संपादकीय

‘मुआवज़ा’ समस्या का हल नहीं है

पवन नागर, संपादक

‘मुआवज़ा’ समस्या का हल नहीं है

उत्तरप्रदेश में गोरखपुर के एक सरकारी अस्पताल में हुई 60 बच्चों की मौत और कुछ दिनों बाद उत्तरप्रदेश के ही फर्रूखाबाद के एक अस्पताल में 45 बच्चों की मौत। बिहार, असम और राजस्थान में बाढ़ के कारण अनेक लोगों की मौतें हुईं जबकि हज़ारों लोग बेघर हो गए और कई दिनों तक भोजन व आसरे के लिए तरसे। जम्मू-कश्मीर में लगभग रोज ही सेना के जवान शहीद हो रहे हैं और नागरिक भी मारे जा रहे हैं। इसके अलावा, देश के कई हिस्सों में कहीं कोई गौ-रक्षा के बहाने हत्या कर रहा है तो कहीं भीड़ स्वच्छता के नाम पर किसी को मार रही है। रेल हादसे अब तो आए दिन ही हो रहे हैं, जिनमें भी काफी लोगों की मौतें हो रही हैं। तीन महीने पहले जून में ही मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन के दौरान प्रशासन द्वारा गोली चलाने पर 6 किसानों की मौत हो गयी थी। और अभी कुछ दिनों पहले ही बाबा राम रहीम के मामले में फैसला आने पर हरियाणा और आस-पास के राज्यों में हिंसा के कारण लगभग 45 लोगों की मौत हो गई। हाल ही की इन सभी घटनाओं में एक खास बात यह है कि इनमें सरकारी तंत्र पूरी तरह विफल रहा है। या कह सकते हैं कि प्रशासन कहीं गुम सा गया है। चाहे मौतें किसी भी कारण से हों, सरकार की तरफ से मुआवज़े और राहत राशि की घोषणा करके जनता को लॉली-पॉप दे दिया जाता है। परंतु यह राशि पीडि़त व्यक्ति या उसके परिवार तक पहुँचती है कि नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं। और क्या सिर्फ मुआवज़े की घोषणा करने से और राहत राशि आवंटित करने से मरा हुआ व्यक्ति वापस आ जाएगा? क्या उसका परिवार पहले की तरह खुशहाल रह पाएगा? क्या हमारे पास ऐसी कोई कार्ययोजना नहीं कि हम इस प्रकार की घटनाओं को रोक सकें। आखिर हमारे पास कमी किस बात की है? ताज्जुब की बात है कि हम विश्व के सिरमौर देशों में से एक बनने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और हमारे पास इस प्रकार की घटनाओं को रोकने के लिए कोई ठोस कार्ययोजना नहीं है। हाँ, इन घटनाओं के होने के तुरंत बाद बाँटने के मुआवज़ा और राहत राशि ज़रूर है। लेकिन इससे इस तरह की घटनाएँ रुकने वाली नहीं हैं। प्रशासन को कुछ ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है।

अगर आँकड़ों की मानें, तो भारत में हर साल 12000 किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। इस हिसाब से देश में हर साल 12000 किसान कम हो रहे हैं और इतने ही परिवार बिखर रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या में किसानों द्वारा आत्महत्याएँ करने के बाद भी सरकार की ओर से अभी तक इन आत्महत्याओं को रोकने के कोई ठोस प्रयास नहीं हुए और न ही होते दिख रहे हैं। अभी तो चारों ओर किसान की आमदनी 2022 तक दुगुनी करने की बात हो रही है। पर कोई यह नहीं बता रहा है कि यह होगा कैसे? इसकी कार्ययोजना क्या है? इसको लागू कैसे किया जाएगा? इन बातों का स्पष्टीकरण ज़रूरी है। वैसे पिछले आम चुनावों से पहले सत्ताधारी पार्टी ने वादा किया था कि किसानों को उपज का सही दाम मिलेगा और स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जाएगा। उस बात को तीन साल गुज़र चुके हैं, पर वादा अभी तक पूरा नहीं हुआ है। ऐसे में किसान कैसे विश्वास करें कि 2022 तक उनकी आमदनी सचमुच दुगुनी हो जाएगी। इस सरकार का कार्यकाल तो 2019 तक ही है। अगर अगले आम चुनाव में सरकार बदल गई तो फिर नई सरकार तो इस सरकार की तरह ही पुरानी सरकार पर दोष मढ़ेगी और कहेगी कि वह तो पिछली सरकार ने कहा था, हमने तो ऐसा कोई वादा नहीं किया।

