कृषि परिवर्तन के पाठकों के लिए अब हर अंक में किसी सुप्रसिद्ध लेखक की किसानों या गाँवों पर आधारित एक कहानी हुआ करेगी। इस बार प्रस्तुत है मध्यप्रदेश के महत्वपूर्ण कथाकार मनीष वैद्य जी की कहानी ‘हारे हुए पिता‘। इस कहानी में किसानों की स्थिति को बड़ी ही शिद्दत से उभारा गया है। पढि़ए और इसके बारे में अपनी राय हमें बताइए। हमें आपकी चिट्ठियों का इंतज़ार रहेगा।
धुआँ छोड़ती वह बस उसे यहाँ उतारकर आगे बढ़ चुकी है। वह देर तक देखता रहा उस जाती हुई बस को, जहाँ वह धीरे-धीरे छोटी होती एक बिंदु की तरह समा चुकी है कहीं। हवाओं में अभी ठंडापन नहीं उतरा है। शाम का धुंधलका घिरा नहीं है। बूढ़ी पीली धूप तिरछी होते हुए निस्तेज होती जा रही है। सितंबर महीने की शाम अक्सर धूप लौटने की जल्दी में होती है, उसने सोचा।
यहीं पहाड़ी के उस तरफ से नज़र आता है गाँव। पगडंडी उतरकर थोड़ा चलने पर मिलता है खेत का रास्ता। तालाब के पास से बाएँ मुड़कर खेत की ओर… पर अब वहाँ खेत होगा?
वह कदम संभालते हुए पगडंडी की ओर चल पड़ा है। वह शायद पहली बार कदमों को संभाल-संभालकर चल रहा है। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। वह हवा की तेजी से यहाँ से पहाड़ी उतरता रहा है। कभी तो फिसलते हुए भी। फिर आज उसके कदम भारी क्यों हुए जा रहे हैं? वह कुछ सोच ही रहा था कि अचानक उसका पैर फिसला और वह लुढ़क ही जाता, यदि पास की एक झाड़ी को मज़बूती से पकड़ न लिया होता। कपड़े झाड़कर खड़ा हुआ और चलने लगा फिर से। इस बार कदम और भी सधे हुए।
पहाड़ी का ढालू हिस्सा खत्म हुआ तो उसने चैन की सांस ली। वह तालाब के आगे मुडऩे को ही था कि कोई दृश्य कौंधता है भीतर से। कई साल पुराना। फ्रेम दर फ्रेम। ”सुभाष वल्द गोवर्धन का घर यही है?” तहसील के मुलाजि़म ने ऊँची और वज़नदार आवाज़ में पूछा है। नीम के पेड़ के करीब आकर। नीम का पेड़ उनके आँगन में ही है। अंदर से कोई जनाना आवाज़ है- ”हाँ भैया, घर तो उन्हीं का है। क्या बात है? ” कहते हुए हाबरी-काबरी-सी एक स्त्री घर से बाहर निकली है। उसने पल्लू की ओट से अजनबी को देखा है। पहली बार था कि कोई सरकारी मुलाजि़म इस तरह उनके घर के बाहर खड़ा होकर नाम पुकार रहा हो। ”क्या बात है भैया… ” स्त्री की आवाज़ में घबराहट पल-पल बढ़ रही है। ”कोरट का सम्मन है उसके नाम।” कोरट…! स्त्री के कलेजे पर जैसे कोई सन्नाता पत्थर पड़ा है। वह करीब-करीब रिरियाते हुए बोली है- ”क्या बात हो गई भैया…! कोरट से हमारा क्या वास्ता। आपको कोई गलतफहमी हो गई होगी शायद।”
कोरट के मुलाजि़म ने अजीब-सा मुँह बनाते हुए नाम दोहराया, कागज पर लगी सरकारी मोहर दिखाई, फिर फटकारते हुए कहा- ”कोरट का सम्मन है, कोई हँसी-मज़ाक नहीं है! मेरी जि़न्दगी गुज़र गई लोगों को सम्मन तामील कराते-कराते। कोरट का कागज़-पत्तर गलत कैसे हो सकता है! अपने पति को बुलवाओ जल्दी, मुझे पास के गाँव भी जाना है।”
