिका दी और दम साधे कई पलों तक घर के भीतर का मुआयना करता रहा। जब उसे पक्के तौर पर यकीन हो गया कि हाल-फिलहाल फुलवा से मगजमारी नहीं करनी पड़ेगी तो वह किबाड़ का पल्ला धकेल कर भीतर आ गया और धीरे-धीरे बेआवाज पाँव रखता ओसारे में पड़ी झूला बन चुकी चारपाई पर धम्म से पसर गया। लेकिन अभी वह चैन की दो साँस भी नहीं ले पाया था कि अचानक फुलवा प्रकट हो गई।

“आज भी काम नहीं लगा?” उसने मरी आवाज़ में पूछा।

गनेशी झुंझला कर बोला, “काम लगता तो तेरे ताने सुनने को इस बखत यहाँ नहीं पड़ा होता। समझ में नहीं आता तू जानबूझकर घाव क्यों कुरेदने लगती है!”

“मेरे कहे का उल्टा अरथ काढऩे की तुम्हारी पुरानी आदत है।” फुलवा कुढ़कर कुछ और भी कहना चाहती थी पर शांत रही। वह पढ़ी-लिखी नहीं थी पर इतना जानती थी कि पेट से पूरा सरीर जुड़ा होता है। जब वही खाली हो तो जी भन्नाने लगता है। उसे अपनी कोई फिकर नहीं थी; घर में ही तो पड़ी रहती है; पर उसके मरद को मजूरी के लिए छ: कोस दूर सहर में जाना पड़ता है। काम-धंधा मिल जाए तो चार पैसे की आस में आदमी लगा रहे। फोकट में परेड करने से सारे कस-बल ढीले हो जाते हैं। सरीर में अन्न का सन्न होता है। भूखे पेट भजन भी नहीं होता, मेहनत-मजूरी की कौन कहे।

बदरा बैरी हो गए इस कारण उसे ये दिन देखने पड़ रहे हैं, बरना इतनी खेती-पाती तो है ही कि पाँच जनों के चुनने-बिनने में हीला-हवाली नहीं होती। पानी के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए गए गाँव-देहातों में। औरतों ने खेतों में हल चलाए। द्वार-द्वार लोटकर टोने-टोटके किए। गमा माई के थान पर अंगरा बनाए-खाए। फिर भी चौमासे में एक बूंद न गिरी। जुताई, बुवाई और बीज सब अकारथ गए। चौधरी जब-तब टेंटुआ पकड़ लेता है सो अलग। उसके हाथ-पाँव जोड़-जाड़कर जैसे-तैसे जान बचती रही कि रबी की फसल में पाई-पाई चुकता कर देंगे, पर एक बार किस्मत ने दगा दिया तो फिर सँभलने के सारे मौके जाते रहे। किसान और मजूर एक पलड़े में आ गए थे।

पेट की आग बुझाने सब सहरों की ओर भागने लगे थे। काम कम था और मजूर ज़्यादा, सो एक दिन काम मिलता और आठ दिन नागा। चूल्हे ठंडे पड़ते जा रहे थे और चौधरी गरम होता जा रहा था।

“भूख लगी होगी?” फुलवा ने संकोच से पूछा।

गनेशी ने उलाहना देती नज़रों से उसकी ओर घूरा। उसका जी चाहा, कह दे कि पूछ तो ऐसे रही है जैसे पकवान बना कर रखे हों। पर शांत भाव से प्रत्यक्षत: नम्र हो कर बोला, “अभी तो भूख नहीं है। संगी-साथियों के साथ थोड़े से सत्तू खाकर पानी पी लिया था।”

फुलवा चौके में गई और चार भुने आलू लाकर उसके हाथ पर रख दिए, “जुबान से चाहे कुछ कहो पर तुम्हारा चेहरा कुछ और ही बोल रहा है।”

गनेशी की आँखों में तेज़ चमक उभरकर मंद हो गयी, “ये कहाँ मिले?”

