संपादकीय

चाँद पर जीवन ढूंढने वालों पहले धरती का जीवन तो बचा लो

पवन नागर

चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतरने वाला भारत पहला देश बन गया। विश्व के तकनीक में संपन्न देश दूसरे ग्रहों पर जीवन की तलाश में लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करके अभियान चलाते हैं और संदेश यह देते हैं कि हम जीवन की तलाश कर रहे हैं,जबकि इन अभियानों का असल मकसद यह होता है कि इन देशों को तकनीक के मामले में सबसे आगे निकलना है। अब कमाल देखिए कि चाँद पर रोवर गहरे गड्ढे में गिरने से बच गया परंतु धरती पर खराब सड़कों के उन बड़े-बड़े गड्ढों से बचने की कोई तकनीक हमारे पास नहीं है जिनके चलते आए दिन कितने ही लोगों की जान चली जाती है।

सवाल इतना सा है कि जब हम तकनीक में इतने संपन्न हैं तो धरती पर यह तकनीक काम क्यों नहीं करती है? उदाहरण के लिए, अभी पिछली गर्मी में बारिश के कारण किसानों की फसलें खराब हो गई थीं जबकि अभी मानसून में कहीं सूखे के कारण तो कहीं अधिक वर्षा के कारण किसानों की फसलों को बहुत नुकसान हुआ। तो किसानों के इस नुकसान का पूर्वानुमान करने वाली कोई तकनीक अभी तक हमारे पास क्यों नहीं है? या फिर ऐसा भी हो सकता है कि तकनीक तो हमारे पास होगी पर उसका सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है। बीमा कंपनियाँ फसल बीमा के नाम पर करोड़ों रुपयों की चाँदी काट रही हैं और इस क्षेत्र में अब प्राइवेट कंपनियाँ भी आ गई हैं, परंतु किसान को बीमा का कोई ज़्यादा लाभ नहीं मिलता है। कंपनियों का मुनाफा साल दर साल बढ़ता जा रहा है और इधर किसान साल दर साल और ज़्यादा फसल नुकसान झेल रहा है। कई सालों का बीमा अभी तक नहीं मिला है। फिर बीमा कराने का क्या फायदा?

इस बार जलवायु परिवर्तन ने अपने तेवर दिखाना शुरू कर दिया है। आने वाले सालों में यह और भी खतरनाक हो सकता है। अभी हमारे देश के कुछ राज्य सूखे का सामना कर रहे हैं तो कई राज्यों को अधिक वर्षा के कारण बाढ़ और भू-स्खलन की घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का असर सिर्फ भारत में ही हो रहा है। पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन का असर हो रहा है जिसके कारण दुनियाभर के लोग इससे प्रभावित हो रहे है और भविष्य में भी होंगे, परंतु सबसे ज़्यादा प्रभावितों की सूची में प्रथम स्थान पर किसान हैं। जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा असर खेती-किसानी पर ही पड़ रहा है जिसके कारण किसानों की फसलें खराब हो रही हैं। फसलें खराब होने के कारण खाद्य सामग्रियों के दाम अप्रत्याशित रूप से बढऩे की संभावना है। वैसे भी अभी हमारे देश में महँगाई की चर्चा बहुत ज़ोर-ओ-शोर से चल रही है, जिसके चलते सभी सरकारें दबाव में हैं। आने वाले चुनावों के कारण लोकलुभावन घोषणाओं की मूसलाधार बारिश हो रही है जबकि बहुत सारे राज्य असल बारिश का इंतज़ार कर रहे हैं।

गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या से विश्व का हर व्यक्ति प्रभावित होगा, इसलिए इस समस्या से निजात पाने में हर व्यक्ति को अपना योगदान देना होगा। चूँकि इस समस्या के उत्पन्न होने में हर व्यक्ति का हाथ है, इसलिए इसके समाधान में भी हर व्यक्ति को भागीदार होना होगा। जिस प्रकार से हमने पर्यावरण को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, ठीक वैसे ही हम सबको पर्यावरण को ठीक करने के लिए कमर कस लेना चाहिए।