स्त्री ने आँगन में चारपाई बिछा दी। मुलाजि़म उस पर बैठकर सुस्ता रहा है। पड़ोस की लछमी काकी और राधा बुआ भी आ गई हैं स्त्री को ढाँढस बँधाने। मुलाजि़म पामणे के लिए चूल्हे पर चाय बन रही है। आठ-दस साल का लड़का दौड़ गया है अपने पिता को बुलाने खेत की ओर। वह पहचानने की कोशिश करता है। इस लड़के की सूरत तो उसी की तरह है। शायद वही तो नहीं? हाँ, वही तो है। वही… वही…।
उसके पिता लौट रहे हैं तेज कदमों से घर की ओर। उनके पीछे वह दौड़ रहा है। पिता के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई हैं। पसीना बह रहा है उनके चेहरे से। उनका मन ठिकाने पर नहीं है। न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है मन इस वक्फे में। आँखों में कोई अंजाना-सा डर है। वे अपराध बोध से दबे जा रहे हैं। अपने आप से छुपते हुए, किसी के सामने पडऩे से बचते हुए वे लंबे डग भर रहे हैं।
चारपाई के पास धरती पर एक कोने में किसी गुनाहगार की तरह पिता बैठे हैं। किसी गठरी की तरह अपने आप में सिकुड़ते हुए। मुलाजि़म चाय सुड़कते हुए एक सांस में कह गया- ”तुम्हारे नाम का सम्मन है। अगले बुधवार को तहसील आ जाना। तुम्हारे काका ने दावा जताया है तुम्हारे खेत पर।” पिता के पैरों के नीचे से जैसे धरती खिसक गई या सिर पर आसमान आ गिरा। पिता के लिए खेत उनकी आत्मा से हिलगे हुए थे। पुरखों की ज़मीन उन्हें अपनेपन के एहसास से भर देती। वे इसे पुरखों की गोद मानते। काका ऐसा कैसे कर सकते हैं! उन्हें तो पिता ने पहले ही तालाब से लगी ग्यारह बीघा ज़मीन दे दी थी। अब इस खेत पर भी नज़र है! पिता ने गहरी सांस छोड़ी।
वर्तमान में लौटते हुए उसने देखा कि तालाब अब उस तरह हरहराता नहीं है; तब इसमें कितना पानी हुआ करता था! छपाक-छपाक नहाने का मज़ा… और ढोर-डंगरों को ले आते तब तो पूरा दिन कहाँ गुज़र जाता, पता ही नहीं चलता। इसका पानी ज़मीन पर खुदी चेर से धमनियों की तरह खेतों के बीच से रफ्ता-रफ्ता बहता रहता और खेत निहाल हो उठते। अनायास उसे लगा कि मिट्टी सने हाथों पिता किसी खेत से अभी-अभी निकले हैं। वे कहते हैं- ”खेत ज़मीन के टुकड़े नहीं हैं… ये माँ है, धरती माँ। इसे हमारे पुरखों ने बिसाया है हमारे लिए और हम छोड़ जाएँगे आने वाली पीढिय़ों के लिए। ये हैं तो हम कभी भूखे नहीं रहेंगे और न दुनिया में किसी को रहने देंगे। इस मिट्टी का ही सत है कि गाँव अब तक आबाद हैं और लहलहाते भी हैं। हमारी जि़न्दगी और उसका राग-रंग इन्हीं से पनपता है। इनसे ही जीवों-पखेरुओं का बसेरा है। ये हैं तो किसान हैं, नहीं तो खत्म हो जाएँगे लोग। उजाड़ होकर बीहड़ बन जाएँगे गाँव। कुछ नहीं बचेगा।” वह पुन: अतीत में विचरने लगा…