“लाला के पास सामान लेने गई थी, पर उसने राशन देने से मना कर दिया। कह रहा था, पिछला चुकता करो… तब देंगे। बड़ी मिन्नतों से थोड़े आलू दिए। कुछ भूनकर बच्चों को खिला दिए, बाकी तुम्हारे लिए रख छोड़े थे।”

गनेशी दो आलू उसे दे कर बोला, “अब ये न कहने लगना कि तुम खा चुकीं।”

दोनों चुपचाप खाने लगे।

कुछ दिन तक ऐसे ही जि़ंदगी चलती रही। फिर एक दिन गनेशी लाल ने दार्शनिक अंदाज़ में खुशखबरी दी, “एक दिन घूरे के दिन भी बहुरते हैं फुलवा, हम तो फिर भी इंसान हैं। समझ लो अब अपने सुख भरे दिन आने वाले हैं।”

“तुम्हें कौन सा गढ़ा धन मिलने वाला है जो इतना हुलफुला रहे हो,” फुलवा शंकित सी बोली।

“यही समझ लो,” गनेशी उसकी बेचैनी से आनन्दित होता-सा बोला। “कल सहर में सरकार सूखा-पीडि़तों को चैक बाँट रही है। कुछ दिन तो चैन से कट ही जाएँगे, फिर आगे की देखी जाएगी।”

“चौधरी चैन से खाने देगा तब न!” फुलवा के माथे पर चिन्ता की लकीरें उभर आयीं। ‘उसका बस चले तो मुँह के भीतर से कौर निकाल ले। देखना, तुम्हारे लौटने से पहले द्वार पर खड़ा मिलेगा। कल संझा बिरिया तुम्हें पूछ रहा था। मैंने मना किया तो कहने लगा कि रुपये या खेत लिखें।” उसकी आँखें जलने लगीं। “जितने लिए थे, उससे अधिक दे चुके, फिर भी ढेर बाकी है! नासपीटा गरीबों की हाय ले कर मरेगा! कीड़े पड़ेंगे हरामी के..!”

“सरकारी रुपयों में से उसे फूटी कौड़ी नहीं दूँगा,” गनेशी लाल ने साफ  कहा। “हम उसकी तरह बेईमान नहीं हैं और न गाँव छोड़ कर भागे जा रहे हैं। पाई-पाई चुका देंगे, पर पहले बाल-बच्चों को देखेंगे।”

फुलवा ने भी चिंतातुर होते हुए कहा, “बाँके और बद्री तो चीथड़े पहन कर रह लेंगे, पर सयानी होती मुन्नी को तो तन ढँकने को कपड़े चाहिए। गरीबों के पास केवल इज्ज़त होती है, वह भी गई तो जीते जी मरे।”

इस संवेदनशील मुद्दे ने गनेशी लाल को विचलित कर दिया। बोला, “सोचने-समझने को जब मैं हूँ तो तू क्यों अपना खून जलाती है? कल रुपये मिलते ही सहर से राशन-पानी और बच्चों के लिए कपड़े-लत्ते लेकर आऊँगा। तुम्हारे लिए भी साड़ी लेनी है।”

“मेरे पास तो है,” फुलवा ने विरोध किया, “अपने लिए ले लेना। हाड़ कँपाती ठंड में फटा कुरता पहनते हो। और हाँ, गेहूँ बहुत महँगा है, बाजरा और चावल ले लेना।”

“बच्चे बाजरा की रोटी खाएँगे?”

“नहीं खाएँगे तो खीर-पूड़ी कहाँ से लाएँ! अब सो जाओ।”

गनेशी लाल ने चुप रहना बेहतर समझा।

उस रात गनेशी लाल को नींद नहीं आयी। रात में उसने कई बार बाहर निकलकर आसमान की ओर देखा कि कहीं भोर तो नहीं हो गयी। एक-दो बार तो फुलवा ने सहा फिर हल्की नाराज़गी से बोली, “रात भर जागोगे और दिन में काम करोगे तो बीमार नहीं पड़ जाओगे? आराम से सो जाओ। ठीक समय पर मैं जगा दूँगी।”

“जिसके सामने रोटी की समस्या हो, उसके नसीब में आराम की नींद कहाँ फुलवा!” वह आहत स्वर में बोला। “पल भर को आँख झपक जाए तो सपने में बच्चों के भूखे चेहरे कौंधने लगते हैं।”

“अपने भाग्य ही फूटे हैं तो क्या करें!” फुलवा उठकर बैठ गई, “पानी तक तो मिलता नहीं, रोटी की कौन कहे।”

“गिरधारी चाचा बता रहे थे कि ऐसा भीषण अकाल कई बरस पहले पड़ा था। तब भूख हज़ारों लोगों को लील गई थी।”

फुलवा की आँखों में भय की सिहरन तैरने लगी, बोली, ”कुंए-बाबरी कबके अलोप हो गए और पोखर-तालाब परधान डकार गए। हम गरीबों को खेंचू का सहारा था वो सब भी सूख गए। घास देखने को नहीं बची। मवेशी खूँटों पर मरने लगे। सुना है, दुधारू गाय-भैंस कसाई ले जाने लगें तो परलय होती है।’

