कहानी

कहानी- उजास

कथाकार: कविता वर्मा

कहानी- उजास

चारपाई के चरमराने की आवाज़ से रामदेई ने करवट बदल कर देखा और झोपड़ी के घुप अंधेरे में अपनी आँखें चारपाई पर सोए या जागे पड़े अपने पति बद्री पर गड़ा दीं। बद्री ने भी मानो ज़मीन पर गोदड़ी बिछाकर सोई रामदेई के करवट बदलने से धरती के चरमराने की आवाज़ सुनी हो, उसने उस तरफ  देखा और दम साध कर जिस अवस्था में था उसी अवस्था में थम गया। अब अंधेरे में दो जोड़ी आँखें एक-दूसरे के जगने-सोने की थाह लेती अपलक ठहरी हुई थीं। दोनों ही एक-दूसरे से खुद के जागते रहने को राज़ रखना चाहते थे और खुद के नींद में रहने का विश्वास दिलाना चाहते थे। झोपड़ी वक्त के साथ दम साधे दोनों को देख रही थी कि देखें कौन पहले इस कोशिश में हारता है। कुछ देर धीमी-तेज़ साँसों के साथ खुद के सोए होने की नौटंकी से झुंझलाकर रामदेई ने पूछा, ”क्या हुआ, नींद नहीं आ रही है?”

”तुम भी तो जाग रही हो और जता ऐसे रही हो जैसे गहरी नींद में हो।”

”दोनों ही जानते हैं कि नींद नहीं आ रही, लेकिन किसे दोष दें, अपनी किस्मत को या-” कहते-कहते रामदेई का गला रूँध गया।

”ला, पानी पिला दे, ” किसी तरह रूँधे गले से आवाज़ निकालते बद्री ने कहा। रामदेई उठ बैठी और चारपाई के पाए के पास रखे लोटे से कटोरी हटाकर बद्री को पकड़ाया। अंधेरे में गट-गट-गट पानी पीने की आवाज़ आती रही। लोटा लेकर बचा पानी अपने मुँह में डालकर रामदेई ने गले को खोलने की कोशिश की, लेकिन वह जानती थी कि वहाँ बहुत सारे प्रश्न भी अटके पड़े हैं जो बाहर आने को व्याकुल हैं। चारपाई फिर चरमराई। बद्री ने रामदेई की तरफ  करवट ली तो उसने भी करवट ले ली। दो पल की चुप्पी बहुत लंबी हो गई और झोपड़ी इंतज़ार करने लगी कि अब कौन पहले बोले!

इस बार फिर रामदेई ने पूछा, ”क्या सोचा है किशोर के बाबू, क्या करोगे? ”

”तू बता, तेरा मन क्या कहता है? ”

”मैं क्या कहूँ! बेटे की मजरी, उसकी तकलीफ हम नहीं देखेंगे तो कौन देखेगा? ”

”और हमारी तकलीफ  कौन देखेगा? ” बद्री ने कुछ तुनक कर कहा जो शायद वह दिन के उजाले में नहीं कह पाता।

”हमें क्या तकलीफ  है? फिर बेटे ने कहा तो है कि वह हर महीने पैसे भेजेगा।”

”और अगर न भेजे तो बुढ़ापे में कटोरा लेकर घूमेंगे, अब इस उमर में तो मेहनत-मज़दूरी होने से रही।” झोपड़ी के अंधेरे में भयावह भविष्य की कालिमा भी घुल गई जिसमें शब्द खो गए और सन्नाटा पसर गया।

कुछ देर बाद रामदेई ने फिर साहस बटोरा। इस बार शब्द गले में अटके नहीं थे, वे तो कहीं शून्य में गुम हो चुके थे। उसने बड़ी मेहनत से चुन-चुन कर उनको बटोरा, ”भेजेगा क्यों नहीं! बेटा है आखिर… ” वह आगे भी कुछ कहना चाहती थी लेकिन शब्दों के खोखले पन से घबराकर चुप हो गई और पीठ सीधी कर ली।

”तूने भी दुनिया देखी है, फिर भी ऐसी बात करती है? अगर उसे हमारी चिंता होती तो हमें अपने पास बुलाता या सिर्फ ज़मीन बेचकर पैसा मँगवाता? ”  न चाहते हुए भी बद्री का स्वर कसैला हो गया और आवाज़ हाँफ  गई, जैसे बहुत ज़ोर लगाकर निकली हो। कह देने के बाद जैसे उसे राहत मिली और उसने अंधेरे में आँखें मिच-मिचाकर मानो अंधेरे को धन्यवाद दिया। दिन के उजाले में इस बारे में कई बार बात हुई लेकिन इन शब्दों में इतना नंगापन था कि वे गले से बाहर नहीं आ पाए। ”ज़मीन नहीं बेचोगे तो पैसे कैसे भेजोगे? ” रामदेई के स्वर में बेटे की चिंता थी।