यदि अभी भी आप इस समस्या को हल्के में लेना चाहते हैं तो भविष्य में आने वाले खतरों का सामना करने के लिए तैयार रहें। महँगाई से मुकाबला करने के लिए तैयार रहें, खाद्यान्न संकट के लिए तैयार रहें, जल संकट के लिए तैयार रहें, सूखे के लिए तैयार रहें, बाढ़ के लिए तैयार रहें, भीषण गर्मी के लिए तैयार रहें, भू-स्खलन के लिए तैयार रहें, नई-नई बीमारियों के लिए तैयार रहें।

या फिर दूसरा विकल्प यह है कि आप अपनी जीवन-शैली में परिवर्तन करें और प्रकृति को नुकसान पहुँचाने वाली आदतें त्यागें। विकास का जो बेढंगा मॉडल अभी दुनिया भर में चल रहा है, उस पर पुनर्विचार करें। जंगलों और पहाड़ों पर मानवीय हस्तक्षेप की रोकथाम करें। प्रकृति का चीरहरण बंद करें। अन्यथा प्रकृति की व्यवस्था में देर तो है परंतु अंधेर बिलकुल भी नहीं है। पूरी दुनिया तभी तक बची हुई है जब तक प्रकृति का धैर्य है, जिस दिन यह धैर्य टूटा कि प्रकृति का तांडव देखने को मिलेगा। 

यहाँ पर गौर करने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि जलवायु परिवर्तन से किसानों को सबसे ज़्यादा परेशानी का सामना करना पड़ेगा, और खासकर उन किसानों को जिनके पास खेती के अलावा और कोई आजीविका नहीं है। मतलब छोटे और मध्यम किसानों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ेगा, जिसके कारण न सिर्फ इनके परिवार संकट में आएँगे बल्कि खेती-किसानी से जुड़े सभी लोग प्रभावित होंगे और खाद्यान्न संकट पैदा होगा सो अलग।

ऐसा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का संकट सिर्फ एक दिन में खड़ा हो गया है और एक दिन में इसका हल निकल जाएगा। जलवायु परिवर्तन धीरे-धीरे होने वाली एक घटना है और इसका समाधान भी धीरे-धीरे ही होगा। आइए देखते हैं कि इसके समाधान स्वरूप हम क्या कर सकते हैं।

यूँ तो चौपाटी पर चाय पर चर्चा होती रहती है और उस चाय पर देश-विदेश की सारी समस्याओं की चर्चा आमजन कर लेते हैं, परंतु जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करने के लिए किसी के पास समय नहीं है, बल्कि कहना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को आमजन कोई समस्या ही नहीं मानते हैं। इसीलिए यह समस्या इतनी विकराल हो गई है।

जैसे अपने भोजन की गुणवत्ता पर किसी का ध्यान नहीं है, वैसे ही जलवायु परिवर्तन पर भी किसी का ध्यान नहीं है। हरितक्रांति के बाद हमारे देश में रसायन आधारित खेती के कारण एक फसल का चलन बढ़ा है, जिसके कारण शुद्ध और पोषणयुक्त भोजन का अभाव हो गया है। हमारा देश ही नहीं अपितु विश्वभर के लोग रसायनयुक्त भोजन करने पर मजबूर हैं। सोचिए कि जिस भोजन से जीवन चलना है उस पर किसी का ध्यान ही नहीं कि उस भोजन को किस विधि से उत्पादित किया जा रहा है या उसको उपजाने में कितने ज़हरीले रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है। जहरीले रसायनों से चमकदार अनाज बड़े-बड़े आलीशान मॉलों में महँगे दामों में मिल रहे हैं और सभी बड़ी खुशी के साथ इन रसायनयुक्त पदार्थों को अपने भोजन के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी कारण विभिन्न बीमारियों का जन्म हो रहा है।