लगता नहीं कि इस देश की कोई भी पार्टी सरकार में आने पर किसानों के कल्याण हेतु कोई ठोस नीति बनाने की मंशा रखती हो। जिस देश में हर साल 12000 किसान आत्महत्या कर रहे हों, वहाँ अब तक नेताओं और जि़म्मेदार लोगों द्वारा फिज़ूल की बयानबाज़ी के अलावा कुछ नहीं किया गया है। यदि यही स्थिति बनी रही तो अगले पाँच सालों में, यानि कि 2022 तक तो 47000 किसान अपनी आमदनी दुगुनी होने के इंतजार में आत्महत्या कर चुके होंगे और इतने ही परिवार बिखर चुके होंगे।

शुरुआत में विभिन्न घटनाओं में हुई मौतों का जि़क्र इसलिए ही किया गया है कि भारत में मौत की कीमत मुआवज़ा या राहत राशि है। चाहे फसल खराब होने के कारण कोई आत्महत्या कर ले या किसी की सड़क दुर्घटना में मौत हो जाए या आतंकवादी हमले में मौत हो जाए या रेल दुर्घटना में मौत हो जाए या धार्मिक भगदड़ अथवा दंगा-फसाद में कोई मारा जाए, उसे मौत के बदले मुआवज़ा तो मिल ही जाएगा। पर शासन इन घटनाओं को रोकने और इन समस्याओं को खत्म करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाएगा, न कोई नीति बनाएगा।

कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि भारत में किसी भी समस्या को खत्म करने की बजाए उसे बनाए रखना जाना बेहतर माना जाता है, ताकि लंबे समय तक उसका राजनैतिक लाभ लिया जा सके। इसलिए किसानों की समस्याओं का हल अभी तक नहीं हो पाया है, उनके लिए कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है। इसलिए किसान साल-दर-साल क़र्ज़ में फँसता जा रहा है, उसकी ज़मीन बिकती जा रही है, किसानी करने वाले कम होते जा रहे हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन वह आएगा जब हमें खाने-पीने की सभी वस्तुओं के लिए दूसरे देशों पर निर्भर होगा पड़ेगा और पूर्णत: आयात ही करना पड़ेगा।

अभी भी वक्त है हमारे पास किसानों को बचाने का, उनकी स्थिति को बेहतर करने का, उनको आत्मनिर्भर करने का, उनकी आत्महत्याओं को रोकने का। ज़रूरत है तो बस थोड़ी सी इच्छा शक्ति और दृढ़ निश्चय की और ईमानदारी से कार्य करने की।

मेरा किसान भाइयों से अनुरोध है कि शासन की जो योजनाएँ चल रही हैं, उनकी जानकारी के लिए अपने निकटतम कृषि कार्यालय में समय-समय पर जाकर पता करते रहें। और दूसरी बात यह कि स्वयं आत्मनिर्भर बनें। अपना बीज खुद बनाएँ, खाद व कीटनाशक भी घर पर बनाएँ। एक एकड़ में फलों का बागीचा और सब्ज़ी लगा सकते हैं, जिससे आपको हर माह आमदनी होगी। आप कृषि लागत कम करके ही आपकी आमदनी बढ़ा सकते हैं। हमें सुख-सुविधा के साधनों का उतना ही उपयोग करना चाहिए, जितना ज़रूरी हो। अनावश्यक रूप से इनका उपयोग करने से इनकी आदत हो जाएगी और आप आलस में जकड़ जाएँगे। कुल मिलाकर, यह आपके ही हाथ में है कि आपको आत्मनिर्भर एवं खुशहाल किसान बनना है या किसी और पर निर्भर रहने वाला बदहाल किसान।

पवन नागर, संपादक

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