”मेरे पास क्या पैसों का पेड़ है जो तोड़कर भेज दूँ! क्या उसे हमारी हालत नहीं पता है? माना आठ-दस साल से शहर में है लेकिन क्या उसे पता नहीं है कि यहाँ हर महीने कमाई नहीं होती, चार-पाँच महीनों में एक बार फसल पर पैसे मिलते हैं और उसी से अगला-पिछला सब खर्च चलता है? ”

”पता क्यों नहीं है, सब पता है। या कहो अब भूल गया हो। लेकिन उसकी बात नहीं मानी तो कहीं वह नाराज़ न हो जाए? ” बेटे के रूठने का डर रामदेई के स्वर में आ गया। ”फिर अब तुमसे भी तो इतनी मेहनत नहीं होती, ज़मीन का करोगे क्या? ”

”एक उपाय है तो, लेकिन किशोर को अच्छा नहीं लगेगा, ” कहते हुए बद्री ने पीठ चारपाई से लगा दी और सोच में पड़ गया। लंबी चुप्पी से घबराकर रामदेई ने चारपाई की तरफ  करवट बदली, ”कहो न! ”

”देख रामदेई, ज़माना खराब है। शहर जाकर पढऩे और नौकरी करने वाले लड़के गाँव की ओर नहीं पलटते, और अगर कहीं माँ-बाप ने ज़मीन बेचकर उन्हें पैसा दे दिया तब तो माँ-बाप की ओर भी नहीं देखते। अपने किशोर को ही लो, उसकी शादी को 4 साल हो गए। दो बार दो-दो दिन के लिए आया। कभी हमें अपने पास नहीं बुलाया। न कभी पैसा-कौड़ी की व्यवस्था पूछी। उसकी पढ़ाई के लिए एक खेत गिरवी रखा था, नौकरी लगने के बाद कभी धेला नहीं दिया, न उसे छुड़वाने की बात की। बेटे का मोह होता है लेकिन उसमें अपने बुढ़ापे का ख्याल नहीं छोडऩा चाहिए।”

रामदेई दम साधे इस भूमिका को सुन रही थी। वह अंदाज़ा नहीं लगा पा रही थी कि बद्री कहना क्या चाहता है। ”देख, मैं सोच रहा हूँ कि धनिया और कृष्णा अपने खेत पर बरसों से काम कर रहे हैं और खेती-बाड़ी की अच्छी समझ भी है उन्हें, तो क्यों न उन्हें एक-एक खेत बटाई पर दे दूँ? जैसे पहले काम करते थे वैसे ही अब भी करेंगे, बस अब मज़दूरी के बजाय फसल का एक हिस्सा लेंगे। ज़मीन अपनी रही तो पेट जितनी रोटी मिलती रहेगी।”

”लेकिन उन्होंने बेईमानी कर ली तो? ”

”नहीं करेंगे। और करेंगे तो फसल के हिस्से में करेंगे, ज़मीन तो हमारी रहेगी। वकील बाबू से कागज़ पर लिखा-पढ़ी करवा लेंगे ताकि कोई दगा ना हो।”

”और किशोर? उसे बुरा लगा और उसने संबंध तोड़ लिए तो? ” रामदेई की आवाज़ काँप गई। आँखों की कोरों से बहकर आँसू सूखी धरती में समा गए।

”किस भुलावे में है रामदेई! बेटे से संबंध पहले ही छिरछिरा गए हैं। ज़मीन का पैसा लेकर वह आखिरी झटका देने की तैयारी में है। लेकिन ज़मीन बची रही तो एक रेशा बचा रहेगा। शायद उसके सहारे कभी लौट आए। हमें न जाने अभी और कितना जीना है, तब तक हाथ न फैलाना पड़े इतनी जद्दोजहद तो करनी पड़ेगी। क्या कहती है? ”

”ठीक कहते हो किशोर के बाबू, यही ठीक है।” बातचीत खत्म होते-होते दरवाज़े की झिर से सूरज की एक किरण ने झोपड़ी में प्रवेश कर असहायता की घनी कालिमा को अपनी उजास से दूर कर दिया और झोपड़ी मुस्कुरा दी।

कथाकार: कविता वर्मा
पता 542 A, तुलसी नगर,
बोम्बे हॉस्पिटल के पास,
इंदौर-452010

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