ज़मीन का नहीं, जि़म्मेदारी का करें बँटवारा
वैसे तो 20-20 के चलन को आए हुए एक दशक से भी ज़्यादा हो गया है परंतु असली 2020 में प्रवेश हमने 1 जनवरी 2020 को किया है। अब हम वाकई कह सकते हैं कि ये 20-20 का ज़माना है। जैसे-जैसे हम आधुनिक होते जा रहे हैं वैसे-वैसे ही हमारी हर चीज़ छोटी होती जा रही है, फिर चाहे आप क्रिकेट की बात करें या परिवार की। पहले क्रिकेट 50-50 ओवर का होता था और अब 20-20 ओवर के मैचों का चलन बहुत तेजी से चल पड़ा है। इसी तरह पहले हमारे देश में संयुक्त परिवार का चलन था पर अब एकल परिवारों का चलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। या कहना चाहिए कि अब संयुक्त परिवार का चलन लगभग खत्म ही हो गया है। मतलब, परिवार भी छोटे हो गए हैं। इस आधुनिक दौर में हम सबको कम समय लेने वाली चीज़ें पसंद आने लगी हैं, या कहा जाए कि पहले हमारे पास जो सब्र करने की शक्ति थी उसने अब दम तोड़ दिया है। इस आधुनिकता के कारण अब इंसानों में सब्र या इंतज़ार करने की क्षमता नहीं बची है और उनमें हर कार्य को जल्दी-जल्दी करने या ‘निपटाने’ की होड़ लगी हुई है, फिर चाहे वो क्रिकेट का मैच हो या अपने बच्चों को शिक्षित करने की बात हो। अब लोग अपने बच्चों को दो-ढाई साल की उम्र में ही स्कूल भेजने लगे हैं। आधुनिक माता-पिता को अपने बच्चों को जल्दी से जल्दी शिक्षित करना है। फिर जैसे ही बच्चों की शिक्षा पूरी होती है तो इन्हीं आधुनिक माता-पिता को उनकी नौकरी की जल्दी होने लगती है। फिर जैसे ही नौकरी मिलती है वैसे ही बच्चों की शादी करने की जल्दी होती है, और शादी कराने के बात पोते-पोतियों को खिलाने की जल्दी होती है। लेकिन जैसे ही ये आधुनिक माता-पिता दादा-दादी बनते हैं वैसे ही यह जल्दबाज़ी उन्हें महँगी पडऩे लगती है और एक नयी समस्या खड़ी हो जाती है जिसे हम भारतीय समाज की कुप्रथा या अव्यवस्था भी कह सकते है। इस समस्या का नाम है- बँटवारा।
बँटवारा हमारे देश में राजाओं-महाराजाओं के ज़माने से चली आ रही है व्यवस्था है। वर्तमान में कानूनन माता-पिता अपनी संपत्ति का उत्तराधिकारी अपनी मर्जी से किसी भी व्यक्ति या अपनी किसी भी संतान को बना सकते हैं। और हमारे भारतीय समाज में कहावत है कि ‘भईया! शादी के बाद बँटवारा तो रीत है।‘ वैसे हमारे किसी भी ग्रंथ में नहीं लिखा है कि बँटवारा ज़रूरी है। हमारे पूर्वज जाने कितनी पीढिय़ों तक संयुक्त परिवार में रहकर खुशी-खुशी विदा हो गए और उनके बाद भी बड़े बेटों ने ही पूरे परिवार को संभाला और खेती किसानी भी संभाली। परंतु हरित क्रांति के बाद जब हमारा उत्पादन बढने लगा और जीवन व समाज में आधुनिकता प्रवेश करने लगी, तब से बँटवारे का चलन बहुत तेजी से बढऩे लगा और अब तो खैर यह अपने पूरे शबाब पर है। अब तो लड़के की शादी हुए 6 माह भी नहीं होते कि लड़का और बहू नि:संकोच माता-पिता से बँटवारे की माँग करने लगते हैं।