…मुलाजि़म चला गया था उनसे अंगूठा निशानी लेकर। जैसे अंगूठे के साथ उनकी जीभ भी ले गया हो। वे देर तक वहीं बैठे रहे, वैसे ही गुमसुम। उनके हाथ में भूरे रंग के सम्मन का कागज़ फडफ़ड़ाता रहा। उनकी आँखों में बवंडर था। मन में बेबसी और दु:ख का समन्दर घुमड़ रहा था। उनकी देह तप रही थी गुस्से से या अपनी कमज़ोरी से। बीते दिन उनके चारों तरफ बिखरे पन्नों की तरह उड़ रहे थे।
माँ बड़बड़ा रही है उनकी तरफ पीठ किए, ”पहले ग्यारह बीघा सोने जैसी ज़मीन और अब यह सूखी छह बीघा भी! आदमी है कि राखस!! उन्होंने कभी खेतों में कोई काम भी किया है! काकाजी तो चौपाल पर ताश पत्ती फेंटते रहे और हम घाणी के बैल की तरह खेतों में खटते-जुटते रहे। खेत नहीं होंगे तो हमारे बच्चे कहाँ जाएँगे! उनकी तो जड़ ही कट जाएगी। पहले ही कहा था, कोरट-कचेरी से बराबरी का हिस्सा-बाँटा करा लो। आज सेठ बजते गाँव भर में। साढ़े पाँच बीघा तालाब वाली पीवत की मिलती और तीन बीघा यहाँ की। साढ़े आठ बीघा में तो दलिद्दर दूर हो जाते हमारे। पर कौन सुनता मेरी! औरत को अक्कल कहाँ! सारी अक्कल तो आदमियों में ही भरी पड़ी है। घर-घर में ही बाँट लिया। लो अब लड़ो सालों साल तक कोरट-कचेरी। कहाँ से लाओगे कचेरी का खर्चा! कोई सहज है कोरट लडऩा! अच्छे-अच्छे नहीं लड़ पाते, फिर हमारी क्या औकात।” माँ उबली जा रही थी चूल्हे पर चढ़ी भरतिये की दाल की तरह, और पिता बर्फ की तरह ठंडे। दोनों की अभिव्यक्ति का अपना-अपना ढंग था।
फिर तो पिता के नाम तहसील और जिले की कोर्ट के सम्मन बार-बार आते ही रहे। बरसों तक वे जाते रहे किसी उम्मीद की आस में। भूरे और पीले पड़ चुके कागजों से उनकी संदूक भर गई पर वे न्याय की लड़ाई हारते जा रहे थे। वहाँ वकीलों की फौज थी। वहाँ गवाह थे। वहाँ अफसर थे। पर वे कहीं नहीं थे इस पूरे तंत्र में। वे उससे बाहर थे। इसलिए उनका सच भी झूठ ही रह गया। धीरे-धीरे ज़मीन उनके हाथ से फिसलती चली गयी। वे अपने ही पुरखों की ज़मीन से बेदखल कर दिए गए।
उनके हाथ कुछ नहीं लगा था। घर का पैसा और सामान मुकदमे में पहले ही भेंट चढ़ चुका था। वे उस दिन कचहरी से युद्ध हार चुके सैनिक की तरह लौटे थे। अपना वजूद वहीं छोड़ कर। वे टूटे थे पर बिखरे नहीं थे। कहते थे- ”हिम्मते मरदां तो मददे खुदा… ” घर से सुबह दूसरों के खेतों में काम करने निकल जाते तो सूरज डूबने पर ही लौटते। वे बुरे दिनों का जाल अपनी धारदार हंसिया से काट रहे थे; वे अपनी नोकदार कुदाली से निकाल रहे थे अपने हिस्से का अनाज। वे सच पर पड़ी मिट्टी हटा रहे थे अपने फावड़े से। उनकी तगारी में सुस्ताते थे सूरज, चाँद और धरती।
