
भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ की नदियाँ, मानसून और उपजाऊ मिट्टी करोड़ों लोगों के जीवन का आधार हैं। लेकिन आज यही प्राकृतिक संसाधन बदलते मौसम और जलवायु संकट के कारण हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती बन गए हैं। 2025 का यह मानसून सीज़न हमें एक बार फिर चेतावनी दे रहा है कि अब समय केवल राहत और बचाव का नहीं, बल्कि स्थायी समाधान खोजने का है।
बार-बार और असामान्य बाढ़ अब हमारे लिए एक नई हकीकत बन चुकी है। पिछले कुछ वर्षों में हमने बार-बार देखा है कि जहाँ एक ओर लू और सूखे की मार है, वहीं दूसरी ओर अचानक बादल फटने, ग्लेशियर झील फटने और लगातार कई दिनों तक तेज वर्षा ने नदियों को उफान पर ला दिया।
इस वर्ष पंजाब में आई बाढ़ ने तीन दशकों का रिकॉर्ड तोड़ दिया। लगभग 3.5 लाख लोग प्रभावित हुए और लाखों एकड़ खेतों में खड़ी फसल बर्बाद हो गई। कई लोगों की जान भी गई, पशुधन का भी काफी नुकसान हुआI सवाल खड़ा होता है कि इस सदमे से निकलने में पंजाब को कितना वक्त लगेगा?
वहीं दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में बादल फटने से फ्लैश फ्लड आई, गाँव के गाँव बह गए। दिल्ली और उत्तर प्रदेश में यमुना का जलस्तर खतरे के निशान से ऊपर पहुँच गया, जिससे राजधानी तक का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। ये केवल उदाहरण हैं। वास्तविकता यह है कि देश के लगभग हर हिस्से में बाढ़ अब असामान्य नहीं, बल्कि नई सामान्य स्थिति (new normal) बनती जा रही है।
अब सवाल उठता है कि क्या जलवायु परिवर्तन ही है इसका मूल कारण?
साथियो! अब मानसून का पैटर्न बदल चुका है। पहले मानसून चार महीनों तक संतुलित बारिश लाता था। अब अक्सर देखा जाता है कि पहले लंबे सूखे की स्थिति रहती है और अचानक 2-3 दिनों में इतनी बारिश होती है कि नदी-नाले उफान पर आ जाते हैं। यह सीधा असर जलवायु परिवर्तन का है। दूसरी तरफ हिमालयी क्षेत्रों में तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है। ग्लेशियर पिघलने से न केवल नदियों में पानी बढ़ रहा है, बल्कि ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (ग्लेशियर झील फटने से आने वाली बाढ़) जैसी आपदाएँ भी आम हो रही हैं।
ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण हवा में अधिक नमी रहती है। यह नमी मानसून के दौरान बादलों को भारी बना देती है और अचानक बारिश की तीव्रता बढ़ जाती है। यह तो हु़ई बात जलवायु परिवर्तन की। क्या मानव निर्मित कारण भी इन प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ाने में, आग में घी डालने का काम कर रहे हैं?
नहीं, केवल जलवायु परिवर्तन ही ज़िम्मेदार नहीं है इन आपदाओं का, बल्कि हमारी गलत नीतियाँ और लालच भी बाढ़ को विकराल बनाते हैं। बाढ़ के मानव-जनित कारणों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं :
बाढ़ मैदानों पर अतिक्रमण : नदियों के प्राकृतिक बहाव क्षेत्र में कॉलोनियाँ, सड़कें और उद्योग खड़े कर दिए गए हैं।
बाँधों से अचानक पानी छोड़ा जाना : बिना सही योजना के बाँधों से अचानक पानी छोड़ा जाना नीचे के इलाकों को डुबो देता है।
कमजोर तटबंध और खराब जल निकासी तथा नालों और नदियों की सफाई न होना: इससे पानी बाहर निकलने के बजाय शहरों और गाँवों में घुस जाता है।
अत्यधिक रासायनिक खेती: खेती में रसायनों के अंधाधुंध उपयोग से मिट्टी कठोर हो जाती है और पानी सोखने की क्षमता खो देती है।
समाधान क्या है?