बच्चों को अब माता-पिता से उतना लगाव नहीं रहा। जैसे ही शादी होती है, उनको अपना परिवार दिखने लगता है, अपनी पत्नी और अपने बच्चे दिखने लगते हैं। वे माता-पिता का दु:ख-दर्द बिल्कुल भी नहीं देखते हैं। आधुनिक ज़माने के बच्चे की नज़र सिर्फ माता-पिता की संपत्ति और पैसों पर रहती है। 20-20 ज़माने के बच्चों को संस्कार और मान-मर्यादा और अपने माता-पिता के बलिदान का कोई ख्याल ही नहीं है।
इसी बँटवारे के कारण हमारे देश में किसानों की संख्या दिन-ब-दिन घटती जा रही है। अब बड़े किसान बहुत ही कम बचे हैं और नयी पीढ़ी के बच्चे खेती में रुचि ही नहीं लेते हैं। उनके हिस्से में जो पुश्तैनी ज़मीन आती है उसको बेचकर शहर में मकान खरीद लेते हैं या उस पैसे से कोई व्यवसाय शुरू कर देते हैं। बँटवारे के बाद ज़मीन इतनी कम हो जाती है कि उसमें खेती करने में बहुत ज़्यादा परेशानी भी आती है।
आपको बताते चलें कि बँटवारे से आज तक दुनिया में किसी का भी भला नहीं हुआ और न ही किसी का होगा। बँटवारा सिर्फ और सिर्फ नफरत, मनमुटाव, आपसी द्वेष और दुश्मनी का परिचायक है, फिर चाहे यह दो देशों के बीच हो या दो परिवारों या भाईयों के बीच। आज़ादी के 72 वर्ष बाद भी हिन्दुस्तान और पाकिस्तान बँटवारे का दंश भुगत रहे हैं। भले ही दोनों देशों की जनता एक-दूसरे के प्रति भाईचारे और प्रेम का भाव रखे, पर दोनों देशों के नेता सत्ता की अपनी लालसा को पूरा करने के लिए अपनी-अपनी जनता को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काने का कोई मौका नहीं चूकते। यही हाल उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया का भी है। ये दोनों देश भी एक-दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। ऐसे ढेरों उदाहरण हमारे सामने हैं जिनसे हम सीख सकते हैं और मिल-जुलकर रहकर आगे तरक्की के रास्ते खोल सकते हैं।
हम यहाँ बँटवारे और उसके नुकसान की बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज हमारे देश में किसानों की संख्या बहुत ही तेजी से कम हो रही है और बँटवारा इसके प्रमुख कारणों में एक है। बँटवारे के कारण एक किसान अपने आपको किसान कहलाने से भी मोहताज हो जाता है क्योंकि उसकी ज़मीन के इतने टुकड़े हो जाते हैं कि उसके हिस्से में मामूली सी ज़मीन ही आती है। अब इतनी छोटी ज़मीन से वह गुज़र करे तो कैसे? और यदि यह कहा जाए कि असली ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ तो बँटवारे की प्रथा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज-कल बहुत कम किसानों के बच्चे खेती में रुचि रखते हैं। अधिकतर तो शहरों में पढ़-लिखकर वहीं बस जाते हैं या कोई व्यवसाय करने लगते हैं। इस प्रकार किसानों की संख्या दिन-ब-दिन कम होती जा रही है।
भले ही लोगों ने मान लिया हो कि कि ‘बँटवारा तो रीत है, यह तो होकर ही रहेगा, चाहे कोई कुछ भी कर ले,’ परंतु इस दुनिया में हर समस्या का समाधान है बशर्ते आप समाधान चाहते हों। यदि आप सिर्फ समस्या की चर्चा ही चाहते हों तो फिर तो समाधान मिलने से रहा। लेकिन यदि आप समस्या का समाधान चाहते हो तो फिर चर्चा के साथ ही समाधान भी मिल जाएगा।
