हरित-क्रांति से सूखी-क्रांति की कहानी
यह कहानी भारत में रहने वाले एक किसान परिवार की कहानी है जो पूरी तरह से आत्मनिर्भर खेती से अपने परिवार का भरण पोषण करता था। आधुनिकता, हरित-क्रांति, मशीनरी और तकनीक ने उससे आत्मनिर्भर का यह तमगा छीन लिया और अब वह अन्नदाता से कर्जदार किसान का तमगा लेकर घूम रहा है और चुनाव दर चुनाव कर्ज माफी की आस लगाए बैठा रहता है।
बच्चे के जन्म के 4 साल बाद पिता जी का देहांत हो जाता है, तो घर की जि़म्मेदारी बड़े लड़के पर आ जाती है। अब बड़ा लड़का खेती-किसानी का काम परिवार के बाकी लोगों के साथ मिल-जुलकर करने लगता है। घर की सभी महिलाएँ पुरुष सदस्यों के बराबर काम करती थीं – घर से लेकर खेत तक।
1960 के बाद जब हरित-क्रांति अपने पैर पसार रही थी तब हरित-क्रांति के जनकों को अंदाजा न होगा कि 1960 के दशक में किसान परिवार में जन्म लेने वाले बच्चों पर भविष्य में इस हरित क्रांति का क्या असर होगा?
1960 के दशक में 15 एकड़ के एक आत्मनिर्भर किसान परिवार में एक बच्चे का जन्म होता है; एक बड़े भाई और चार बहनों के बाद इस बच्चे का जन्म होता है। जिस वक्त बच्चे का जन्म होता है उस वक्त पिता जी के घर गाँव के मामलों को सुलझाने की पंचायतें लगा करतीं थीं। तीन जोड़ी बैल-गाड़ी, गाय, और भैंसों को मिलाकर लगभग 25-30 दुधारू एवं खेती में काम करने वाले पशु इनके बाड़े की शान बढ़ाते रहते थे। खेती का पूरा काम बैलों पर निर्भर रहता था। तब ट्रैक्टर का आगमन विश्व में शुरू हो गया था परंतु भारत के गाँवों तक ट्रैक्टर की पहुँच नहीं हुई थी। इतना बड़ा परिवार पूरी तरह से खेती पर निर्भर था- बिना आधुनिकता, बिना किसी मशीनरी के। कोई परेशानी नहीं थी।
खेतों में उन सभी फसलों का उत्पादन होता था (बिना किसी रासायनिक खाद और बिना किसी कीटनाशक के) जिनका घर में उपयोग हो चाहे- वो अनाज हो, दाल हो, तिलहन हो, मोटा अनाज हो, साग-सब्जी हो, या फल हो। आज के समय की तरह उस समय एकल फसल नहीं उगाई जाती थी और न ही रसायन और कीटनाशक का इस्तेमाल होता था। खेती में खर्च के नाम पर मेहनत ही थी, या बैल खरीदने में जो निवेश लगे वो था।
रोटी भी चूल्हे पर बनती थी, जिसके लिए जलाऊ लकड़ी जंगल से बैल-गाड़ी पर लादकर लाई जाती थी। इसके लिए सरकार रमन्ना देती थी और किसानों के समूह अपने इलाके के जंगलों से जलाऊ लकड़ी बैल-गाडिय़ों में लादकर लगभग 8 दिनों में वापस अपने घर आते थे। तब संचार का कोई साधन नहीं था, इसलिए इतने दिनों तक घर और बच्चों की जि़म्मेदारी महिलाओं पर होती थी और वे बखूबी इस जि़म्मेदारी को निभाती थीं।
यदि कोई किसान वर्तमान समय में सुबह से शाम तक खेत से घर ना पहुँचे तो घर में भूचाल आ जाए और किसान का फोन मिसकॉल से भरा मिले। सब रिश्तेदारों को भी खबर हो जाए। परंतु उस ज़माने में कोई संचार साधन नहीं था तो एक बेफिक्री थी, एक विश्वास था। पर आधुनिक साधनों ने हमको डरपोक और चिंतामणि बना दिया है।