जिस प्रकार हमने रसायनों का अंधाधुंध इस्तेमाल करके अपने भोजन को पोषणविहीन बना दिया है, ठीक उसी प्रकार हमने आधुनिक और सुविधाजनक जीवनशैली के लिए पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है। हमने प्रकृति के जीवनदायी तत्वों को प्रदूषित करने और उनको बर्बाद करने की जैसे कसम खा रखी है। हम नादानों की तरह जंगलों की कटाई कर रहे हैं। बेशकीमती पानी को सहेजने की जगह उसका अंधाधुंध दोहन करने में लगे हुए हैं। पहाड़ों को भी हमने नहीं छोड़ा है जो कि हमारे रक्षा कवच हैं। शहर दर शहर पहाडिय़ों को छलनी कर दिया है। यदि इन पहाड़ों की आवश्यकता नहीं होती तो प्रकृति में कहीं भी पहाड़ होते ही नहीं। यदि प्रकृति में कुछ है तो समझिए कि वह व्यर्थ नहीं है। प्रकृति में एक छोटी सी चींटी का भी महत्व है और विशालकाय हिमालय का भी ।

प्रकृति हमको जीवन जीने के लिए सारे बहुमूल्य तत्व मुफ्त में प्रदान करती है, पर हम इन बहुमूल्य तत्वों को बर्बाद करने में लगे हुए हैं। हमको इन जीवनदायी तत्वों की कोई कद्र नहीं है। हम सबको बस इतना ही करना है कि हम जिन भी प्रकृति-प्रदत्त तत्वों का जितना भी इस्तेमाल कर रहे हैं उतना ही हिस्सा हमें वापस लौटाना होगा प्रकृति को। और यह जि़म्मेदारी हरेक व्यक्ति की होनी चाहिए। इस समस्या को न तो सरकारों के हवाले किया जाना चाहिए और न ही किसी जी-20 जैसे संगठन के हवाले किया जाना चाहिए। यह तो धरती पर निवास कर रहे हर व्यक्ति की अपनी निजी जि़म्मेदारी होनी चाहिए कि मैं सालभर में जितना पानी इस्तेमाल करता हूँ उतना ही पानी मुझे धरती को लौटाना है।

जितनी ऑक्सीजन मैं साल भर पौधों से ले रहा हूँ उतनी ऑक्सीजन वापस करने के लिए उतने पौधे हर साल लगाऊँ। यदि मुझे प्रकृति साल भर तरह-तरह के फल खाने को दे रही है तो मेरी भी जिम्मेदारी है कि मैं भी फलदार वृक्ष लगाऊँ। यदि जंगलों से वर्षा हो रही है तो मैं भी जंगलों को बनाने में सहयोग करूँ, मिटाने में नहीं। नदियों से हमारा जीवन चल रहा है तो हमको नदियों को बचाकर रखना होगा, न कि उनको प्रदूषित करना है। इस प्रकार प्रकृति हमको जीवन जीने के लिए जो भी कुछ भी कुछ मुफ्त में दे रही है, उसे कीमती समझकर उसका सम्मान करें और उसको नुकसान पहुँचाने वाला कोई भी कार्य न करें। यही सबसे बड़ा कदम होगा जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने की दिशा में। 

किसान भाईयों से यह अपेक्षा है कि वे अपने खेती करने के वर्तमान तरीकों को बदल लेंगे और देश-काल-परिस्थिति के हिसाब से खेती करेंगे, प्रकृति को नुकसान हो ऐसी खेती नहीं करेंगे। रसायन आधारित खेती के दुष्परिणाम अब पूरे विश्व के सामने आने लगे हैं। इन रसायनों के कारण ही भू-जल ज़हरीला हो रहा है, वायु प्रदूषण फैल रहा है और मृदा की उर्वरा शक्ति भी कमज़ोर हो रही है। जबकि खेती के लिए इन तीनों चीज़़ों का शुद्ध होना बहुत ज़रूरी है। इनके बिना खेती की कल्पना करना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए जितनी जल्दी हो, इन रसायनों से तौबा कर लें। सजग रहें, सतर्क रहें।

पवन नागर
संपादक

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