उन्हीं दिनों काका के बेटे ज़मीन बेच शहर चले गए। जिस सेठ ने खरीदी थी वह यहाँ खाद और कीटनाशक का गोदाम बना रहा था। यह उनके लिए बड़ा झटका था। ज़मीन चले जाने से भी बड़ा। वे नाउम्मीद होते जा रहे थे। वे अब बुरी तरह टूटते जा रहे थे। वे अनमने और अपने में ही खोये रहते। अब उनमें कोई जंग जीतने की ललक नहीं थी और न अपनी जि़न्दगी से कोई लगाव बच गया था।
पिता कहते थे- ”हम सब कोरट के सम्मन के इंतजार में हैं। सारे किसान। आज नहीं तो कल कोई मुलाजि़म उनका सम्मन लेकर आता ही होगा। ज़मीनें अब उनकी होकर भी उनकी नहीं रह गई हैं। एक दिन सब खत्म हो जाएगा। चारों तरफ सिर्फ कागज़ ही कागज़ होंगे। सरकारी मोहरें लगे कागज़। तब धरती नहीं बचेगी किसी खेत के लिए! ”
रात को सबके सोने के बाद पिता अँधेरे में निकल पड़ते और उस खाली ज़मीन पर भटकते रहते। जैसे उस अतीत को जी रहे हों फिर से। वे शायद उस ज़मीन पर स्मृतियों के हल चलाते। और ऐसी ही एक अँधेरी रात वहीं पास के कुँए में वे डूब गए। सुबह कुछ नहीं बचा था, निर्जीव देह के सिवा। पिता तैरना जानते थे, फिर कैसे डूब सकते हैं! शायद वे तैरना ही भूल गए हों या तैरना ही नहीं चाहा हो उन्होंने!!
उनके जाने के बाद कुछ नहीं बचा था। दो रोटी की उम्मीद में गृहस्थी की गठरी बाँधे वे लोग भी शहर आ गए थे। कई साल गुज़र गए पर कभी गाँव आने की इच्छा ही नहीं हुई। आज इधर आना हुआ तो उसने सोचा कि एक चक्कर लगाया जाए।
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अनायास कोई बवंडर-सा उठता है और कई भूरे-पीले कागज़ उड़ते हुए उसके आसपास भर जाते हैं। जैसे पतझड़ में सूखे पत्तों का ढेर। इन कागजों पर सरकारी मोहरें लगी हैं और लिखी हैं सरकारी इबारतें। वह जी भर कोशिश करता है उससे बाहर आने की। पर नहीं निकल पा रहा उस दलदल से। पैर धँसते जा रहे हैं। भूरे और पीले पड़ चुके कागज़ उसके पैरों को जकड़ रहे हैं, खेतों की ओर जाने से रोक रहे हैंं उसे बेडिय़ों की तरह।
उसने देखा कि भूरे और पीले कागज़ों का ढेर पूरी धरती पर फैल गया है। तमाम खेतों में कागज़ ही कागज़ फैले हुए हैं। अब कहीं फसलें नहीं हैं, केवल सरकारी मोहर वाले कागज़ ही कागज़। इन कागज़ों के बीच से निकल रही हैं द्वीप की तरह सड़कें, रेल पटरियाँ, बाँध, बाज़ार, मॉल, बिल्डिंगें, बंगले और फैक्टरियाँ। कहीं नहीं है अब कोई खेत।
पश्चिम में सूरज डूबने को है। शाम का धुंधलका घिर रहा है। उसके भीतर भी अँधेरा घुल गया है। उसके कदम तेजी से लौट रहे हैं। उसका दम फूल रहा है। वह हाँफते हुए पहाड़ी चढ़ रहा है। आखरी बस का समय हो रहा है।
नीम अँधेरे में उजाले का भ्रम देती बस की हेडलाइट चमकती है। उसे लेकर बस आगे बढ़ गई है। वहाँ फिर नीम अँधेरा छा गया है। अँधेरा पीछे छूट रहा है। वह लौट रहा है फिर कभी वापस न लौटने के लिए….
लेखक: मनीष वैद्य
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