धीरे-धीरे 4 साल का यह बच्चा बड़े होने लगा। पाँचवी तक ही पढ़ाई हो सकी। चूँकि उस समय जल्दी शादी हो जाती थी, इसलिए बड़े भाई और बहनों की शादी के बाद हरित-क्रांति के साल में पैदा हुए इस बच्चे की भी 18 साल की उम्र में शादी हो जाती है। साल था 1978। इस समय तक ट्रैक्टर का आगमन भारत की राजधानी के निकटतम राज्यों में हो चुका था, परंतु जिस राज्य की यह कहानी है वो है भारत का दिल कहलाने वाले मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे की।
ट्रैक्टर का आगमन 1990 के बाद बहुत तेज़ी से हुआ और बदस्तूर अभी अपने शबाब पर है, और ट्रैक्टर कंपनियाँ दूरदराज के उन इलाकों में भी अपना ट्रैक्टर बेचने का भरसक प्रयास कर रही हैं जहाँ ट्रैक्टर की आवश्यकता ही नहीं है। और जो किसान अपनी बैल-गाड़ी को नहीं छोडऩा चाहते हैं, उन किसानों पर भी ट्रैक्टर कंपनियों की नज़र है।
चूँकि यह बच्चा हरित-क्रांति में पैदा हुआ है तो इसका नामकरण भी उसी के आधार पर कर देते हैं। तो आगे की कहानी में इस किरदार का नाम होगा ‘हरिराम’।
शादी होने के बाद हरिराम की पत्नी का आगमन होता है, जो कि पास के ही गाँव की है। हरिराम की पत्नी के दो भाई और एक बहन है। इनके पिताजी के पास भी 15 एकड़ ज़मीन है। पहले शादी भी ज़मीन देखकर ही होती थी। इधर भी 15 एकड़, उधर भी 15 एकड़, मतलब बात पक्की।
आज के ज़माने में शादी के लिए सरकारी नौकरी वालों को प्राथमिकता दी जाती है और खेती करने वाले युवकों की शादी मुश्किल से होती है। इस बदलाव का कारण आप आधुनिकता, बढ़ती सुविधाजनक जीवन-शैली और हरित-क्रांति को मान सकते हैं। इनके कारण समाज में आमूलचूल कई बदलाव हुए हैं और अब हमारे समाज में आसानी से पैसे कमाने वालों को इज़्ज़त की और मेहनत से कमाने वालों को तिरझी नज़र से देखा जाने लगा है।
बँटवारे का दंश, भुगतेगा पूरा वंश
हरिराम अब शादीशुदा हो चुका है और अब उसे हमारे समाज के परिवारों और किसानों को बर्बाद करने वाली एक कुप्रथा का सामना करना पड़ेगा। इस कुप्रथा का नाम है ‘बँटवारा’। हाँ, वही बँटवारा जिसके कारण महाभारत का युद्ध हुआ था। ये वही बँटवारा है जिसके कारण भारत-पाकिस्तान की जनता अभी भी नेताओं द्वारा ठगी जा रही है और हर चुनाव में दोनों देश के राजनेता अपने राजनैतिक फायदे के लिए भारत-पाकिस्तान को बीच में ले ही आते हैं। दोनों देशों की जनता में नफरत पनपी ही इसी बँटवारे के कारण।
हरिराम के चार बच्चे हैं। दो लड़की और दो लड़के। लड़कियाँ दोनों बड़ी हैं और लड़के दोनों छोटे हैं। बँटवारे के बाद हरिराम के पास 7.5 एकड़ ज़मीन, एक खिलयान, एक जोड़ी बैल-गाड़ी, 4 गाय, और साथ में बूढ़ी माँ आई। हरिराम की माँ अभी भी अपने सारे काम खुद ही करती है और रस्सी भी बनाती है।