हम यहाँ बात कर रहे हैं किसानों की और उनके परिवार में होने वाले ज़मीन के बँटवारे की। यदि किसान देवास के प्रसिद्ध कथाकार और लेखक मनीष वैद्य की निम्नलिखित बात पर गौर करें तो फिर बँटवारा किसी भी हाल में होगा ही नहीं। मनीष वैद्य जी के शब्दों में, ”खेत ज़मीन के टुकड़े नहीं हैं… ये माँ हैं, धरती माँ। इन्हें हमारे पुरखों ने बसाया है हमारे लिए और हम छोड़ जाएँगे आने वाली पीढिय़ों के लिए। ये हैं तो हम कभी भूखे नहीं रहेंगे और न दुनिया में किसी को रहने देंगे। इस मिट्टी का ही सत है कि गाँव अब तक आबाद हैं और लहलहाते भी हैं। हमारी जि़न्दगी और उसका राग-रंग इन्हीं से पनपता है। इनसे ही जीवों-पखेरुओं का बसेरा है। ये हैं तो किसान हैं, नहीं तो खत्म हो जाएँगे लोग। उजाड़ होकर बीहड़ बन जाएँगे गाँव। कुछ नहीं बचेगा।” यदि इन शब्दों को हर किसान अपने ज़ेहन में उतार ले तो बँटवारे की कुप्रथा और समस्या जड़ से ही खत्म हो जाए। ज़रूरत है तो बस अपने खेतों को अपनी माँ की तरह मानने की और उनके साथ अपनी माँ की तरह व्यवहार करने की। ऐसा नहीं चलेगा कि एक ओर तो हम उसे धरती माँ कहते रहें और दूसरी ओर धड़ल्ले से यूरिया, डीएपी, कीटनाशक और खरपतवारनाशक के रूप में उसको धीरे-धीरे ज़हर देते जाएँ। ऐसा दोगला व्यवहार बिल्कुल भी नहीं चलेगा।
इस समस्या के दो उपाय हो सकते हैं। पहला तो यह कि यदि माता-पिता चाहें तो अपनी ज़मीन का बँटवारा होने ही न दें, अपने बच्चों से कहें कि एक साल पूरी ज़मीन पर एक बच्चा खेती करेगा, दूसरे साल दूसरा बच्चा और तीसरे साल तीसरा बच्चा। इससे होगा यह कि तीनों बच्चों में प्रेम भाव बना रहेगा और ज़मीन टुकड़े-टुकड़े होने से बच जाएगी। दूसरा फायदा यह होगा कि तीनों भाई खेती से भी जुड़े रहेंगे और यदि उनकी नौकरी या व्यवसाय है तो उसे भी जारी रख पाएँगे। तीसरा फायदा यह होगा कि अभी बँटवारे के बाद अधिकांश बच्चे अपने हिस्से की ज़मीन बेचकर जो शहरों में पलायन कर जाते हैं वह भी रुकेगा और ज़मीन बिकने से बच जाएगी।
दूसरे उपाय के रूप में माता-पिता को यह करना चाहिए कि बच्चों के बीच संपत्ति और ज़मीन का बँटवारा न करके जि़म्मेदारियों का बँटवारा करना चाहिए। जिस भी बच्चे की खेती में रुचि हो उसे खेती के कार्य की जि़म्मेदारी दें। जिसे नौकरी में रुचि हो उसे नौकरी करने की आज़ादी दें और जिसे खुद का व्यवसाय करने की रुचि हो उसे व्यवसाय करने में मदद करें। इस प्रकार घर का हर सदस्य अपनी-अपनी जि़म्मेदारी बखूबी निभाए तो परिवार कभी टूटेंगे ही नहीं। यदि सभी लोग ईमानदारी के साथ और भेदभाव व लालच के बिना यह कार्य करें तो इस उपाय से एक मज़बूत परिवार निरंतर चलता रहेगा। यहाँ माता-पिता को सभी बच्चों को बराबर समझना होगा। ऐसा नहीं चलेगा कि किसी एक बच्चे से ज़्यादा लगाव और दूसरे से कम लगाव। सभी को बराबर स्नेह और बराबर जि़म्मेदारी देनी होगी। इस प्रकार एकजुटता और जि़म्मेदारीपूर्वक रहकर हम बहुत सारी वर्तमान समस्याओं से निजात पा सकते हैं, एक खुशहाल जीवन जी सकते हैं और अपने पूर्वजों की ज़मीन के सही उत्तराधिकारी साबित हो सकते हैं। तभी सही मायने में हम ‘धरतीपुत्र’ कहलाएँगे। तो किसान भाईयो! मेरा आप से निवेदन है कि यदि आपको बँटवारा करना है तो जि़म्मेदारियों का करें, न कि संपत्ति और ज़मीन का।
पवन नागर,
संपादक