“जो होगा ठीक ही होगा।” गनेशी लाल ने कहा और सहमकर आँखें बंद कर लीं।

थोड़ी देर में उसकी पलकें झपक गईं। स्वप्न में देखा कि सरकारी अफसर उसे अपने हाथ से चैक  दे रहे हैं। घर आकर उसने चौधरी का कर्ज सूद समेत चुकता कर दिया और लाला का भी हिसाब बराबर हो गया। उसकी बखरी अन्न से भरी हुई है। बच्चे साफ-सुथरे कपड़े पहनकर स्कूल जाते हैं। वह नये धोती-कुर्ते में मूँछों पर ताव देता बाँका जवान लग रहा है और फुलवा नई साड़ी में लजाती-सकुचाती नई-नवेली दुल्हन लग रही है।

“चन्द्रमा नीचे उतर आया,” फुलवा ने उसे झिंझोड़कर जगाते हुए कहा।

वह एक झटके में उठ कर बैठ गया और आँखें मलते हुए बोला, “बहुत हसीन ख्याब देख रहा था।”

“सुबह का देखा सपना सच होता है,” वह मुस्कराई। “आज का जाना सिद्ध होगा।”

ज़मीन पर बिछे पुआल में सोए तीनों बच्चों को प्यार कर वह मुँह अंधेरे चल दिया। फुलवा बाहर तक छोडऩे आयी। चाँदनी रात थी। अभी कुहरा पडऩा शुरू नहीं हुआ था, फिर भी ठण्डी हवा के झोंके उसके शरीर में तीर की तरह चुभ रहे थे।

“सर्दी बहुत है, ये ओढ़ लो,” फुलवा ने पैबन्द लगी शॉल उतारनी चाही।

”रहने दो,” वह बोला। “मर्दों से सर्दी सात हाथ दूर रहती है। अभी दौड़ लगा दूँ तो पसीना बहने लगेगा।”

वह होठों में हँसी।

“एक बात बताओ?”

“पूछो।”

“तुम्हारे लिए क्या ले कर आऊँ?”

“अपने और बच्चों के लिए लाना।”

“साड़ी और चूडिय़ाँ लाऊँगा।”

वह लजा गई।

“घर में कुछ खाने को तो है नहीं जो बाँध दूँ। रास्ते में क्या खाओगे?”

“रुपये मिलने की खुशी में भूख किसे लगेगी,” गनेशी लाल ने पैंतरा बदला। ‘यहाँ से सहर नज़दीक ही है। दो छलांग में पहुँच जाऊँगा।”

“अपना ख्याल रखना।”

वह गाँव के बीच रास्ते में था कि चौधरी आता दिखाई दिया। गनेशी लाल नज़र बचा कर निकल जाना चाहता था कि उसने आवाज़ दी, ”सहर जा रहे हो गनेसी?”

“हाँ महाराज।”

“अच्छा है। रुपये मिल जाएँगे तो कुछ बोझ हल्का होगा।“

वह कुढ़ कर रह गया।

“मन्दिर से आ रहा हूँ। ब्रह्म मुहूर्त में भोले नाथ को बारहमासी जल चढ़ाने का संकल्प लिया है,” वह ही-ही करके हँसा। “गाँव की भलाई के लिए जप-तप तो करना ही पड़ता है। जाओ, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।”

“अपना असीस अपने पास रख खूसट,” वह मन में खिसियाया। “कहाँ से आ कर मर गया! तेरा काटा तो पानी भी नहीं माँगता।”

गाँव के लोगों में मान्यता थी कि बिल्ली रास्ता काट जाए तो डरने की कोई बात नहीं, पर चौधरी का टोकना बड़ा अशुभ होता है। भगवान का नाम ले कर वह आगे बढ़ गया।

गाँव की पगडण्डी छोड़ अब वह शहर जाने वाले कच्चे रास्ते पर आ गया था। रास्ते के दोनों ओर दूर-दूर तक फैले खेत बंजर पड़े थे। सूखा इतना भीषण था कि मिट्टी में मोटी-मोटी दरारें पड़ गई थीं। गाँव की चौपाल में उसने रेडिओ पर सुना था कि दिन पर दिन बढ़ती आबादी से लोगों के रहने के लिए ज़मीनें कम पड़ गई हैं, इसलिए जंगल साफ  किए जा रहे हैं। जब पेड़-पौधे ही नहीं रहेंगे तो मानसून कैसे बनेगा, और बिना मानसून के पानी नहीं बरसेगा। यानि बिन पानी सब सून। बढ़ती आबादी एक दिन पूरी दुनिया को लील जाएगी। कभी जो खेत सोना उगलते थे, आज इंसानों को निगल रहे हैं। प्रकृति सूद सहित हिसाब माँग रही है।