1990 के समय तक हरिराम इस खेती-किसानी से अपना भरण-पोषण बढिय़ा कर रहा था – वह भी बिना रासायनिक खाद, बिना पानी की सुविधा, और बिना किसी ट्रैक्टर के। उसके खेत में कई तरह की स्थानीय फसलें लगती थीं और सब्जियाँ भी वह अपने खेत और बाड़े में लगाता था। चूँकि इस समय तक हरित-क्रांति ने पूरे भारत में पैर पसार लिए थे, तो हरिराम का खेत कैसे बचता इस हरित-क्रांति से।
हरित-क्रांति सिर्फ रासायनिक खाद और कीटनाशकों से नहीं आई, हरित-क्रांति में सिंचाई का भी महत्वपूर्ण योगदान है। यदि सिंचाई की व्यवस्था नहीं बढ़ती तो हरित-क्रांति इतनी तेजी से भारत में अपने पैर नहीं पसारती, क्योंकि रासायनिक खेती करने की पहली मांग ही अधिक पानी है; पानी की उपलब्धता के बिना रासायनिक खेती संभव ही नहीं है। हरिराम अब यूरिया और डीएपी का इस्तेमाल करने लगा था, इसलिए उसको अब ज़्यादा पानी की ज़रूरत थी, और इसलिए अब हरिराम को ट्यूबवेल की ज़रूरत महसूस हुई।
अब हरिराम ट्यूबवेल कैसे कराए, उसके लिए तो इतने पैसे जमा नहीं थे। तो हरिराम ने अपनी आधी एकड़ की गटिया सिर्फ 25000 रुपए में बेच दी और ट्यूबवेल कराया, जिसमें 2.5 इंच पानी निकला तो हरिराम ने खुशी में सबको मिठाई खिलाई। उसकी आधी एकड़ की गटिया का बलिदान व्यर्थ न गया। यहाँ से सिलसिला शुरू हो गया ‘बेचने का’। आगे चलकर और क्या-क्या बिकेगा, इसका अंदाज़ा शायद हरिराम को नहीं है।
अब ट्यूबवेल तो हो गया, पर उसमें मोटर भी तो चाहिए, बिजली का कनेक्शन भी तो चाहिए, तभी तो ट्यूबवेल चल पाएगा, और इन सबके लिए पैसे भी तो चाहिए। हरिराम ने कभी नहीं सोचा होगा कि ट्यूबवेल के बाद उसका खर्चा इतना बढ़ जाएगा। अब उसे स्थाई कनेक्शन के लिए बिजलीघर के चक्कर लगाना पड़ रहे हैं। कई महीनों की दौड़-धूप के बाद हरिराम को बिजली का स्थाई कनेक्शन मिल गया और उसके खेत तक बिजली के तार पहुँच गए। इधर मोटर भी खरीद ली गई। इतना होने के बाद अब पानी देने के लिए पाइप भी चाहिए होंगे, तो हरिराम ने पाइप भी खरीदे। हरिराम ने कभी भी कल्पना नहीं की होगी कि ट्यूबवेल कराने के बाद वो कर्जदार हो जाएगा। हरिराम की आधी एकड़ की गटिया भी बिक गई और हरिराम कर्जदार भी हो गया और बिजली का बिल भी अब हर महीने आने लगा। दूसरे शब्दों में कहें तो हरिराम ने मुसीबत मोल ले ली।
ट्यूबवेल होने के पहले साल में हरिराम ने अपने खेत में गेंहू लगाए, और जब फसल निकली तो पूरा घर गेंहू से भर गया। हरिराम का पूरा परिवार खुश हुआ। परंतु हरिराम अपनी विविधता वाली खेती से हाथ धो बैठा। भरपूर उत्पादन तो हुआ परन्तु फसल के दाम आशानुरूप नहीं मिले। अब उसके पास सिर्फ गेंहू है, और कुछ नहीं। इससे पहले हरिराम बिना रासायनिक खाद और पानी के कई फसलें उगाता था, पर अब पानी की व्यवस्था होने के बाद सिर्फ गेंहू उगाने लगा। अब उसको अपने परिवार के लिए गेंहू छोड़कर बाकी सब बाज़ार से खरीदना है। इससे पहले हरिराम सबकुछ अपने खेत से ले आता था।
