खेती-बाड़ी

अरहर की खेती

लेखक: रविन्द्र कुमार राजपूत, विषय-वस्तु विशेषज्ञ (मृदा विज्ञान), कृषि विज्ञान केन्द्र, दुवासु, मथुरा डॉ. सोमेन्द्र नाथ, विषय-वस्तु विशेषज्ञ, सस्य विज्ञान, कृषि विज्ञान केन्द्र, बम्सा, जौनपुर। प्रदीप राजपूत, परास्नातक छात्र, सस्य विज्ञान, कृषि महाविद्यालय, नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि, कुमारगंज, फैजाबाद। श्रीमती ज्योति वर्मा, परास्नातक छात्रा, स्कूल ऑफ एग्रीकल्चर, संस्कृति विवि, छाता, मथुरा।

दलहनी फसलों में अरहर एक मुख्य एवं लोकप्रिय फसल है। सामान्यत: देश में अरहर की तीन प्रकार की किस्में उगाई जाती हैं। प्रथम प्रकार की किस्म, जिसे लंबी अवधि की किस्म माना जाता है, 200-240 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। यह प्राय: अन्य फसलों के साथ मिश्रित/अंत: फसल प्रणाली में उगाई जाती है। दूसरी प्रकार की अरहर की किस्म, जिसे मध्म अवधि की किस्म कहते हैं, 160-180 दिन में तैयार होती है। इसे अकेले अथवा कपास, ज्वार, बाजरा, सोयाबीन या सावां-कोदों के साथ मिश्रित/अंत: फसल प्रणाली में उगाया जाता है। तीसरी अल्पावधि की किस्मों की संख्या कई सारी है। इन दिनों किसानों की चतुर रणनीति और सिंचाई की अच्छी व्यवस्था होने के कारण अल्पावधि अरहर की खेती ही अधिक की जा रही है। ये अगेती प्रजातियाँ 135-140 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं। इस वजह से अरहर को बहुफलीय पद्धति में उपयुक्त स्थान मिला है। इसके अतिरिक्त भारत में अरहर-गेहूँ फसल चक्र अपनाने हेतु अरहर अत्यन्त प्रचलित है। वर्षा उपरान्त रबी में अरहर की खेती उन भागों में जहाँ सर्दी पड़ती है, लोकप्रिय हो रही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के बाढग़्रस्त क्षेत्रों में बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद सितंबर माह (रबी) में इसकी खेती की संभावनाएँ प्रबल हैं। इन क्षेत्रों के लिए रबी अरहर की बहार तथा पूसा-9 शरद जैसी प्रजातियाँ विकसित की गयी हैं। अरहर की फसल उगाने से मृदा की उर्वरता में वृद्धि होती है क्योंकि इसकी पत्तियाँ झड़कर भूमि पर गिर जाती हैं और मिट्टी में मिल जाने पर खाद का काम करती हैं। अरहर की जड़ें भूमि में गहराई तक वृद्धि करती हैं, जिसके कारण मृदा का आयतन बढ़ जाता है और जड़ों में उपस्थित राइजोबियम बैक्टीरिया वायुमण्डल से नत्रजन लेकर मृदा में नत्रजन की वृद्धि करता है। वायु द्वारा मृदा क्षरण रोकने में वायु प्रतिरोधक के रूप में भी इसे काम में लाते हैं।

जलवायु :
अरहर आद्र्र तथा शुष्क दोनों ही प्रकार के गर्म क्षेत्रों में भली-भांँति उगाई जा सकती है, लेकिन शुष्क भागों में इसे सिंचाई की आवश्यकता होती है। फसल की प्रारंभिक अवस्था में पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए गर्म-तर अर्थात नम जलवायु की आवश्यकता होती है। पौधों पर फूल आते समय एवं फली और दाने बनते समय शुष्क मौसम और तेज़ धूप की आवश्यकता होती है।

भूमि का चुनाव:
अरहर की फसल के लिए बलुई दोमट व दोमट भूमि अच्छी होती है। वैसे इसकी खेती हर प्रकार की ज़मीन में की जा सकती है, बशर्ते उचित जल-निकास हो।

भूमि की तैयारी :
खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करके पाटा लगाना चाहिए।

उन्नतशील प्रजातियाँ :
अच्छी उपज के लिए उपयुक्त प्रजाति का चुनाव तथा उसके शुद्ध व विश्वसनीय बीज की उपलब्धता का सबसे अधिक महत्व है।

अगेती प्रजातियाँ (135 से 140 दिन): यू.पी.एस. 120, मानक, पूसा-84, पूसा-33, पूसा-992, पन्त ए.-3, टाइप-21।

मध्यम प्रजातियाँ (160 से 200 दिन): मुक्ता, बहार, सागर, सी-11, पूसा-9.