बाढ़ का सबसे बड़ा शिकार हमेशा किसान ही तो होता है। भारत की 60% से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है। बाढ़ का सबसे गहरा असर किसानों पर होता है। बाढ़ के कारण धान, कपास और गन्ने जैसी प्रमुख फसलें बर्बाद हो जाती हैं। कर्ज़ के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या तक करने को मजबूर हो जाते हैं। बाढ़ केवल प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि यह सामाजिक और आर्थिक आपदा भी है।
जब मौसम अनिश्चित हो, बारिश कभी बहुत ज़्यादा तो कभी बहुत कम हो, तब किसानों के लिए सबसे बड़ा सहारा है प्राकृतिक खेती। यह केवल खेती की पद्धति नहीं, बल्कि जलवायु संकट से लड़ने की एक जीवन रक्षक रणनीति है। प्राकृतिक खेती बाढ़ की समस्या के समाधान की दिशा में एक कदम हो सकती है। ऐसा सोचने के पीछे निम्नलिखित वजहें हैं :
प्राकृतिक खेती से मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता बढ़ जाती है। जीवामृत, गोबर और गोमूत्र आधारित कृषि मिट्टी को सजीव बनाती है। इससे मिट्टी सरंध्र (पोरस) हो जाती है और स्पंज की तरह एक साथ ढेर सारा पानी सोखकर धीरे-धीरे छोड़ती है। इस तरह की मिट्टी में बाढ़ के समय कटाव कम होता है और सूखे के समय नमी बनी रहती है।
प्राकृतिक खेती में विविध फसलें लगाई जाती हैं। एकल फसल के बजाय मिश्रित और बहु-फसली खेती बाढ़ या सूखे के समय नुकसान के जोखिम को कम करती है। इसका सबसे बड़ा फायदा होता है कि अगर एक फसल नष्ट हो जाए तो दूसरी से किसान को सहारा मिल जाता है।
प्राकृतिक खेती को अपनाने से भूजल और वर्षा जल संरक्षण की दिशा में भी हम एक क़दम बढ़ा सकते हैं। प्राकृतिक खेती में मल्चिंग और जैविक तकनीकें पानी को ज़मीन में रोकती हैं। यह बाढ़ के समय अतिरिक्त पानी को ज़मीन में समाने देती हैं और भूजल स्तर को बढ़ाती हैं।
प्राकृतिक खेती करने से किसानों को रासायनिक खेती से मुक्ति मिलती है। प्राकृतिक खेती में रसायन नहीं होते, इसलिए मिट्टी धीरे-धीरे और मज़बूत होती जाती है। ऐसी मिट्टी बाढ़ और सूखे दोनों को झेल सकती है।
गाँव स्तर पर जल प्रबंधन समितियाँ बनें, जो तालाबों, नालों और नदियों की देखभाल करें। इस प्रकार स्थानीय स्तर पर भागीदारी से जागरूकता एवं ज़िम्मेदारी बढ़ाई जा सकती है।
वैज्ञानिक और प्रशासन मिलकर हाइपरलोकल पूर्वानुमान विकसित करें, जिससे गाँवों तक समय पर चेतावनी पहुँचे।
हमारे देश क़े नीति निर्धारकों और समाज की प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। सरकार को बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में राहत पैकेज देने के साथ-साथ किसानों को प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए भी प्रोत्साहन देना चाहिए। बाढ़ और जलवायु परिवर्तन अब भविष्य का संकट नहीं, बल्कि वर्तमान की सच्चाई है। भारत को राहत और पुनर्वास की नीतियों से आगे बढ़कर स्थायी समाधान की ओर जाना होगा। प्राकृतिक खेती किसानों को न केवल आर्थिक रूप से मज़बूत बनाती है, बल्कि यह मिट्टी, पानी और पर्यावरण को भी बचाती है।
यदि हम सचमुच जलवायु परिवर्तन से लड़ना चाहते हैं, तो हमें खेती और विकास की दिशा को प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण बनाना होगा। जलवायु परिवर्तन से लड़ाई केवल सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि हर किसान, हर नागरिक और पूरे समाज की साझी ज़िम्मेदारी है। प्राकृतिक खेती इस लड़ाई का सबसे सशक्त हथियार है।
पवन नागर
सम्पादक