धीरे-धीरे हरित-क्रांति पूरे भारत में पैर पसार रही थी और उन किसानों को अपनी चपेट में ले रही थी जिन्होंने कभी एक ही फसल का इतना उत्पादन नहीं देखा था। देखते भी कैसे, वे तो बहुत सारी फसलें लगाते थे, इसलिए सभी फसलों को मिलाकर जितना उत्पादन निकलता था वह बंपर उत्पादन नहीं लगता था।
सन 1995 में 85 वर्ष की आयु में हरिराम की माँ का देहांत हो जाता है। इधर हरिराम ट्यूबवेल के कारण कर्ज में फँस जाता है। अब हरिराम को समाज की एक दूसरी कुप्रथा का सामना करना है। सामाजिक बंधन है कि तेरहवीं तो करना ही पड़ेगी, जो कि एक बहुत खर्चीला काम है। समाज के स्वजातीय बंधुओं को भोजन कराना है, वह भी स्वादिष्ट और शान से, नहीं तो हरिराम की समाज में इज्जत खराब हो जाएगी। भले ही हरिराम को कर्ज लेना पड़े या अपनी पूर्वजों की ज़मीन बेचना पड़े, परंतु तेरहवीं तो करनी ही पड़ेगी। यह कैसी रीत है जिसमें समाज के लोगों को भोजन कराने के लिए एक परिवार कर्जदार बन जाए? फिर कैसे समाज में सुधार होगा? कैसे समाज उन्नति करेगा? इन प्रश्नों के उत्तर समाज के ठेकेदारों के पास शायद अभी तक नहीं हैं,
तभी तो यह कुप्रथा अभी तक सभी समाजों में बदस्तूर जारी है। अब हरिराम का कर्ज और बढ़ गया। अब हरिराम ने अपने बैल भी बेच दिए क्योंकि गाँव में ट्रैक्टरों की भरमार हो चुकी थी, बैल से खेती करने वाला गाँव का आखिरी किसान हरिराम ही था, गाँव की आखिरी बैल-गाड़ी भी हरिराम के पास ही थी।
यहाँ फिर हरिराम ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। बैलों के कारण हरिराम के पास अपना खुद का साधन था और उसमें कोई ज्यादा खर्च भी नहीं था, परंतु अब हरिराम को अपने खेत की जुताई के लिए ट्रैक्टर वाले पर निर्भर रहना पड़ेगा और उसका पैसा भी देना पड़ेगा। इस प्रकार हरिराम ने अपनी आत्मनिर्भरता का आखिरी साधन भी बेच दिया और हरित-क्रांति के जाल में पूरी तरह फँस गया।
अब हरिराम क्या करे? उसके ऊपर कर्ज हो गया था। इधर बच्चे भी बड़े हो रहे थे; उसकी दोनों लड़कियाँ शादी के लायक हो गई थीं और लड़के भी वयस्क हो चले थे। एक दिन हरिराम अपनी पत्नी से कहता है कि साहूकार बड़ा परेशान कर रहा है, तो उसकी पत्नी कहती है कि ”ज़मीन बेचकर साहूकार का कर्ज चुका दो और कुछ पैसे बचेंगे तो बच्ची की शादी भी तो करना है।” हरिराम को बात समझ आई और ज़मीन के ग्राहक आने लगे। हरिराम ने अपनी 2 एकड़ सड़क किनारे की मौके की ज़मीन कम दाम में बेचकर कर्ज से मुक्ति पाई।