दीर्घ कालीन प्रजातियाँ (250 से 270 दिन): अमर, नरेन्द्र अरहर-1, नरेन्द्र अरहर-2, पूसा-9, बहार, टाइप-7, टाइप-17, बसन्त।

बुवाई का समय:
(1) फरवरी-मार्च (गन्ना, सरसों व आलू के बाद खाली हुए खेतों में) में- शुद्ध फसल के रूप में या मिश्रित या सहफसल के रूप में मूंग के साथ।

(2) अप्रैल में- गेंहू की फसल कटने के बाद खाली पड़े खेतों में।

(3) जून-जुलाई खरीफ में – अर्थात बरसात के आरंभ में।

(4) सितंबर में- रबी अरहर (पूर्वी उ. प्र. एवं बिहार में)।

फरवरी-अप्रैल (बसंत) में बोई गई फसल से जून-जुलाई की बुवाई की तुलना में 25 प्रतिशत अधिक पैदावार होती है। देर से पकने वाली प्रजातियाँ (टाइप-7 एवं टाइप-17), जो लगभग 270 दिन में तैयार होती हैं, की बुवाई जुलाई माह में करनी चाहिए। शीघ्र पकने वाली प्रजातियों को सिंचित क्षेत्रों में जून के मध्य तक बो देना चाहिए ताकि यह फसल नवंबर के अन्त तक पककर तैयार हो जाए और दिसंबर के प्रथम सप्ताह में गेंहूँ की बुवाई संभव हो सके। अधिक उपज लेने के लिए टाइप-21 प्रजाति को मार्च-अप्रैल में (मैदानी तथा तराई क्षेत्रों को छोड़कर) ग्रीष्मकालीन मूंग के साथ बोना चाहिए।

बीज का उपचार:
एक किलोग्राम बीज को 2.5 ग्राम थीरम तथा 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम से शोधित करने के बाद अरहर के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर के एक पैकेट (200 ग्राम) से 10 किलोग्राम बीज का उपचार करना चाहिए। ऐसे खेतों में जहां अरहर पहली बार या काफी समय बाद बोई जा रही हो, कल्चर का प्रयोग अवश्य करें।

बीज की मात्रा एवं बुवाई का समय:
बुवाई हल के पीछे कूँड में करनी चाहिए। अगेती प्रजातियों के लिए पंक्ति से पंक्ति एवं पौधे से पौधे की दूरी क्रमश: 60 सेमी एवं 20 सेमी, देर से पकने वाली प्रजातियों के लिए क्रमश: 75 सेमी एवं 20 सेमी जबकि देर से बोई जाने वाली फसल के लिए 30 सेमी. एवं 10 सेमी. रखनी चाहिए। उपयुक्त दशाओं में अगेती फसल, देर से पकने वाली फसल और देर से बुवाई वाली फसल के लिए प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा क्रमश: 15 किलोग्राम, 15 किलोग्राम व 40 किलोग्राम प्रयोग करना चाहिए।

उर्वरकों का प्रयोग:
अरहर की अच्छी फसल लेने के लिए 10-15 किलोग्राम नत्रजन, 40-50 किलोग्राम फॉस्फोरस तथा 20 किलोग्राम गन्धक की प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। यदि फॉस्फोरस की मात्रा सिंगिल सुपर फॉस्फेट के रूप में दी जाए तो गन्धक की आपूर्ति भी हो जाती है। उर्वरकों का प्रयोग कूँड में चोंगा या नाई की सहायता से करना चाहिए जिससे उर्वरक का बीज से संपर्क न हो।

खरपतवार नियन्त्रण:
शुरू में अरहर की फसल की बढ़वार कम होती है और खरपतवारों की बढ़वार काफी हो जाती है, अत: बुवाई के एक महीने के अन्दर एक निराई की आवश्यकता होती है। घास तथा चौड़ी पत्ती के खरपतवारों को रासायनिक विधि से नष्ट करने के लिए पेन्डीमैथालीन (स्टाम्प) 30 ई.सी. 3 लीटर या एलाक्लोर (लॉसो) की 4 लीटर मात्रा को 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरन्त बाद छिड़काव करने से खरपतवारों का नियन्त्रण हो जाता है।

