संपादकीय

पेड़ लगाएँ, प्रकृति को बचाएँ

पवन नागर, संपादक

लगातार बढ़ती आबादी के दबाव और येन-केन-प्रकारेण जीडीपी को बढ़ाते जाने की अंधी महत्वाकांक्षा वाले वर्तमान दौर में हर किसी पर औद्योगिक क्रांति का भूत सवार है और इसीलिए जंगलों और पहाड़ों को काटकर बड़े-बड़े कारखाने लगाए जा रहे हैं, बड़े-बड़े बाँध बनाए जा रहे हैं, खनिज निकाले जा रहे हैं, टाऊनशिप्स बनाई जा रही हैं। बहुत से राज्यों से आए दिन खबरें आती रहती हैं कि किस तरह जंगल माफिया, खनिज माफिया, भू-माफिया तथा रेत माफिया मिलकर जंगल, नदी, पहाड़ और खेतों को तबाह करने में जुटे हुए हैं।
हरे-भरे वृक्षों को बेरहमी से काटने वाले हम मनुष्यों को यह भी होश नहीं है कि यही पेड़-पौधे वातावरण में ऑक्सीजन के एकमात्र उत्पादक हैं, कि इन्हीं की वजह से बारिश होती है और इन्हीं की वजह से मिट्टी में नमी बरकरार रहती है, कि हमारी सारी धन-दौलत मिलकर भी वह वातावरण पैदा नहीं कर सकती जो हमारे जि़ंदा रहने के लिए ज़रूरी है और जो केवल और केवल पेड़-पौधे हमारे लिए निर्मित करते हैं- बिना बदले में कुछ मांगे। जो काम ये पेड़-पौधे करते हैं वह आधुनिकतम वैज्ञानिक तकनीक से भी संभव नहीं है।
यदि इसी प्रकार हम अपने जंगलों व पहाड़ों को नष्ट करते रहे और पर्यावरण में प्रदूषण फैलाते रहे, तो दिनोंदिन धरती का तापमान बढ़ता जाएगा और मौसम चक्र प्रभावित होगा। कहीं ज़रूरत से ज्यादा गर्मी पड़ेगी, कहीं ज़रूरत से ज्यादा ठंड। कहीं बेलगाम बाढ़ें आएँगी तो कहीं भीषण सूखा पड़ेगा। पहले उत्तराखंड और अब जम्मू-कश्मीर की त्रासदियाँ इसी तरह की चेतावनियाँ हैं और इस सबका प्रतिकूल प्रभाव फसलों के उत्पादन पर भी पड़ेगा, फलस्वरूप खाद्य-संकट पैदा होगा। यदि प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का हमारा लालच और विकास की अंधी महत्वाकांक्षा इसी तरह बेलगाम बढ़ते रहे तो बहुत जल्द सबकुछ तबाह हो जाएगा।
पहले के समय में किसान अपने खेतों की मेढ़ों पर बबूल, सागौन, नीम, साल इत्यादि के पेड़ लगाया करते थे क्योंकि वे जानते थे ये पेड़ न केवल मिट्टी के कटाव को रोकते हैं बल्कि मिट्टी में नमी का अपेक्षित स्तर भी बनाए रखते हैं। नहरों के किनारे सीताफल, आम, कटहल, जाम, जामुन इत्यादि फलदार वृक्ष लगाए जाते थे, क्योंकि प्रकृति से जुड़ाव रखने वाला पहले का किसान जानता था कि इन वृक्षों पर रहने वाले पक्षी कीड़ों को खाकर मुफ्त में उसकी फसल की रक्षा करते हैं और उसे कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं पड़ती।
हम भूल रहे हैं कि हमारे आसपास मौजूद हरियाली हमारे लिए एक मज़बूत सुरक्षा-कवच का काम करती है और हमें हर तरह के प्रदूषण तथा उनसे पैदा होने वाली असाध्य बीमारियों से बचाती है। जब तक पेड़ हैं, तब तक हम निश्चिंत हैं। एक पेड़ अपनी पूरी जि़ंदगी में हज़ारों मनुष्यों तथा अन्य जीव-जंतुओं को जीवन देता है। लेकिन हम चंद रुपयों के लालच में उसे काट डालने से बाज़ नहीं आ रहे।
यदि हर मनुष्य, हर किसान और हर परिवार यह निश्चय कर ले कि वह अपने जीवनकाल में कम से कम एक पेड़ अवश्य लगाएगा और उसका पालन-पोषण करेगा, तो कुछ ही वर्षों में यह पूरी भारत भूमि पुन: हरी-भरी और समृद्ध हो सकती है। सोचिए यदि एक किसान अपने खेत में चार पेड़ (परिवार के प्रत्येक सदस्य के हिसाब से) भी लगा ले और उसके गाँव में यदि कुल 200 किसान हों, तो उस क्षेत्र में कम से कम 800 पेड़ लहलहाते नज़र आएँगे। कितना हरा-भरा और सुरम्य हो उठेगा वहाँ का वातावरण! इस दिशा में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रतिवर्ष हरियाली महोत्सव मनाना और उस दौरान करोड़ों पौधे रोपना एक प्रशंसनीय कार्य है। हम सभी को इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना चाहिए।
प्रकृति हर वर्ष वर्षा ऋतु में हमें एक अवसर देती है कि हम अपने आसपास उपलब्ध जगह में पेड़-पौधे लगाकर अपने वातावरण को अनुकूल बनाने में योगदान कर सकें। हमें इस मौके को अवश्य भुनाना चाहिए और अपने घर या आस-पड़ौस में कोई उपयुक्त स्थान देखकर वृक्षारोपण अवश्य करना चाहिए। भारत देश में जगह की कमी नहीं है। कमी है केवल अच्छी और सच्ची सोच की और ईमानदारी से प्रयास करने की।
पवन नागर, संपादक

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