अब हरिराम के पास 5 एकड़ ज़मीन बची है, परंतु हरिराम को कहाँ मालूम था कि खर्च तो हमेशा बना रहेगा, और खर्च को पाटने के लिए आय के साधन भी बरकरार रखना पड़ते हैं। परंतु यहाँ हरिराम निरंतर अपने आय के साधनों को बेचता ही जा रहा था। हरिराम अब खेती-किसानी और दूध बेचकर अपना घर चला रहा है, जिसमें उसके दोनों लड़के और पत्नी सहयोग करती है, जबकि लड़कियाँ घर का काम संभालती हैं।
इधर सरकार ने ‘किसान क्रेडिट कार्ड योजना’ की घोषणा कर दी, जिसमें किसानों को कम ब्याज पर बैंकों से कर्ज मिल जाता है। साल-दो साल तो हरिराम ने सोचा भी नहीं कर्ज के लिए। परंतु समय बहुत तेज़ी से बदल रहा था और समय के साथ-साथ खर्च भी बढ़ता ही जा रहा था।
इसलिए हरिराम को भी किसान क्रेडिट कार्ड बनवाना पड़ा। साल 2002 में हरिराम बैंक से 50000 का कर्ज लेता है। केसीसी में सुविधा थी कि कर्ज को साल में एक बार जमा करो और अगले दिन उस पैसे को निकाल लो। इस प्रकार हरिराम फसल बेचकर ब्याज सहित कर्ज की रकम जमा करता और अगले ही दिन ब्याज काटकर पैसा उसे वापस मिल जाता।
अब हरिराम के दोनों लड़के भी बड़े हो चुके थे और पैसे कमाने लगे थे। परन्तु आधुनिकता के साधनों की बाढ़ बाज़ार में आ चुकी थी; मोटर साइकिल, टीवी, फ्रीज, कूलर, प्रेस इत्यादि सामानों के आकर्षक विज्ञापन चारों ओर से ग्रामीण जनता को घेरने में लगे हुए थे।
जिस हरिराम ने अपनी 25 वर्ष तक की आयु में अपने गाँव में बिजली के दर्शन भी नहीं किए थे, अब उसके घर बिजली निरंतर आ रही थी, परन्तु कटौती का भी सामना करना पड़ रहा था। इधर कृषि क्षेत्र में भी मशीनरी का आगमन बहुत तेज़ हो गया था। कृषि को आसान बनाने के लिए ट्रैक्टर, कंबाइन हार्वेस्टर, थ्रेशर इत्यादि सभी उपकरण कंपनियाँ बनाने लगीं और भारतीय किसान के परंपरागत उपकरण धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर आ गए। भारत के अधिकांश कृषि क्षेत्र में आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल बहुत अधिक होने लगा, जिससे कृषि कार्य जल्दी होने लगा और समय की बचत होने लगी, परन्तु साथ ही छोटे किसानों की लागत भी बढऩे लगी।
पहले हरिराम अकेला ही परिवार में कमाने वाला था जबकि अब हरिराम के दोनों बच्चे भी कमा रहे हैं, परन्तु हरिराम का घर-खर्च और खेती का खर्च इतना बढ़ गया है कि अब तीन लोगों की कमाई भी कम लगने लगी है।
चूँकि हरिराम के लड़के बड़े हो गए हैं तो उनकी शादी भी करना है। परन्तु अब पहले वाला ज़माना नहीं रहा है। अब 21वीं सदी है जनाब और यहाँ शादी की पहली शर्त पक्का मकान है।
हरिराम के बड़े लड़के को देखने कितने ही लड़की वाले आ चुके हैं और हर बार उसका रिश्ता कबेलू का कच्चा मकान तोड़ देता है। आखिरकार हरिराम के बड़े लड़के को पक्का मकान बनाना ही पड़ा, पर उसकी सारी कमाई पक्के मकान में चली गई। और इधर केसीसी का क़र्ज़ भी बढ़कर अब 3 लाख रुपये हो गया है।