सिंचाई:
अगेती फसल की बुवाई पलेवा करके तथा अन्य प्रजातियों की बुवाई वर्षाकाल में पर्याप्त नमी होने पर करना चाहिए। अगेती फसल में फलियां बनते समय कम नमी होने पर अक्टूबर के महीने में एक सिंचाई करें। देर से पकने वाली प्रजातियों में पाले से बचाव हेतु दिसंबर या जनवरी माह में सिंचाई करना लाभदायक रहता है।

फसल सुरक्षा:
अरहर की फसल को पाले से बचाने हेतु 0.1 प्रतिशत गंधक के अम्ल का छिड़काव (2 मिली. प्रति लीटर जल में घोलकर) किया जाए। सिंचाई तथा धुँआ करके भी पाले से बचाव कर सकते हैं। अरहर की फसल को कीड़ों व बीमारियों से बहुत हानि होती है। कभी-कभी इनके प्रकोप से उत्पादन में 50-60 प्रतिशत तक की कमी हो जाती है। अत: इनकी पहचान और रोकथाम करके ही भरपूर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

रोग:
अरहर का बांझ (स्टेरेलिटी मोजैक) रोग: इस रोग से ग्रसित पौधों में छोटी-छोटी पत्तियां अधिक लगती हैं और फूल नहीं आते, जिससे दाना नहीं बनता। पत्तियों में हरिमा हीनता हो जाती है। यह रोग माइट द्वारा फैलता है। फलस्वरूप उत्पादन में 75-80 प्रतिशत तक कमी हो जाती है। इस रोग से बचाव के लिए अवरोधी प्रजातियों का चयन करें।

अरहर का उकठा रोग: यह रोग ‘फ्यूजेरियम उडमÓ नामक कवक द्वारा फैलता है। यह कवक पौधों में पानी व खाद्य पदार्थ के संचार को रोक देता है, जिससे पत्तियाँ पीली पड़कर झड़ जाती हैं और पौधा सूख जाता है। इसमें जड़ें सड़कर गहरे रंग की हो जाती हैं तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की ऊँचाई तक काले रंग की धारियाँ पायी जाती हैं। इस रोग का प्रकोप प्राय: देर से पकने वाली प्रजातियों में दिसंबर व जनवरी के महीने में जब तापमान कम होता है, अत्यधिक होता है। उकठा रोग से बचाव के लिए (1) जिस खेत में उकठा रोग का प्रकोप अत्यधिक हो उस खेत में 3-4 साल तक अरहर की फसल नहीं लेना चाहिए, (2) उकठा अवरोधी प्रजातियाँ उगाना चाहिए, (3) अरहर के साथ ज्वार की सहफसली खेती करने से रोग का प्रकोप कम होता है, तथा (4) उपयुक्त विधि से बीज उपचार करना चाहिए।

फली छेदक कीट:
इस कीट की गिडारें फलियों के अन्दर घुसकर हानि पहुंचाती हैं और क्षतिग्रस्त फलियों में छिद्र दिखाई देते हैं। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. 800 मिली. या इन्डोसल्फान 35 ई.सी. 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का आवश्यकतानुसार पानी में घोल बनाकर फूल आने पर छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकतानुसार छिड़काव 15 दिन पर दोबारा करें।

अरहर की फली मक्खी:
फली मक्खी अरहर की फली के अन्दर दानों को खाकर हानि पहुँचाती है। इसकी रोकथाम के लिए फूल आने के बाद मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. या डाईमिथोएट 30 ई.सी. का 1.0 लीटर  प्रति हैक्टर की दर से आवश्यकतानुसार पानी में घोल बनाकर प्रभावित फसल पर छिड़काव करें।

पत्ती लपेट कीट:
सूंडियाँ पौधे की चोटी की पत्तियों को लपेटकर सफेद जाला बुनकर उसी में छिपी पत्तियों को खाती हैं। इसकी रोकथाम हेतु मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. का 800 मिलीलीटर या मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम या इन्डोसल्फान 35 ई.सी. 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव, छिड़काव करना चाहिए।

 

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