संपादकीय

मानसिकता बदलने की ज़रूरत है।

पवन नागर, संपादक

क्यों किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है? क्यों किसान दूध और सब्जि़याँ सड़क पर फेंककर विरोध जता रहे हैं? क्यों उनकी ज़मीनें गिरवी पड़ी हुई हैं? क्यों कृषि लागत साल दर साल बढ़ती जा रही है? क्यों प्राकृतिक आपदाओं के आने पर मुआवज़ा सही वक्त पर नहीं मिल पा रहा है? क्यों किसान साल दर साल कर्ज़ में डूबा जा रहा है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो आज हर किसान को सता रहे हैं और जिनके जवाब न तलाश पाने के कारण ही उनके भीतर आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। और यह सब मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि खुद केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बताया है कि किसानों की आय में सुधार एवं सामाजिक सुरक्षा को लेकर उठाए गए तमाम कदमों के बावजूद सन् 2013 के बाद से हर साल 12000 किसान देश में आत्महत्या कर रहे हैं।

यह तो वाकई कमाल की बात है कि किसानों की भलाई के लिए ढेरों योजनाएँ बनाई और चलाई जा रही हैं, किसानों को मशीनरी पर सब्सिडी दी जा रही है, बड़े-बड़े बांध तैयार किए जा रहे हैं, खेत-खेत तालाब बनाए जा रहे हैें, हर साल कृषि महोत्सव मनाए जा रहे हैं, लेकिन फिर भी मर्ज़ है कि बढ़ता ही जा रहा है! ऐसे किसान ढूँढऩे में ही नहीं आ रहे हैं जिनको इन योजनाओं का लाभ मिला हो! ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि ये योजनाएँ सिर्फ कागज़ों में चल रही हैं और जनता को आंकड़ों की बाज़ीगरी दिखाई जा रही है?

वास्तविक स्थिति सामने लाने के लिए सरकार को चाहिए कि सभी योजनाओं के हितग्राही किसानों को दूसरे किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए आगे लाए, उन्हें गांव-गांव जाकर सरकार की योजनाओं के बारे में बताने के लिए कहे। कृषि विभाग को भी ऐसे हितग्राहियों की तस्वीरें मोबाईल नंबर और पूरे पते के साथ अपनी वेबसाईट पर डालनी चाहिए। और वेबसाईट भी अपडेट होनी चाहिए। ताकि कोई भी किसान वेबसाईट से जानकारी लेकर किसी भी योजना का लाभ ले सके।

यह तो हुई सरकारी जवाबदारी की बात। परंतु कुछ जि़म्मेदारी हमारी स्वयं की भी बनती है। किसान भाइयो! यदि हमें अपना अस्तित्व बचाए रखना है तो अपनी मानसिकता को बदलना होगा और यह निश्चय करना होगा कि हमें फिर से अपने पूर्वजों जैसा आत्म-निर्भर किसान बनना है, न कि सभी सुविधाएँ होने के बाद भी दूसरों पर निर्भर रहकर परेशानियाँ झेलने वाला आधुनिक पराश्रित किसान। यह हमारे ही हाथ में है। बस थोड़ा-सा मानसिकता को बदलकर देखना है और थोड़ा-सा परिश्रम करना है।

मानसिकता में सबसे पहला बदलाव तो इस सोच को त्यागना है कि कोई हमारी मदद करेगा। नहीं, कोई और हमारी मदद के लिए नहीं आने वाला है, हमें अपनी समस्याएँ स्वयं ही सुलझानी होंगी, अपनी मुश्किलों से स्वयं ही जूझना होगा। ऐसा कोई नहीं है जो बार-बार किसानों का कर्ज़ माफ कर सके, किसानों को 24 घंटे बिजली उपलब्ध करा सके, समय पर आपदाओं का मुआवज़ा या फसलों का उचित मूल्य दिला सके।

अब सवाल उठता है कि इन समस्याओं को हम खुद से हल करें तो कैसे? तो इसका जवाब बड़ा ही सीधा-सरल है। हम क़र्ज़ के चंगुल में इसलिए फँसते हैं क्योंकि बाज़ार में मिलने वाले उत्पादों व मशीनों पर आश्रित होना पसंद करने लगे हैं, केवल नकदी और एक जैसी फसलें बोने लगे हैं, मिट्टी और पर्यावरण की चिंता बिल्कुल छोड़ चुके हैं, मेहनत से जी चुराने लगे हैं, हर बात के लिए सरकार का मुँह ताकने लगे हैं। भाइयो, यदि आप ईमानदारी से आकलन करें तो पाएँगे कि आज जो खेती आप कर रहे हैं उससे कोई लाभ तो हो नहीं रहा, उल्टा बहुत सारी नई परेशानियाँ पैदा हो गई हैं। और मैं दावे के साथ कहता हूँ कि इन परेशानियों को हमारे अलावा कोई और हल नहीं कर सकता।

यदि आप इन समस्याओं को हल करना चाहते हैं तो आपको उन उपायों पर अमल करना होगा जिनसे आपकी खेती की लागत कम हो और बाज़ार व बैंकों पर आपकी निर्भरता खत्म हो। कौन से उपाय? सबसे पहले तो आपको रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का प्रयोग बिल्कुल बंद करना होगा। इसकी बजाए आप प्राकृतिक उर्वरकों का उपयोग करें, प्राकृतिक खेती में बताए गए तरीकों से मिट्टी की उर्वरता बढ़ाएँ। दूसरी बात यह कि आपको एकल फसल प्रणाली को छोड़कर बहुफसलीय या मिश्रित खेती को अपनाना होगा, जिसमें फसलें एक-दूसरे की पूरक होती हैं, मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाती हैं और कीटों के लिए फंदे का कामकरती हैं। इन दोनों तरीकों से आपकी खाद, कीटनाशक और पानी की लागत कम हो जाती है। तीसरी बात यह करनी होगी कि हमें अपने पास उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करके ही खेती करनी होगी, दूसरों की देखा-देखी में फँसने से बचना होगा। चौथी बात यह है कि हमें परिश्रम से बचने और आरामदायक जीवन-शैली के आदी होते जाने की प्रवृत्ति छोडऩी होगी, तब कहीं जाकर हमें कर्जों से मुक्ति मिलेगी और हम सरकार तथा बैंकों की दया पर निर्भर होने से बच पाएँगे।

मेरी आप सबको यह सलाह है कि शून्य लागत वाली प्राकृतिक खेती का प्रशिक्षण अवश्य लें, उसी से हम अपनी ज़मीनें और अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित रख पाएँगे। यदि हमने अभी भी अपनी मानसिकता नहीं बदली तो वो दिन दूर नहीं जब देश से किसान ही खत्म हो जाएगा, क्योंकि अब देश के सारे पूंजीपतियों की नज़र किसानों की बेशकीमती ज़मीन पर टिक गई है। केवल यह कहते रहने से काम नहीं चलेगा कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता है। इस देश का बहुत कुछ हो सकता है, बस हमें अपनी मानसिकता बदलने की ज़रूरत है। अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ है, अभी भी समय है अपनी गलतियों को सुधारकर अपने हालात बदलने का। और इस दिशा में कुछ प्रयास होते दिखने भी लगे हैं, कई किसान प्राकृतिक खेती अपनाने लगे हैं। आप भी जाग जाइए।

पवन नागर, संपादक

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