अब हम वर्तमान में, यानि कि 2024 में हैं। अब हरिराम की 5 एकड़ की खेती की लागत इतनी बढ़ गई है कि खेती की कमाई से सिर्फ घर-खर्च ही चल पाता है। हरिराम के पास आत्मनिर्भरता के नाम पर सिर्फ आत्मनिर्भरता के नारे के अलावा कुछ भी नहीं बचा है। उसकी ज़मीन भी बैंक में गिरवी रखी है और हर साल बैंक को ब्याज ही चुका रहा है। भला वो इतने पैसे एक साथ कहाँ से लाए जिससे उसका क़र्ज़ चुक जाए।
इधर ट्यूबवेल भी काफी पुराना हो गया है और उसमें भी पानी कम हो गया है। इसलिए हरिराम अपने खेत में अब गेंहू के साथ चना और देसी बटरा (मटर) बोने लगा है। बारिश में सोयाबीन लगाता है। परन्तु सोयाबीन भी कोई विश्वसनीय फसल नहीं रही। धीरे-धीरे करके सोयाबीन का रकबा भी कम होने लगा है और सोयाबीन की जगह अब धान ने ले ली है। अब बारिश में धान का रकबा बढऩे लगा है। उसके आसपास के किसान धान लगाने लगे हैं। परन्तु धान भी अधिक पानी वाली फसल है। इधर हरिराम के ट्यूबवेल में पानी कम हो गया है, इसलिए हरिराम अब साल में एक ही फसल लेता है। हरिराम अब दूसरे ट्यूबवेल के जाल में फँसना नहीं चाहता है क्योंकि पहले ट्यूबवेल ने हरिराम की आधी एकड़ की गटिया बिकवा दी थी और अब तो ट्यूबवेल का खर्च भी काफी ज़्यादा हो गया है, अब एक ट्यूबवेल का खर्च कम से कम डेढ़ लाख रुपए आता है। और कोई गारंटी भी नहीं है कि ट्यूबवेल में पानी निकल ही आए, क्योंकि जल-स्तर इतना नीचे पहुँच गया है। कई किसानों ने अपने खेत में 5-5 ट्यूबवेल कराके भी देख लिए, परन्तु पानी का कोई अता-पता नहीं मिला। इसलिए हरिराम की ट्यूबवेल कराने की हिम्मत तो नहीं हो रही है परन्तु दिली इच्छा बहुत है।
हरिराम अब 64 साल का हो गया है, दोनों लड़कों की शादी भी हो गई है। एक बार फिर हरिराम को बँटवारे की कुप्रथा का सामना करना पड़ेगा। जाने कौन सी किताब में लिखा है कि बच्चों की शादी करने के बाद बँटवारा इतना ज़रूरी क्यों हो जाता है। बच्चों की शादी से पहले तो कोई बँटवारे के बारे में बात भी नहीं करता है। जिस प्रथा से परिवार बिखर रहे हैं, किसानों की ज़मीन टुकड़े-टुकड़े हो रही है, और ज़मीन के साथ-साथ माता-पिता का भी बँटवारा हो रहा है, ऐसी कुप्रथा को समाज क्यों ढो रहा है यह बात समझ से परे है।
फिर बच्चों की शादी करने से ऐसा क्या फायदा कि आपका परिवार ही मिट जाए, आपने जीवनभर प्रयास करके जो भी संपत्ति कमाई वो पलभर में ही टुकड़े-टुकड़े हो जाए। बँटवारा सिर्फ ज़मीन का बँटवारा नहीं करता अपितु एक-दूसरे के मन में जीवन भर के लिए नफरत भी भर देता है। क्या बच्चों में जि़म्मेदारियों का बँटवारा नहीं हो सकता, जिससे परिवार भी बच जाए और ज़मीन के टुकड़े होने से भी बच जाएँ?