ठण्ड उसके शरीर में घुसने लगी थी। उससे निपटने के लिए कभी वह ज़ोर से हाथ मलता और कभी तेज़ चलने लगता। रबर की चप्पलों में फँसे उसके पैर अकडऩे लगे थे। रास्ते में मिले गाँवों में कई जगह अलाव जलते मिले, पर वह कहीं रुका नहीं। हज़ारों लोग चैक  लेने आएँगे, अबेर हो गयी तो पाँव रखने की जगह नहीं मिलेगी। वह जल्दी पहुँचकर लाईन में सबसे आगे लग जाना चाहता था।

ठण्ड से बचने के लिए उसने दिमाग को रात के स्वप्न की ओर मोड़ दिया। दोनों बेटों को गरम कपड़े और मुन्नी के लिए सलवार-कुरते के साथ घुटनों तक का कोट लेगा। फुलवा कुछ कहेगी नहीं, पर वह क्या उसके मन की बात जानता नहीं है। उसके छूँछे हाथ देख कर उसे बहुत ग्लानि होती है। सितारों वाली साड़ी और दो पैकेट चूडिय़ाँ उसके हाथ पर रखेगा तो वह खिल जाएगी। ब्याह कर आयी थी तो राजकुमारी लगती थी। यहाँ अभावों ने उसके चेहरे की रौनक छीन ली। बच्चे बाजरे की रोटी खाने में आनाकानी करते हैं। वह गेहूँ, तेल और दो-चार किलो मिठाई लेकर जाएगा। दीपावली पर सब मन मार कर रह गए थे। फुलवा बच्चों के साथ रोई थी तो वह भी अकेले में छिप कर रोया था। अब कोई नहीं रोएगा। जब झूले पड़ें, तभी सावन समझो।

वह ख्यालों में डूबता-उतराता नियत स्थान पर पहुँचा। वहाँ अपार जन-सैलाब देख, उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। कहीं पाँव रखने की जगह नज़र नहीं आ रही थी। उससे भूल हुई। शाम को ही यहाँ आ जाता तो ठीक रहता।

अचानक भीड़ से निकलकर पड़ोसी गाँव का भुल्लन आता दिखाई दिया। गनेशी लाल लपककर उसके पास पहुँचा, “चैक ले आए भुल्लन?”

“साहब चैक के बदले में रुपये माँग रहे हैं,” वह रूआँसा होकर बोला। “यहाँ ज़हर खाने को धेला नहीं है, उन्हें कहाँ से दें!”

गनेशी लाल का दिल बैठने लगा।

“किसान की किस्मत में रोना ही लिखा है,” भुल्लन की आँखें भर आईं। “सूखे ने सबकुछ छीन लिया। साहूकार खून चूस रहे हैं। यहाँ आस बँधी थी, वह भी टूट गई।”

“यही लोग अँधेर मचा रहे हैं। सरकार तो किसानों को मुफ्त चैक बाँट रही है,” गनेशी लाल बोला। “चाहे कुछ हो जाए, मैं चैक ले कर ही जाऊँगा।”

वह भीड़ में घुस कर जगह बनाने लगा। एक इंच आगे बढऩा मुश्किल था, पर उस पर जुनून सवार हो चुका था। उसके जैसे कितने ही लोग आगे जाने के लिए हाथ-पाँव मार रहे थे। अथाह भीड़ का सागर बेकाबू होता जा रहा था। अचानक एक तेज़ रेला आया और भगदड़ मच गयी। वह उलझकर गिर पड़ा। छटपटाते हुए उसने उठने की भरपूर चेष्टा की, पर तब तक देर हो चुकी थी। सैकड़ों पैर उसे रौंदते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। उसकी चेतना लुप्त होने लगी।

गनेशी लाल को जब होश आया, तब साँझ घिरने लगी थी। कराहते हुए उसने आँखें खोलीं। भीड़ छँट चुकी थी। चारों ओर टूटे-फटे जूते-चप्पलों के सिवाय वहाँ कुछ भी शेष नहीं था।

रात की स्याही फैलने लगी थी। दर्द से उसका पोर-पोर दु:ख रहा था। वह लंगड़ाता हुआ चल दिया। बाज़ार में रौनक बढऩे लगी थी। कपड़े और मिठाई की सजी-धजी दुकानें देखकर उसके घाव हरे हो गए।