हरिराम को अपने 64 वर्ष के जीवन में दूसरी बार बँटवारा देखना पड़ रहा है। पहली बार उसने अपनी शादी के कई साल बाद देखा था और अब बच्चों की शादी के तुरंत बाद देखना पड़ रहा है। हरिराम के पास 5 एकड़ ज़मीन है और अभी उसका बाकी का जीवन भी है, और इस उम्र में उसको सहारे की भी ज़रूरत है ऊपर से अब ज़माना पहले जैसा नहीं रहा है, काफी बदल गया है। अब बच्चों की निगाहें माता-पिता के स्वास्थ्य की जगह उनकी संपत्ति पर रहती हैं।
कहाँ तो हरिराम का पूरा परिवार मिल-जुलकर खेती-बाड़ी का काम करता था, परन्तु अब तो उसके मिल-जुलकर रहने के भी लाले पडऩे वाले हैं। न सिर्फ ज़मीन बँटेगी बल्कि घर का भी हिस्सा होगा। एक प्रश्न फिर यहाँ खड़ा होता है कि व्यक्ति क्या अपने जीवन में यही दिन देखने के लिए जी-तोड़ मेहनत करता है कि एक दिन में ही उसके जीवनभर का संघर्ष तार-तार हो जाए?
चूँकि यह समस्या सिर्फ हरिराम की नहीं है अपितु पूरे भारत में बँटवारे के कारण न सिर्फ परिवारों का बिखराव हो रहा है बल्कि किसानों की संख्या में भी तेज़ी से कमी आ रही है। साल-दर-साल वास्तविक खेती करने वाले किसानों की संख्या में भारी कमी आ रही है, साथ ही किसानी की ज़मीन भी साल-दर-साल घट रही है। ऐसे में आगे चलकर तेज़ी से बढ़ रही जनसँख्या के सामने भोजन का संकट पैदा होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
हरिराम ने फिलहाल एक एकड़ ज़मीन अपने बड़े लड़के को और एक एकड़ ज़मीन अपने छोटे लड़के को दी और बाकी की 3 एकड़ ज़मीन अपने पास रखी ताकि उसका बाकी का जीवन चल सके। अब हरिराम ने खेती करना छोड़ दिया है और अपनी 5 एकड़ ज़मीन किराए से देता है, जिसका किराया 25000 रुपये प्रति एकड़ प्राप्त होता है। तीन एकड़ का किराया हरिराम खुद रखता है और दो एकड़ का किराया उसके दोनों बच्चों को मिलता है।
अब हरिराम सिर्फ किताबी किसान है जो अपनी पूर्वजों की ज़मीन किराए से देता है और सरकार की तरफ से उसे अब 6000 रुपये सम्मान निधि भी मिलती है। अब हरिराम के पास सिर्फ 75000 रुपये हैं और साल के बारह महीने हैं। ऊपर से किसान क्रेडिट कार्ड का 3 लाख का क़र्ज़ भी है जिसको उसने एक-एक एकड़ ज़मीन के बदले दोनों बेटों में बाँट दिया है। मतलब, उसको क़र्ज़ नहीं चुकाना है, उसके दोनों बच्चे क़र्ज़ चुकाएँगे।
यह समय 2024 का है और हरित-क्रांति के साल में पैदा हुए हरिराम की यह वर्तमान स्थिति है। यह स्थिति सिर्फ हरिराम की नहीं है बल्कि देश के अधिकांश किसानों की कमोबेश यही स्थिति है। देश के अधिकांश किसानों की दुर्दशा ऐसे ही हो रही है। खेती-किसानी से जुड़ीं इन समस्याओं का समाधान खोजने का कोई प्रयास नहीं कर रहा है।
हरित-क्रांति के कारण फसलों का उत्पादन तो बढ़ा, परन्तु उस हिसाब से फसलों का दाम उनको नहीं मिल पा रहा है, और ऊपर से किसान की आत्मनिर्भरता भी छिन गई। कहाँ तो हरिराम एक आत्मनिर्भर किसान था और कहाँ अब उसको अपनी ज़मीन भी किराए से देनी पड़ रही है।
जल-स्तर पाताल के करीब पहुँच गया है और किसान रासायनिक खादों को कुन्टलों की मात्रा में अपने खेत में इस्तेमाल कर रहे हैं। ज़मीन इतनी सख्त हो गई है कि बैल से खेती करना अब संभव नहीं है। ट्रैक्टरों के हर साल एचपी (HP) बढ़ते ही जा रहे हैं। क्या इतनी सख्त ज़मीन में भरपूर पानी के बिना खेती करना संभव है?
दूसरी तरफ किसान की पूरी किसानी बाज़ार पर ही निर्भर है। न तो उसके पास अपना बीज है, न तो अपना खाद है, और न ही अपना भोजन। उसे हर चीज़ बाज़ार से लानी है। कहने का अर्थ है कि हरित-क्रांति के युग में पैदा हुए बच्चे अपनी कभी सोना उगलने वाली ज़मीन को बंज़र होने से नहीं रोक पा रहे हैं, बल्कि उनमें तो अब इतनी भी हिम्मत नहीं बची कि वे खेती कर सकें। तो आप कल्पना कर सकते हैं कि फिर वर्तमान में पैदा हुए बच्चे कैसे खेती करेंगे।
वर्तमान में किसान के पास न तो शुद्ध भोजन है अपने परिवार के लिए, और न ही बीमारियों से बचने का कोई उपाय। अब तो उसकी मजबूरी है रसायन पर आधारित खेती करने की, जो कि बहुत ही खचीर्ली तो है ही, साथ में बीमारियों की मुफ्त गारंटी भी है, और बीमारियों का इलाज भी कोई सस्ता सौदा नहीं है। कुल मिलाकर कहा जाए तो किसान ऐसी खर्चीली खेती के जाल में फँस गया है जिससे निकलना बहुत मुश्किल है।
यदि किसानों को इस खर्चीली खेती से निजात पाना है और अपने परिवार को शुद्ध भोजन खिलाना है एवं बीमारियों से बचाना है तो उन्हें फिर से हरित-क्रांति के पहले वाले तरीके को अपनाना होगा और समाज में व्याप्त उन कुप्रथाओं पर भी विचार करना होगा जिनसे परिवार बिखर रहे हैं और ज़मीन टुकड़े-टुकड़े हो रही है। अभी जलवायु परिवर्तन की समस्या ने भी पैर पसार लिए हैं, तो सभी को जलवायु परिवर्तन से भी निपटना है।
जलवायु परिवर्तन के कारण साल-दर-साल फसलों का उत्पादन कम हो रहा है। इन सभी समस्याओं का समाधान प्राकृतिक खेती और बहुफसली प्रणाली ही है। यदि किसानों को अपने पूर्वजों की ज़मीन को बंजर होने से बचाना है, जल-संकट से बचना है, जलवायु परिवर्तन की समस्या को और विकराल होने से रोकना है, तथा अपने परिवार को शुद्ध भोजन खिलाना है और बीमारियों से बचाए रखना है तो आत्मनिर्भर प्राकृतिक खेती की ओर लौटना होगा, जिसमें उसकी सहायता करने के लिए आधुनिक कृषि उपकरण और नयी-नयी तकनीक बाज़ार में उपलब्ध है।
हरित-क्रांति से पहले वाले किसानों के पास तो यह सब नहीं था, फिर भी वे आत्मनिर्भर प्राकृतिक खेती बहुत अच्छे से करते थे, तो इतनी आसानी होने के बाद वर्तमान किसान क्यों नहीं कर सकते हैं? इस पर विचार सभी को करना पड़ेगा और प्रकृति के साथ सबको चलना ही पड़ेगा।
पवन नागर,
संपादक