बच्चों के सूखे चेहरे, उघड़े बदन, फुलवा की छूँछी कलाईयाँ और मलिन चेहरा उसकी आँखों में गुड़मुड़ होकर घूमने लगे। वे सब उत्सुकता से उसकी राह देख रहे होंगे। उन्हें क्या मालूम, सबकुछ खत्म हो चुका है। उसकी आँखों से आँसू झरने लगे। ठण्ड की तीखी सुईयाँ उसके शरीर को बेधने लगीं। अब न तो उससे तेज़ चला जा रहा था और न उसमें हाथों को रगड़कर गर्मी पैदा करने की ताकत थी। वह काँपने लगा।

गिरता-पड़ता वह आधी रात में गाँव की सीमा तक पहुँच सका। घर जाने की हिम्मत नहीं हुई सो खेतों की ओर मुड़ गया। इसी मिट्टी में खेल कर वह बड़ा हुआ था। उसके मानस-पटल पर बचपन की मधुर स्मृतियाँ सजीव होने लगीं।

वह घर से बापू के लिए खाना लेकर आता था। बापू बैठ कर खाना खाते और वह हल पकड़ लेता था। कभी बैल बिगड़ जाते तो बापू दौड़ कर उन्हें संभाल लेते और प्यार से उसे बैलों को हाँकने की कला सिखाते थे। बापू के साथ उसने निराई-गुड़ाई सीखी थी। मक्का के खेत में वह बापू के साथ मंच पर बैठ कर फसल की रखवाली करता था। तब माँ खाना ले कर आती थी। बापू के साथ खाना उसे बहुत अच्छा लगता था। खेत की मेड़़ पर आम का पेड़ था। उसके फल बहुत मीठे और रसीले होते थे।

अचानक मस्तिष्क से स्मृतियाँ लुप्त हो गईं और ताज़ा हालात घुमडऩे लगे। उसने पेट काट-काट कर गाढ़े वक्त के लिए थोड़ी सी पूंजी जोड़ कर रखी थी जो चौमासे की बोनी में स्वाहा हो गयी थी। आगे के लिए चौधरी के सामने हाथ फैलाने के सिवा कोई चारा नहीं था। सोचा था, अबकी फसल अच्छी हो गई तो सारे दल्लदुर कट जाएँगे, पर आसमान से उगलती आग सब कुछ चाट गई। हार कर उसने सहर की राह पकड़ी, पर वहाँ भी मजूरी का पुख्ता बंदोबस्त नहीं था। कभी लगातार काम मिल जाता और कभी हाथ-पाँव जोडऩे के बाद भी खाली हाथ।

पेट की आग कुल-मरजाद नहीं देखती। ये बड़ी राच्छसिनी होती है। इसे कुछ न मिले तो इंसान को ही खाने लगती है। भूख ने अच्छों-अच्छों का ईमान-धरम डिगा दिया, उसकी तो औकात ही क्या है। मन मार कर उसे चौधरी की जी-हजूरी करनी पड़ती थी।

चौधरी कर्ज वसूली में बड़ा काईयां था। चमड़ी से दमड़ी निकालने में उसकी करतूतें जगजाहिर थीं। फिर भी किसान उसके आगे नाक रगड़ते थे। मजबूरी जो न कराए सो थोड़ा ही है। फुलवा के पास कोई चीजबत्त भी तो नहीं थी जिससे वह चौधरी से उरिन हो जाता। जमा-पूंजी के नाम पर पुरखों की निशानी खेत बचे थे.. ये भी चले गए तो बाल-बच्चों की जि़ंदगी कैसे पार होगी! दूर-दूर तक उसे आशा की कोई किरन नज़र नहीं आ रही थी। उसके शरीर में झुरझुरी रेंगने लगी।

कुहरा पडऩा शुरू हो गया था। सर्दी की अधिकता से उसके दाँत बजने लगे। रोटी के लिए मासूम बच्चों की तड़प और चलते समय फुलवा से किए वायदे उसके गले में अटकने लगे। अपने जीते वह बाल-बच्चों को कोई सुख नहीं दे सका… आगे भी उम्मीद नहीं थी। उसे अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा।

वह मंत्र-मुग्ध सा सूख चुके आम के पेड़ के पास पहुँचा। उसकी उजड़ी शाखाएँ किसी को छाँव तक नहीं दे सकती थीं.. बिल्कुल उसकी तरह। वह पेड़ पर चढ़ गया। गमछे का एक छोर उसने शाखा में बाँधा और दूसरा गले में लपेट कर गाँठ बाँध ली.. फिर आँखें बन्द कीं और झूल गया।

कोहरा और तेज पडऩे लगा था.. मानो आसमान उसके शव को कफन पहना रहा हो।

कथाकार:
शिव अवतार पाल
200, सती मोहल्ला
इटावा – 206001 (उ.प्र.)

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